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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम नागमती-वियोग खंड पीछे     आगे

नागमती चितउर पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥

नागर काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा॥

सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ॥

भएउ नरायन बाबँन करा । राज करत राजा बलि छरा॥

करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धारि झिलमिल इंदू॥

मानत भोग गोपिचँद भोगी । लेइ अपसवा जलंधार जोगी॥

लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?

सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधाा लीन्ह?

झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह॥1॥

पिउ बियोग अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोले 'पिउ पीऊ॥'

अधिाक काम दाधो सो रामा । हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा॥

बिरह बान तस लाग न डोली । रक्त पसीज, भीजि गई चोली॥

सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी॥

खन एक आव पेट महँ! सांसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा॥

पवन डोलावहिं सींचहिं चोला । पहर एक समुझहिं मुख बोला॥

प्रान पयान होत को राखा ? को सुनाव पीतम कै भाखा?

आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि।

हंस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि॥2॥

पाट महादेइ! हिये न हारू । समुझि जीउ, चित चेतु सँभारू॥

भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा॥

पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास, बाँधाु मन थीती॥

धारतिहि जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा॥

पुनि बसंत ऋतु आव नवेली । सो रस, सो मधाुकर, सो बेली॥

जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिवर पुनि उठिहि सवारी॥

दिन दस बिनु जल सूखि बिधांसा । पुनि सोइ सरवर सोई हंसा॥

मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेंटि अहंत।

तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत॥3॥

चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा॥

धाूम, साम, धाौरे घन घाए । सेत धाजा बग पाँति देखाए॥

खड़ग बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद बान बरसहिं घन घोरा॥

ओनई घटा आइ चहुँ फेरी । कंत! उबारु मदन हौं घेरी॥

दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ॥

पुष्य नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मँदिर को छावा?

अद्रा लाग लागि भुइँ लेई । मोहिं बिनु पिउ को आदर देई॥

जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब।

कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब॥4॥

सावन बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी॥

लाग पुनरबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि, कहँ कंत सरेखा॥

रकत कै ऑंसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चलीं जस बीरबहूटी॥

सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियरि भूमि, कुसुंभी चोला॥

हिय हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा॥

बाट असूझ अथाह गँभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी॥

जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी॥

परबत समुद अगम बिच, बीहड़ वन बनढाँख।

किमि कै भेंटौं कंत तुम्ह? ना मोहि पाँव न पाँख॥5॥

भा भादों दूभर अति भारी । कैसे भरौं रैनि ऍंधिायारी॥

मँदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा॥

रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥

चमकि बीजु घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा॥

बरसै मघा झकोरि झकोरी । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी॥

धानि सूखै भरे भादौं माहा । अबहुँ न आएन्हि सींचेन्हि नाहा॥

पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आग जवास भई तस झूरी॥

थल जल भरे अपूर सब, धारति गगन मिलि एक।

धानि जोबन अवगाह महँ, दे बूड़त, पिउ! टेक॥6॥

लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहुँ आउ कंत तन लटा॥

तोहि देखे पिउ! पलुहै कया । उतरा चीतु बहुरि करु मया॥

चित्राा मित्रा मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा॥

उआ अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा॥

स्वाति बूँद चातक मुखपरे । समुद सीप मोती सब भरे॥

सरवर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं, खंजन देखाए॥

भा परगास, काँस बन फूले । कंत न फिरे बिदेसहि भूले॥

बिरह हस्ति तन सालै, धााय करै चित चूर।

बेगि आइ, पिउ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर॥7॥

कातिक सरद चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी॥

चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरै सब धारति अकासा॥

तन मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, भएउ मोहि राहू॥

चहूँ खंड लागै ऍंधिायारा । जौं घर नाही कंत पियारा॥

अबहूँ निठुर! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा॥

सखि झूमक गावैं ऍंग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी॥

जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा॥

सखि मानैं तिउहार सब, गाइ देवारी खेलि।

हौं का गावौं कंत बिनु रही छार सिर मेलि॥8॥

अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी । दूभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी?

अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती॥

काँपे हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ॥

घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप रँग लेइगा नाहू॥

पलटि न बहुरा गा जो बिछोई । अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई॥

बज्र अगिनि बिरहिनि हिय जारा । सुलुगि सुलुगि दगधौ होइ छारा॥

यह दुख दगधा न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू॥

पिउ सौं कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग!

सो धानि बिरहै जरि मुई, तेहि क धाुवाँ हम्ह लाग॥9॥

पूस जाड़ थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका दिसि चाँपा॥

बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ॥

कंत कहाँ लागौं औहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे॥

सौंर सपेती आवै जूड़ी । जानहु सेज हिवंचल बूड़ी॥

चकई निसि बिछुरै दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला॥

रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी॥

बिरह सचान भएउ तन जाड़ा । जियत खाइ औ मुए न छाँड़ा॥

रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख।

धानि सारस होइ ररि मुई, पीउ समेटहि पंख॥10॥

लागेउ माघ परै अब पाला । बिरहा काल भएउ जड़काला॥

पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिाकौ हिय काँपै॥

आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा॥

एहि माह उपजै रसमूलू । तूँ सौ भौंर मोर जोबन फूलू॥

नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर चीरू॥

टप टप बूँद परहिं अस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला॥

केहि क सिंगार, को पहिरु पटोरा। गीउ न हार, रही होइ डोरा॥

तुम बिनु काँपे धानि हिया, तन तिनउर भा डोल।

तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ावा झोल॥11॥

फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा॥

तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा॥

तरिवर झरहिं, झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा॥

करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू॥

फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी॥

जो पै पीउ जरत अस पावा । जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥

राति दिवस बस यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे॥

यह तन जारौं छार कै, कहौं कि 'पवन! उड़ाव'।

मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धारै जहँ पाव॥12॥

चैत बसंता होइ धामारी । मोहिं लेखे संसार उजारी॥

पंचम बिरह पंच सर मारै । रकत रोइ सगरौं बन ढारै॥

बूड़ि उठे सब तरिवर पाता । भीजि मजीठ, टेसु बन राता॥

बौरे आम फरै अब लागे । अबहुँ आउ घर, कंत सभागे॥

सहस भाव फूलीं बनसपती । मधाुकर घूमहिं सँवरि मालती॥

मोकहँ फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे॥

फरि जोबन भए नारँग साखा । सुआ बिरह अब जाइ न राखा॥

घिरिनि परेवा होइ पिउ! आउ बेगि परु टूटि।

नारि पराए हाथ है, तोहि बिनु पाव न छूटि॥13॥

भा बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चँदन भा आगी॥

सूरुज जरत हिवंचल ताका । बिरह बजागि सौंह रथ हाँका॥

जरत बजागिनि करु, पिउ छाहाँ । आइ बुझाउ, ऍंगारन्ह माहाँ॥

तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि तें करु फुलवारी॥

लागिउँ जरै जरै जस भारू । फिरि फिरि भूँजेसि, तजिउँन बारू॥

सरवर हिया घटत निति जाई । टूक टूक होइकै बिहराई॥

बिहरत हिया करहु पिउ! टेका । दीठि दवँगरा मेरवहु एका॥

कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ।

कबहुँ बेलि फिरि पलुहै, जौ पिउ सींचै आइ॥14॥

जेठ जरै जग, चलै लुवारा । उठहिं बवंडर परहिं ऍंगारा॥

बिरह गाजि हनुबँत होइ जागा । लंकादाह करै तनु लागा॥

चारिहु पवन झकोरै आगी । लंका दाहि पलंका लागी॥

दहि भइ साम नदी कालिंदी । बिरह क आगि कठिन अति मंदी॥

उठै आगि औ आवै ऑंधाी । नैन न सूझ, मरौं दु:ख बाँधाी॥

अधाजर भइउँ, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा॥

माँस खाइ सब हाड़न्ह लागै । अबहुँ आउ, आवत सुनि भागै॥

गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रवि, सहि न सकहिं वह आगि।

मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि॥15॥

तपै लागि अब जेठ असाढ़ी । तोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी॥

तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुख आगरि जरी॥

बंधा नाहिं औ कंधा न कोई । बात न आव कहौं का रोई?॥

साँठि नाठि, जग बात को पूछा ? बिनु जिउ फिरै मूँज तनु छूँछा॥

भई दुहेली टेक बिहूनी । थाँम नाहिं उठि सकै न थूनी॥

बरसै मेघ चुवहिं नैनाहा । छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा॥

कोरौं कहाँ ठाट नव साजा ? तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा॥

अबहुँ मया दिस्टि करि, नाह निठुर! घर आउ।

मँदिर उजार होत है, नव कै आइ बसाउ॥16॥

रोइ गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा॥

तिल तिल बरख बरख पर जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई॥

सो नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी॥

साँझ भए झुरि झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा?

दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा॥

रकत न रहा बिरह तन गरा । रती रती होइ नैनन्ह ढरा॥

पाय लागि जोरै घनि हाथा । जारा नेह, जुड़ावहु, नाथा॥

बरस दिवस धानि रोइ कै, हारि परी चित झंखि।

मानसु घर घर बूझि कै, बूझै निसरी पंखि॥17॥

भई पुछार, लीन्ह बनबासू । बैरिनि सवति दीन्ह चिलबाँसू॥

होइ खर बान बिरह तनु लागा । जौ पिउ आवै उड़हि तौ कागा॥

हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहँ पठवौं कौन परेवा॥

धाौरी पंडुक कहु पिउ नाऊँ । जौं चितरोख न दूसर ठाऊँ॥

जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा॥

कोइल भई पुकारति रही । महरि पुकारै 'लेइ लेइ दही'॥

पेड़ तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा॥

जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह कै बात।

सोइ पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात॥18॥

कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई । रकत ऑंसु घुघुची बन बोई॥

भइ करमुखी नैनतन राती । को सेराव? बिरहा दुख ताती॥

जहँ जहँ ठाढ़ि होइबनबासी । तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी॥

बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ । गुंजा गूँजि करै 'पिउ पीऊ'॥

तेहि दुख भए परास निपाते । लोहू बूड़ि उठे होइ राते॥

राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूँ॥

देखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता?

नहिं पावस ओहि देसरा, नहिं हेवंत बसंत।

ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत॥19॥

(1) पथ हेरा=रास्ता देखती है। नागर=नायक। बाबँन करा=वामन रूप। छरा=छला। करन=राजा कर्ण। छंदू=छलछंद, धाूर्तता। झिलमिल=कवच (सीकड़ों का)। अपसवा=चल दिया। पींजर=पंजर, ठठरी।

(2) बाउर=बावला। हरे-हरे=धाीरे-धाीरे। नारी=नाड़ी। चोला=शरीर। पहर एक...बोला=इतना अस्पष्ट बोल निकलता है कि मतलब समझने में पहरों लग जाते हैं। हंस=हंस और जीव।

(3) पाट महादेइ=पट्टमहादेवी, पटरानी। मेरावा=मिलाप। टेकु पियास=प्यास सह। बाँधाु मन थीती=मन में स्थिरता बाँधा। जिनि=मत। पलुहंत=पल्लवित होते हैं, पनते हैं।

(4) गाजा=गरजा। धाूम=धाूमले रंग के। धाौरे=धावल, सफेद। ओनई=झुकी। लेई लागि=खेतों में लेवा लगा, खेत में पानी भर गया। गारौ=गौरव, अभिमान (प्राकृत-गारव, 'आ च गौरवे')।

(5) मेह=मेघ। भरनि परी=खेतों में भरनी लगी। सरेख=चतुर। भँभीरी=एक प्रकार का फतिंगा जो संधया के समय बरसात में आकाश में उड़ता दिखाई पड़ता है।

(6) दूभर=भारी कठिन। भरौं=काटूँ, बिताऊँ; जैसे-नैहर जनम भरब बरु जाई-तुलसी। अनतै=अन्यत्रा। तरासा=डराता है। ओरी=ओलती। पुरबा=एक नक्षत्रा।

(7) लटा=शिथिल हुआ। पलुहै=पनपती है। उतरा चीतु=चित्ता से उतरी या भूली बात धयान में ला। चित्राा=एक नक्षत्रा। तुरय=घोड़ा। पलानि=जीन कसकर। घाय=घाव। बाजहु=लड़ो। गाजहु=गरजो। सदूर=शार्दूल, सिंह।

(8) झूमक=मनोरा झूमक नाम का गीत। झुरावँ=सूखती हूँ। जनम=जीवन।

(9) दूभर=भारी, कठिन। नाहू=नाथ। सो धानि बिरहै...लाग=अर्थात् वही धाुऑं लगने के कारण मानो भौंरे और कौए काले हो गए।

(10) लंका दिसि=दक्षिण दिशा को। चाँपा जाइ=दबा जाता है। कोकिला=जलकर कोयल (काली) हो गई। सचान=बाज। जाड़ा=जाड़े में। ररि मुई=रटकर मर गई। पीउ...पंख=प्रिय आकर अब पर समेटे।

(11) जड़काला=जाड़े के मौसम में। माहा=माघ में। महवट=मघवट, माघ की झड़ी। चीरू=चीर, घाव। सर=बाण। झोला मारना=बात के प्रकोप से अंग का सुन्न हो जाना। केहि क सिंगार?=किसका शृंगार? कहाँ का शृंगार करना? पटोरा=एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। डोरा=क्षीण होकर डोरे के समान पतली। तिनउर=तिनके का समूह। झोल=राख, भस्म; जैसे-'आगि जो लागी समुद में टुटि टुटि खसै जो झोल'-कबीर।

(12) ओनंत=झुकी हुई। निहोर लगौं=यह शरीर तुम्हारे निहोरे लग जाए, तुम्हारे काम आ जाए।

(13) पंचम=कोकिल का स्वर या पंचम राग। (वसंत पंचमी माघ में ही हो जाती है इससे 'पंचमी' अर्थ नहीं ले सकते) सगरौं=सारे। बूड़ि उठे...पाता=नए पत्ताों मेें ललाई मानो रक्त में भीगने के कारण है। घिरिनि परेवा=गिरहबाज कबूतर या कौड़िल्ला पक्षी। नारि=(क) नाड़ी, (ख) स्त्राी।

(14) हिवंचल ताका=उत्तारायण हुआ। बिरह बजागि...हाँका=सूर्य तो सामने से हटकर उत्तार की ओर खिसका हुआ चलता है, उसके स्थान पर विरहाग्नि से सीधो मेरी ओर रथ हाँका। भारू=भाड़। सरवर हिया...बिहराई=तालों का पानी जब सूखने लगता है तब पानी सूखे हुए स्थान में बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे बहुत से खाने कटे दिखाई पड़ते हैं। दवँगरा=वर्षा के आरंभ की झड़ी। मेरवहु एका=दरारें पड़ने के कारण जो खंड-खंड हो गए हैं उन्हें मिलाकर फिर एक कर दो। बड़ी सुंदर उक्ति है।

(15) लूवार=लू। गाजि=गरजकर। पलंका=पलँग। मंदी=धाीरे-धाीरे जलानेवाली।

(16) तिनउर=तिनकों का ठाट। झूरौं=सूखती हूँ। बंधा=ठाट बाँधाने के लिए रस्सी। कंधा न कोई=अपने ऊपर (सहायक) भी कोई नहीं है। साँठि नाठि=पूँजी नष्ट हुई। मूँज तनु छूँछा=बिना बंधान की मूँज के ऐसा शरीर। थाँम=खंभा। थूनी=लकड़ी की टेक। छपर छपर=तराबोर। कोरौं=छाजन की ठाट में लगे बाँस या लकड़ी। नव कै=नए सिरे से।

(17) सहस सहस साँस=एक एक दीर्घ नि:श्वास सहस्रों दु:खों से भरा था, फिर बारह महीने कितने दु:खों से भरे बीते होंगे। तिल तिल...परि जाई=तिल भर समय एक-एक वर्ष के इतना पड़ जाता है। सेराई=समाप्त होता है। सोहाग=(क) सौभाग्य; (ख) सोहागा। सुनारी=(क) वह स्त्राी, (ख) सुनारिन। झूरि=सूखकर।

(18) पुछार=(क) पूछने वाली, (ख) मयूर। चिलवाँस=चिड़िया फँसाने का एक फंदा। कागा=स्त्रिायाँ बैठे कौए को देखकर कहती हैं कि 'प्रिय आता हो तो उड़ जा।' हारिल=(क) थकी हुई, (ख) एक पक्षी। धाौरी=(क) सफेद, (ख) एक चिड़िया। पंडुक=(क) पीली, (ख) एक चिड़िया। चितरोख=(क) हृदय में रोष, (ख) एक पक्षी। जाहि बया=संदेश लेकर जा और फिर आ (बया=आ-फारसी)। कँठलवा=गले में लगाने वाला। गौरवा=(क) गौरवयुक्त, बड़ा, (ख) गौरा पक्षी। दही=(क) दधिा; जलाई। पेड़=पेड़ पर। जल=जल में। तिलोरी=तेलिया मैना। कटनंसा=(क) काटता और नष्ट करता है; (ख) कटनास या नीलकंठ। निपात=पत्राहीन।

(19) घुँघुची=गुंजा। सेराव=ठंढा करे। बिंब=बिंबाफल।


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