मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ न जानी॥
जानहु चित्रा मूर्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई॥
जनम न सहा पवन सकुवाँरा । तेइ सो परी दुख समुद अपारा॥
लछिमी नावँ समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी॥
खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती॥
कहेसि सहेली 'देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा॥
जो देखा, तीवइ है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा'॥
रंग जो राती प्रेम के, जानहु बीरबहूटि।
आइ बही दधिा समुद महँ, पै रँग गएउ न छूटि॥1॥
लछमी लखन बतीसौ लखी । कहेसि 'न मरै, सँभारहु सखी॥
कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा॥
लहरि झकोर उदधिा जल भीजा । तबहूँ रूप रंग नहिं छीजा'॥
आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावैं सखि चहुँ ओरै॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ॥
पानी पियाइ सखी मुख धाोई । पदमावति जनहुँ कवँल संग कोई॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही । 'तिरिया! समुझि बात कहु मोहीं॥
देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर।
केहि नगरी कै नागरी काह नावँ धानि तोर?'॥2॥
नैन पसार देख धान चेती । देखै काह, समुद कै रेती॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु बिधिा गरुअ सँवारा॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा॥
रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार दुख चाँपी?॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधिा जल माहाँ॥
आवा पवन बिछोह कर, पाट परी बेकरार।
तरिवर तजा जो चूरि कै, लागौं केहि कै डार?॥3॥
कहेन्हि 'न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिंजीऊ॥
पाट परी आई तुम वही । ऐस न जानहिं दहुँ कहँ अही'॥
तब सुधिा पदमावति मन भई । सँवरि बिछोह मुरु छ मरि गई॥
नैनहिं रकत सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस जोरी॥
जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि।
लोग कहैं यह सर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि॥4॥
काया उदधिा चितव पिउ पाहाँ । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया॥
नैन नियर पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि भरौं मैं झूरी॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई?॥
साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई॥
नैन कौड़िया होइ मँड़राहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं॥
मन भँवरा भा कवँल बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी॥
साथी आथि निआथि जो, सकै साथ निरबाहि।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि॥5॥
सती होइ कहँ सीस उघारा । धान महँ बीजु घाव जिमि मारा॥
सेंदुर जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई॥
छूटि माँग अस मोति पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरे । सावन बूँद गिरहिं जनु झरे॥
भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई॥
खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी॥
रोवत पंखि बिमोहे, जस कोकिला अरंभ।
जाकरि कनक लता सो, बिछुरा पीतम खंभ॥6॥
लछिमी लागि बुझावै जीऊ । 'ना मरु बहिन! मिलहितोरपीऊ॥
पीउ पानि, होउ पवन अधाारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी॥
मैं तोहि लागि लेउँ खटबाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू॥
हौं जेहि मिलौं ताहि बड़भागू । राजपाट औ देउँ सोहागू'॥
कहि बुझाइ लेइ मँदिर सिधाारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी॥
जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख कहाँ सुख सोवा?
कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा॥
लछिमी जाइ समुद पहँ, रोइ बात यह चालि।
कहा समुद 'वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि'॥7॥
राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा॥
तहाँ एक परबत असडूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ गूँगा॥
तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा॥
अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा॥
ढाढ़ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ़ राज बिछोवा!॥
कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक ख्रधाारा॥
कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली?॥
कहँ रानी पदमावति, जीउ बसै जेहि पाहँ।
'मोर मोर' कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह॥8॥
भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राजा बेगि सो पावै॥
पदमावतिचाह जहाँसुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धाँसावौं॥
खोजौं परबत मेरु पहारा । चढ़ौं सरग औ परौं पतारा॥
कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी1॥
परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा॥
सीताहरन राम संग्रामा । हनुबँत मिला त पाई रामा॥
मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधिा गवेसी होई1॥
भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि।
आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि॥9॥
काहि पुकारौं जा पहँ जाऊँ । गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ॥
को यह समुद मथै बल गाढ़ै । को मथि रतन पदारथ काढ़ै?॥
कहाँ सो बरम्हा बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू॥
कोअस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी॥
को दधिा समुद मथै जस मथा? । करनी सार न कहिए कथा॥
जौ लहि मथै न कोई देइ जीऊ । सूधाी ऍंगुरि न निकसै घीऊ॥
लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ़ परै तौ लेइ परगटा॥
लीलि रहा अब ढील होइ, पेट पदारथ मेलि।
को उजियार करै जग, झाँपा चंद उघेलि?॥10॥
ए गोसाइँ! तू सिरजनहारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा॥
तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा॥
तुइँ जल ऊपर धारती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी॥
चाँद सुरुज औ नखतन्ह पाँती । तारे डर धााबहिं दिन राती॥
पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी॥
सो मूरुख औ बाउर अंधाा । तोहि छाँड़ि चित औरहि बंधाा॥
घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधाा जेहि सूझ न पीठी॥
पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि।
आगि होइ भा माटी, गोरखधांधौ लागि॥11॥
तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ॥
चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिछुर आव एक साथा॥
सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ॥
जानसि सवैं अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी॥
एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी॥
झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं। माँथ बेगि निस्तरऊँ॥
मरौं सौ लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ॥
दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोब न कोइ।
एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ॥12॥
कहि के उठा समुद्र पहँआवा । काढ़ि कटार गीउ महँ लावा॥
कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाम्हन रूप आइ परगटा॥
तिलक दुवादस मस्तककीन्हे । हाथ कनक बैसाखी लीन्हे॥
मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधो । कनकपत्रा धाोती तर बाँधो॥
पाँवरि कनक जराऊपाऊ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ॥
कहसि कुँवर मोसौं सब बाता । काहे लागि करसि अपघाता॥
परिहँस मरसि कि कौनिउ लाजा । आपनि जीउ देसि केहि काजा॥
जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप।
सकति जीउ जौं काढ़ै, महा दोष औ पाप॥13॥
को तुम्ह उतर देइ हो पाँडे । सो बोलै जाकर जिउ भाँड़े॥
जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा॥
सिंघलदीप राजघर बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हुती न काहु के संपति ओती॥
बहल, घोड़ हस्ती सिंघली । औ सँग कुँबरि लाख दुइ चलीं॥
ते गोहने सिंघल पदमावति । एक सौं एक चाहि रूपमनी॥
पदमावति जग रूपमनि, कहँ लगि कहौं दुहेल।
तेहि समुद्र मह खोएउँ, हौं का जिऔं अकेल॥14॥
हँसा समुद, होइ उठा ऍंजोरा । जग बूड़ा सब कहि कहि 'मोरा'॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहूँ केहि केरा॥
हाथ मरोरि धाुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न उघरै ऑंखी॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा॥
जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिध्दि न पावत राया!॥
सिध्दै दरब न सैंता गाड़ा । देखा भार चूमि कै छाँड़ा॥
पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई॥
जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव।
धान लछिमी सब ताकर, लेइ तका पछिताव?॥15॥
अनु, पाँड़े! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी॥
तपि कै पावा, मिलि कै फूला । पुनि तेहि खोइ सोइ पथ भूला॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरे पै चाहा॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं ? कहँ अस जीवन कै सुख छाहीं॥
कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना॥
जहँ अस परा समुद नग दीया । तह किमि जिया चहै मरजीया?
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देह हत्या झगरौं सिवलोका॥
का मैं ओहि क नसावा, का सँवरा सो दाँव?।
जाइ सरग पर होइहि, एहि कर मोर नियाव॥16॥
जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? । ना मुइ मरै, न रोवै मरा॥
जो मरि भा औछाँड़ेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया॥
जो मरि भएउ न बूडै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैसे राम दसरथ कर बेटा॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा॥
उदधिा आइ तेइ बंधान कीन्हा । हति दसमाथ अमरपद दीन्हा॥
तोहि बल नाहिं मूँदु अब ऑंखी । लावौं तीर टेक बैसाखी॥
बाउर अंधा प्रेम कर, सुनत लुबुधिा भा बाट।
निमिष एक महँ लेइगा, पदमावति जेहि घाट॥17॥
पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक बीरौ तर सीता॥
कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी॥
तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढ़ै हिये परगसा॥
रही मृनाल टकि दुखदाधाी । आधाी कँवल भई ससि आधाी॥
नलिनखंड दुइतस करिहाऊँ । रोमावली बिछूक कहाऊँ॥
रही टूटिजिमि कंचन तागू । को पिउ मेरवै देइ सोहागू॥
पान न खाइ करै उपवासू । फूल सूख तन रही न बासू॥
गगन धारति जल बुड़ि गए, बूड़त होइ निसाँस।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास॥18॥
लछमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा॥
औ भइ पदमावति केरूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धाूपा॥
देखि सो कँवल भँवर होइ धाावा । साँस लीन्ह वह बास न पावा॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी॥
जौ भलि होतिलच्छमी नारी । तजि महेस कित हो भिखारी?॥
पुनि धानि पिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई?॥
हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ।
आनि समुद महँ छाड़ेहु अब रोवौं देइ जीउ॥19॥
मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू । लेत फिरौं मालति कर खोजू॥
मालति नारी, भँवरा पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल गोइ पै बास न सोई॥
भँवर जो सब फूलन कर । फेरावास न लेइ मालतिहि हेरा॥
जहाँ पाव मालति कर बासू । बारै जीउ तहाँ होइ दासू॥
कित वह वास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ॥
भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि।
सौहैं भाल खाइ पै, फिरि कै देइ न पीठि॥20॥
तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु जाऊँ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा॥
पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै लिलाटा॥
दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन कचोर भरे जनु मोती॥
भुजा लंक उर केहरि जीता । मूरति कान्ह देख गोपीता॥
जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा॥
जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग।
मिला भँवर मालति कहाँ करहु दोउ मिलि भोग॥21॥
पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती॥
जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू॥
कँवल जो बिहँसि सूर मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा॥
लोचन कँवल सिरीमुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस मूरू॥
मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली॥
देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहिके बह ओहिके आसा॥
कंचन दाहि दीन्ह जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ॥
पायँ परी धानि पीउ के, नैनन्ह सौं रज मेट।
अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कँवलहिं भेंट॥22॥
जिनि काहू कहँहोइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ॥
पदमावति जो पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ॥
कै नेवछावरि तन मन वारी । पाँयन्ह परी घालि गिउ नारी॥
नव अवतार दीन्ह बिधिा आजू । रही छार भइ मानुष साजू॥
राजा रोव घालि गिउपागा । पदमावति के पाँयन्ह लागा॥
तन जिउ महँ बिधिा दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह नकोऊ॥
सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा॥
मुहमद मीत जौ मन बसै, विधिा मिलाव ओहि आनि।
संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि॥23॥
लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पाइउँ जो चहा॥
जौ सब खोइजाहिं हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ॥
जे सब कुँवर आएहम साथी । औ जत हस्ति घोड़ औ साथी॥
जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन, भरन दुख रोगू॥
तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूढ़ सो पाऊँ॥
तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा॥
एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी॥
आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद।
भई प्राप्त सुख सँपति, गएउ छूटि दुख दंद॥24॥
और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना॥
जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ॥
तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक-एक नग दीप जो लहै॥
हीर फार बहु मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे॥
जौ एक रतन भंजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई॥
दरब गरब मन गएउ भुलाई । हम सम लच्छ मनहिं नहिं आई॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चाहि सोइ तेइ माना॥
बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी काज जो सोइ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ॥25॥
दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई॥
लछमी पदमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा 'मोरि तू बेटी'॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥
और पाँच नग दीन्हबिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे॥
एक तौ अमृत दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू॥
चौथ दीन्ह सावक सादूरू । पाँचवँ परस जो कंचनमूरू॥
तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए । जलमानुष अगुआ सँग लाए॥
भेंट घाँट कै समदि तब, फिरे नाइकै माथ।
जलमानुष तबहीं फिरे, जब आए जगनाथ॥26॥
जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधाा भात बिकाई॥
राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि किछु गाँठि न रहा॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमिडोला॥
साँठिहि रंक चलै झौंराई । निसँठ राव सब कह बौराई॥
साँठिहि आबगरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुध्दि बल भूला॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई॥
साँठिहि दिस्टि जोति होइ नैना । निसँठ होइ मुख आव न बैना॥
साँठिहि रहै साधिा तन, निसँठहि आगरि भूख।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि, ठाढ़ ठाढ़ पै सूख॥27॥
पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धान कौने काजा?॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिले लच्छि जौ नाठी॥
मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै॥
जेहि तन पंख, जाइजहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका॥
लछमी दीन्ह रहामोहि बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥
काढ़ि एक नग बेगिभँजाबा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा॥
दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई॥
जोरि कटक पुनि राजा, धार कहँ कीन्ह पयान।
दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान॥28॥
(1) न जानी=न जानें। अही=थी। सेंती=से। रेती=बालू का किनारा। तीवइ=स्त्राी में।
(2) कागर=कागज। पतरा=पतला। उड़ाइ=उड़कर। कोरै=गोद में। बोलि कै=पुकारकर। समुझि=सुधा करके
।(3) चेती=चेत करके, होश में आकर। देखै काह=देखती क्या है कि। झाँपी=आच्छादित। चाँपी=दबी हुई। चूरी=चूर्ण किया। लागौं केहि कै डार=(मुहा.) किसकी डाल लगूँ अर्थात् किसका सहारा लूँ?
(4) पाव=पाया। सँवरि=स्मरण करके। सर=चिता।
(5) थिरकि मार=थिरकता या चारों ओर नाचता है। साथी...निरबाहि=साथी वही है जो धान और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके। आथि=सार, पूँजी। निआथि=निर्धानता।
(6) धान महँ...मारा-काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार। भहर-भहर=जगमगाता हुआ। माँग=माँगती है। पाहुन पवन...सब कोई=मेहमान समझकर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं। बर=बल, सहारा। अरंभ=रंभ, नाद, कूक।
(7) बुझावै लागि=समझाने-बुझाने लगी। बारी=लड़की। लेउँ खटवाटू=खटपाटी लूँगी, रूसकर काम-धांधाा छोड़ पड़ रहूँगी। (स्त्रिायों का रूसकर खाना-पीना छोड़ खाट पर इसलिए पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी जाएगी न उठँगी, 'खटपाटी लेना' कहलाता है)। सुख सोवा=सुख से सोना (साधाारण क्रिया का यह रूप बँगला से मिलता है)। कहाँ सुमेरु सेसा=आकाश-पाताल का अंतर। बात चालि-बात चलाई।
(8) डूँगा=टीला। ख्रधाारा=स्कंधाावार, डेरा, तंबू। अवगाह=अथाह (समुद्र) में।
1. पाठांतर-अगम पंथ कर होइ सँदेसी।
(9) चाह=खबर। धाँसावौं=धाँसू। गवेसी=खोजी, ढूँढ़नेवाला, गवेषणा करने वाला। बर बाँधिा=रेखा खींचकर, दृढ़ प्रतिज्ञा करके (आजकल 'बरैया बाँधिा' बोलते हैं)।
(10) मीत होइ=जो मित्रा हो। गाढ़ै=संकट के समय में। दाम=रस्सी। करनी सार...कथा=करनी मुख्य है, बात कहने से क्या है? बटा भा=बटाऊ हुआ, चल दिया। ढील होइ रहा=चुपचाप बैठ रहा। उघेलि=खोलकर।
(11) थाँभा=ठहराया, टिकाया। थूनि=लकड़ी का बल्ला जो टेक के लिए छप्पर के नीचे खड़ा दिया जाता है। भार न थाकी-भार से नहीं थाकी। सबके पीठि...साँटी=सबकी पीठ पर तेरी छड़ी है, अर्थात् सबके ऊपर तेरा शासन है।
1. पाठांतर-को सहाय उपदेसी होई।
(12) मेरवसि=तू मिलाता है। आउ=आयु। बिछोवसि=बिछोह करता है। मेराऊ=मिलाप। जाहाँ=जहाँ कलपौं=काटूँ। करेसि=तुम करना।
(13) पाप अब घटा=यह तो बड़ा पाप मेरे सिर पर घटा चाहता है। बैसाखी=लाठी। पाँवरि=खड़ाऊँ। पाऊँ=पाँव में। काहे लगि=किसलिए। अपघात=आत्मघात। परिहसर्=ईष्या।
(14) तुम्ह=तुम्हें। भाँडे घर में, शरीर में। ओती=उतनी। चाहि=बढ़कर। रूपमती=रूपवती। दुहेल=दुख।
(15) तोर होइ...बेरा=तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता। झाँखी=झींखकर। उघरै=खुलती है। सैंतत सिध्दि....राया=तौं हैं राजा! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिध्दि पा न जाते। पानी कै...गई=जो वस्तुएँ (रतन आदि) पानी की थीं बे पानी में गईं। लेइ चाह=लिया ही चाहे। जब भाव=जब चाहे।
(16) अनु=फिर, आगे फूला, प्रफुल्ल हुआ। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत। मोकाँ=मोकहँ, मुझको। देइ हत्या=सिर पर हत्या चढ़ाकर। दाँव=बदला लेने का मौका।
(17) मरि भा=मर चुका। दायाँ=दाँव, आयोजन। बाट भा=रास्ता पकड़ा।
(18) बीरौ=बिरवा, पेड़। दाघी=जली हुई। करिहाउँ=कमर, कटि। बिछूक=बिच्छू। सेवाति=स्वाति नक्षत्रा में।
(19) छरै=छलती है। बाटा=मार्ग में। अगमन=आगे। दीठी=देखा। दीन्हीं पीठी=पीठ दी, मुँह फेर लिया।
(20) खोजू=पता। कर फेरा=फेरा करता है। हेरा=ढूँढ़ता है। वारै=निछावर करता है। नव=नया। भाल भाला।
(21) लेइ चलु, जाऊँ=यदि ले चले तो जाऊँ। छपा=छिपा हुआ। कचोर=कटोरा। गोफ्ता=गोपी। दमनहि=दमयंती को। पिंड=शरीर। छूँछा=खाली। पदिक=गले में पहनने का एक चौखूँटा गहनाजिसमें रत्न जड़े जाते हैं।
(22) पदिकपदारथ=अर्थात्पदमावती।बहुरा=लौटा,फिरा।मूरू=मूल,जड़।एक पासा=एक साथ। सीऊ=शीत। रज मेट=ऑंसुओं से पैर की धाूल धाोती है। भइ ससि कँवलहिंभेंट=शशि, पदमावती का मुख और कमल, राजा के चरण।
(23) घालि गिउ=गरदन नीचे झुकाकर।मानुष साजू=मनुष्य रूप में। घालि गिउ पागा=गले में दुपट्टा डालकर। पागा=पगड़ी। तन जिउ...चीन्ह न कोऊ=शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने वियोग दिया; यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोईनपहचाने।
(24) तुम्ह=तुम्हारे। आथी=पूँजी धान। जरी=जड़ी।
(25) पखाना=नग, पत्थर। सोन=सोना। रूप=चाँदी। तुम्ह ठाऊँ=तुम्हारे निकट, तुमसे। हीर फार=हीरे के टुकड़े। फार=फाल, कतरा, टुकड़ा। हम सम लच्छ=हमारे ऐसे लाखों हैं।
(26) पहुँनाई=मेहमानी। बिसेखे=विशेष प्रकार के। बंसू=वंश, कुल। सावक सादूरू=शार्दूल शावक, सिंह का बच्चा। परस=पारस पत्थर। कंचन-मूरू=सोने का मूल अर्थात् सोना उत्पन्न करनेवाला। जलमानुष=समुद्र के मनुष्य। अगुवा=पथ प्रदर्शक। सँग लाए=संग में लगा दिए। भेंटघाँट=भेंट मिलाप। समदि=बिदा करके।
(27) रींधाा=पका हुआ। साँठि=पूँजी, धान। नाठि=नष्ट हुई। झौंराई=झूमकर। कह=कहते हैं। औंघाई=नींद। साधिा तन=शरीर को संयत करके। आगरि=बढ़ी हुई, अधिाक। गथ=पूँजी।
(28) नाठी=नष्ट हुई। मुकती=बहुत सी, अधिाक। साँकर परे=संकट पड़ने पर। उपकरै=उपकार करती है, काम आती है। साँभर=संबल, राह का खर्च। सकान=डरा।