पदमावति सब सखी बोलाई । चीर पटोर हार पहिराई॥
सीस सबन्ह के सेंदुर पूरा । औ राते सब अंग सेंदूरा॥
चंदन अगर चित्रा सब भरीं । नए चार जानहु अवतरीं॥
जनहुँ कँवल सँग फूली कूईं । जनहुँ चाँद सँग तरई उईं॥
धानि पदमावति, धानि तोरनाहू । जेहि अभरन पहिरा सब काहू॥
बारह अभरन सोरह सिंगारा । तोहि सौंह नहिं ससि उजियारा॥
ससि सकलंक रहै नहिं पूजा । तू निकलंक, न सरि कोइ दूजा॥
काहू बीन गहा कर, काहू नाद मृदंग।
सबन्ह अनंद मनावा, रहसि कूदि एक संग॥1॥
पदमावति कह सुनहु सहेली । हौं सो कँवल, तुम कुमुदिनि बेली॥
कलस मानि हौं तेहि दिन आई । पूजा चलहु चढ़ावहिं जाई॥
मँझ पदमावति कर जो बेवानू । जनु परभात परै लखि भानू॥
आस-पास बाजत चौडोला । दुँदुभि, झाँझ, तूर, डफ, ढोला॥
एक संग सब सोंधो भरी । देव दुवार उतरि भइ खरी॥
अपने हाथ देव नहवावा । कलस सहस इक घिरित भरावा॥
पोता मँडप अगर औ चंदन । देव भरा अरगज औ बंदन॥
कै प्रनाम आगे भई, विनय कीन्ह बहु भाँति।
रानी कहा चलहु घर, सखी! होति है राति॥2॥
भइ निसि, धानि जस ससि परगसी । राजै देखि भूमि फिर बसी॥
भइ कटकई सरद ससि आवा । फेरि गगन रवि चाहै छावा॥
सुनि धानि भौंह धानुक फिरि फेरा । काम कटाछन्ह कोरहि हेरा॥
जानहु नाहिं पैज, पिय! खाँचौं । पिता सपथ हौं आजु न बाँचौं॥
काल्हि न होइ, रही महि रामा । आजु करहु रावन संग्रामा॥
सेन सिंगार महूँ है सजा । गजगति चाल, ऍंचल गति धाजा॥
नैन समुद औ खड़ग नासिका । सरवरि जूझ को मो सहुँ टिका?॥
हौं रानी पदमावति, मैं जीता रस भोग।
तू सरवरि करु तासौं, जो जोगी तोहि जोग॥3॥
हौं अस जोगि जानि सब कोऊ । बीर सिंगार जिते मैं दोऊ॥
उहाँ सामुहें रिपु दल माहाँ । इहाँ त काम कटक तुम्ह पाहाँ॥
उहाँ त हय चढ़ि कै दल मंडौं । इहाँ त अधार अमिय रस खंडौं॥
उहाँ त खड़ग नरिंदहिं मारौं । इहाँ त बिरह तुम्हार सँघारौ॥
उहाँ त गज पेलौं होइ केहरि । इहवाँ काम कामिनी हिय हरि॥
उहाँ त लूटौं कटक ख्रधाारू । इहाँ त जीतौं तोर सिंगारू॥
उहाँ त कुंभस्थल गज नावौं । इहाँ त कुच कलसहि कर लावौं॥
परै बीच धारहरिया, प्रेम राज को टेक?
मानहिं भोग छवो ऋतु, मिलि दूवौ होइ एक॥4॥
प्रथम बसंत नवल ऋतु आई । सुऋतु चैत बैसाख सोहाई॥
चंदन चीर पहिरि धारि अंगा । सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा॥
कुसुम हार औ परिमल बासू । मलयागिरि छिरका कबिलासू॥
सौंर सुपेती फूलन डासी । धानि औ कंत मिले सुखबासी॥
पिउ सँजोग धानि जोबन बारी । भौंर पुहुप संँग करहिं धामारी॥
होइ फाग भलि चाँचरि जोरी । बिरह जराइ दीन्ह जस होरी॥
धानि ससि सरिस, तपै पिय सुरू । नखत सिंगार होहिं सब चूरू॥
जिन्ह घर कंता ऋतु भली, आव बसंत जो नित्ता।
सुख भरि आवहिं देवहरै, दु:ख न जानै कित्ता॥5॥
ऋतु ग्रीषम कै तपनि न जहाँ । जेठ असाढ़ कंत घर जहाँ॥
पहिरि सुरंग चीर धानि झीना । परिमल मेद रहा तन भीना॥
पदमावति तन सिअर सुबासा । नैहर राज, कंत घर पासा॥
औ बड़ जूड तहाँ सोवनारा । अगर पोति, सुख तने ओहारा॥
सेज बिछावन सौंर सुपेती । भोग बिलास करहिं सुख सेती॥
अधार तमोर कपुर भिमसेना । चंदन चरचि लाव तन बेना॥
भा अनंद सिंघल सब कहूँ । भागवंत कहँ सुख ऋतु छहूँ॥
दारिउँ दाख लेहिं रस, आम सदाफर डार।
हरियर तन सुअटा कर, जो अस चाखनहार॥6॥
रितु पावस बरसै पिउ पावा । सावन भादौं अधिाक सोहावा॥
पदमावति चाहत ऋतु पाई । गगन सोहावन, भूमि सोहाई॥
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी । धानि निसरीं जनु बीरबहूटी॥
चमक बीजु, बरसै जल सोना । दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
रँगराती पीतम सँग जागी । गरजै गगन चौंकि गर लागी॥
सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब देखाइ संसारा॥
हरियर भूमि कुसुंभी चोला । औ धानि पिउ सँग रचा हिंडोला॥
पवन झकोरे होइ हरषु लागे सीतल बास।
धानि जानै यह पवन है, पवन सो अपने पास॥7॥
आइ सरद ऋतु अधिाक पियारी । आसिन कातिक ऋतु उजियारी॥
पदमावति भइ पूनिउँ कला । चौदसि चाँद उई सिंघला॥
सोरह कला सिंगार बनावा । नखत भरा सूरुज ससि पावा॥
भा निरमल सब धारति अकासू । सेज सँवारि कीन्ह फुलबासू॥
सेत बिछावन औ उजियारी । हँसि हँसि मिलहिं पुरुष औ नारी॥
सोनफूल भइ पुहुमी फूली । पिय धानि सौं, धानि पिय सौं भूली॥
चख अंजन देइ खंजन देखावा । होइ सारस जोरी रस पावा॥
एहि ऋतु कंता पास जेहि, सुख तेहि के हिय माहँ।
धानि हँसि लागै पिउ गरै, धानि गर पिउ कै बाँह॥8॥
ऋतु हेमंत सँग पिएउ पियाला । अगहन पूस सीत सुख काला॥
धानि औ पिउ महँ सीउ सोहागा । दुहुन्ह अंग एकै मिलि लागा॥
मन सौं मन, तन सौं तन गहा । हिय सौं हिय, बिचहार न रहा॥
जानहुँ चंदन लागै अंगा । चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी । उन्ह लेखे सब सिस्टि जुड़ानी॥
जूझ दुवौ जोबन सौं लागा । बिच हुँत सीउ जीउ लेइ भागा॥
दुइ घट मिलि एकै होइ जाहीं । ऐस मिलहिं, तबहूँ न अघाहीं॥
हंसा केलि करहिं जिमि, खूँदहिं कुरलहिं दोउ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥9॥
आइ सिसिर ऋतु, तहाँ न सीऊ । जहाँ माघ फागुन घर पीऊ॥
सौंर सुपेती मंदिर राती । दगल चीर पहिरहिं बहु भाँती॥
घर-घर सिंघल होइ सुख जोजू । रहा न कतहुँ दु:ख कर खोजू॥
जहँ धानि पुरुष सीउ नहिं लागा । जानहुँ काग देखि सर भागा॥
जाइ इंद्र सौं कीन्ह पुकारा । हौं पदमावति देस निसारा॥
एहि ऋतु सदा संग महँ सेवा । अब दरसन तें मोर बिछोवा॥
अब हँसि कै ससि सूरहिं भेंटा । रहा जो सीउ बीच सो मेटा॥
भएउ इंद्र कर आयसु, बड़ सताव यह सोइ।
कबहुँ काहु के पार भइ, कबहूँ काहु के होइ॥10॥
(1) चार=ढंग, चाल, प्रकार। जेहि=जिसकी बदौलत। सौंह=सामने। पूजा=पूरा।
(2) चौडोल=पालकी (के आस-आस)। सोंधो=सुगंधा। बंदन=सिंदूर या रोली।
(3) कटकई=चढ़ाई, सेना का साज। कोरहि हेरा=कोने से ताका। पैज खाँचौं=प्रतिज्ञा करती हूँ। हौं=मुझसे। रही महि=पृथ्वी पर पड़ी रही। धाजा=धवजा, पताका। सहुँ=सामने।
(4) मंडौं=शोभित करता हूँ। इहवाँ काम... ...हिय हरि=यहाँ कामिनी के हृदय से कामताप को हर कर ठेलता हूँ। ख्रधाारू=स्कंधाावार, तंबू, छावनी। धारहरिया=बीचबचाव करने वाला।
(5) सार=चादर। डासी=बिछाई हुई। देवहरै=देवमंदिर में।
(6) झीना=महीन। सिअर=शीतल। सोवनार=शयनागार। ओहारा=परदे। सुख सेंती=सुख से।
(7) चाहति=मनचाही। बरसै जल सोना=कौंधो की चमक में पानी की बूँदें सोने की बूँदों सी लगती हैं। कुसुंभी=कुसुम के (लाल) रंग का। चोला=पहनावा। धानि जानै...पास=स्त्राी समझती है कि वह हर्ष और शीतल वास पवन में है पर वह उस प्रिय में है (उसके कारण है) जो उसके पास है।
(8) नखत भरा ससि=आभूषणों के सहित पदमावती। फुलबासू=फूलों से सुगंधिात।
(9) धानि... धानि सोहागा=शीत दोनों के बीच सोहागे के समान है जो सोने के दो टुकड़ों को मिलाकर एक करता है। उन्ह लेखे=उनकी समझ में। बिच हुँत बीच से। खूँदहिं कुरलहिं=उमंग में क्रीड़ा करते हैं। बिछोउ=बिछोह, वियोग।
(10) सौंर=चादर। राती=रात में। दगल=दगला, एक प्रकार का ऍंगरखा या चोला। जोजू=भोगू। खोजू=निशान, चिद्द, पता। सर=बाण, तीर। जानहु काग=यहाँ इंद्र के पुत्रा जयंत की ओर लक्ष्य है। आयसु भएउ=(इंद्र ने) कहा। बड़ सताव यह सोइ=यह वही है जो लोगों को बहुत सताया करता है।