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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम लक्ष्मी-समुद्र खंड पीछे     आगे

मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ न जानी॥

जानहु चित्रा मूर्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई॥

जनम न सहा पवन सकुवाँरा । तेइ सो परी दुख समुद अपारा॥

लछिमी नावँ समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी॥

खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती॥

कहेसि सहेली 'देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा॥

जो देखा, तीवइ है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा'॥

रंग जो राती प्रेम के, जानहु बीरबहूटि।

आइ बही दधिा समुद महँ, पै रँग गएउ न छूटि॥1॥

लछमी लखन बतीसौ लखी । कहेसि 'न मरै, सँभारहु सखी॥

कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा॥

लहरि झकोर उदधिा जल भीजा । तबहूँ रूप रंग नहिं छीजा'॥

आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावैं सखि चहुँ ओरै॥

बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ॥

पानी पियाइ सखी मुख धाोई । पदमावति जनहुँ कवँल संग कोई॥

तब लछिमी दुख पूछा ओही । 'तिरिया! समुझि बात कहु मोहीं॥

देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर।

केहि नगरी कै नागरी काह नावँ धानि तोर?'॥2॥

नैन पसार देख धान चेती । देखै काह, समुद कै रेती॥

आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?

कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई॥

कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु बिधिा गरुअ सँवारा॥

ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा॥

रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार दुख चाँपी?॥

कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधिा जल माहाँ॥

आवा पवन बिछोह कर, पाट परी बेकरार।

तरिवर तजा जो चूरि कै, लागौं केहि कै डार?॥3॥

कहेन्हि 'न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिंजीऊ॥

पाट परी आई तुम वही । ऐस न जानहिं दहुँ कहँ अही'॥

तब सुधिा पदमावति मन भई । सँवरि बिछोह मुरु छ मरि गई॥

नैनहिं रकत सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै॥

खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा॥

बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा॥

को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस जोरी॥

जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि।

लोग कहैं यह सर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि॥4॥

काया उदधिा चितव पिउ पाहाँ । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ॥

जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया॥

नैन नियर पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि भरौं मैं झूरी॥

पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई?॥

साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई॥

नैन कौड़िया होइ मँड़राहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं॥

मन भँवरा भा कवँल बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी॥

साथी आथि निआथि जो, सकै साथ निरबाहि।

जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि॥5॥

सती होइ कहँ सीस उघारा । धान महँ बीजु घाव जिमि मारा॥

सेंदुर जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई॥

छूटि माँग अस मोति पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई॥

टूटहिं मोति बिछोह जो भरे । सावन बूँद गिरहिं जनु झरे॥

भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा॥

अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई॥

खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी॥

रोवत पंखि बिमोहे, जस कोकिला अरंभ।

जाकरि कनक लता सो, बिछुरा पीतम खंभ॥6॥

लछिमी लागि बुझावै जीऊ । 'ना मरु बहिन! मिलहितोरपीऊ॥

पीउ पानि, होउ पवन अधाारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी॥

मैं तोहि लागि लेउँ खटबाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू॥

हौं जेहि मिलौं ताहि बड़भागू । राजपाट औ देउँ सोहागू'॥

कहि बुझाइ लेइ मँदिर सिधाारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी॥

जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख कहाँ सुख सोवा?

कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा॥

लछिमी जाइ समुद पहँ, रोइ बात यह चालि।

कहा समुद 'वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि'॥7॥

राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा॥

तहाँ एक परबत असडूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ गूँगा॥

तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा॥

अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा॥

ढाढ़ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ़ राज बिछोवा!॥

कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक ख्रधाारा॥

कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली?॥

कहँ रानी पदमावति, जीउ बसै जेहि पाहँ।

'मोर मोर' कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह॥8॥

भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राजा बेगि सो पावै॥

पदमावतिचाह जहाँसुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धाँसावौं॥

खोजौं परबत मेरु पहारा । चढ़ौं सरग औ परौं पतारा॥

कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी1॥

परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा॥

सीताहरन राम संग्रामा । हनुबँत मिला त पाई रामा॥

मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधिा गवेसी होई1॥

भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि।

आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि॥9॥

काहि पुकारौं जा पहँ जाऊँ । गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ॥

को यह समुद मथै बल गाढ़ै । को मथि रतन पदारथ काढ़ै?॥

कहाँ सो बरम्हा बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू॥

कोअस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी॥

को दधिा समुद मथै जस मथा? । करनी सार न कहिए कथा॥

जौ लहि मथै न कोई देइ जीऊ । सूधाी ऍंगुरि न निकसै घीऊ॥

लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ़ परै तौ लेइ परगटा॥

लीलि रहा अब ढील होइ, पेट पदारथ मेलि।

को उजियार करै जग, झाँपा चंद उघेलि?॥10॥

ए गोसाइँ! तू सिरजनहारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा॥

तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा॥

तुइँ जल ऊपर धारती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी॥

चाँद सुरुज औ नखतन्ह पाँती । तारे डर धााबहिं दिन राती॥

पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी॥

सो मूरुख औ बाउर अंधाा । तोहि छाँड़ि चित औरहि बंधाा॥

घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधाा जेहि सूझ न पीठी॥

पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि।

आगि होइ भा माटी, गोरखधांधौ लागि॥11॥

तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ॥

चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिछुर आव एक साथा॥

सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ॥

जानसि सवैं अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी॥

एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी॥

झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं। माँथ बेगि निस्तरऊँ॥

मरौं सौ लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ॥

दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोब न कोइ।

एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ॥12॥

कहि के उठा समुद्र पहँआवा । काढ़ि कटार गीउ महँ लावा॥

कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाम्हन रूप आइ परगटा॥

तिलक दुवादस मस्तककीन्हे । हाथ कनक बैसाखी लीन्हे॥

मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधो । कनकपत्रा धाोती तर बाँधो॥

पाँवरि कनक जराऊपाऊ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ॥

कहसि कुँवर मोसौं सब बाता । काहे लागि करसि अपघाता॥

परिहँस मरसि कि कौनिउ लाजा । आपनि जीउ देसि केहि काजा॥

जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप।

सकति जीउ जौं काढ़ै, महा दोष औ पाप॥13॥

को तुम्ह उतर देइ हो पाँडे । सो बोलै जाकर जिउ भाँड़े॥

जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा॥

सिंघलदीप राजघर बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी॥

बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा॥

रतन पदारथ मानिक मोती । हुती न काहु के संपति ओती॥

बहल, घोड़ हस्ती सिंघली । औ सँग कुँबरि लाख दुइ चलीं॥

ते गोहने सिंघल पदमावति । एक सौं एक चाहि रूपमनी॥

पदमावति जग रूपमनि, कहँ लगि कहौं दुहेल।

तेहि समुद्र मह खोएउँ, हौं का जिऔं अकेल॥14॥

हँसा समुद, होइ उठा ऍंजोरा । जग बूड़ा सब कहि कहि 'मोरा'॥

तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहूँ केहि केरा॥

हाथ मरोरि धाुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न उघरै ऑंखी॥

बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा॥

जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिध्दि न पावत राया!॥

सिध्दै दरब न सैंता गाड़ा । देखा भार चूमि कै छाँड़ा॥

पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई॥

जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव।

धान लछिमी सब ताकर, लेइ तका पछिताव?॥15॥

अनु, पाँड़े! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी॥

तपि कै पावा, मिलि कै फूला । पुनि तेहि खोइ सोइ पथ भूला॥

पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरे पै चाहा॥

कहँ अस नारि जगत उपराहीं ? कहँ अस जीवन कै सुख छाहीं॥

कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना॥

जहँ अस परा समुद नग दीया । तह किमि जिया चहै मरजीया?

जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देह हत्या झगरौं सिवलोका॥

का मैं ओहि क नसावा, का सँवरा सो दाँव?।

जाइ सरग पर होइहि, एहि कर मोर नियाव॥16॥

जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? । ना मुइ मरै, न रोवै मरा॥

जो मरि भा औछाँड़ेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया॥

जो मरि भएउ न बूडै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा॥

तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैसे राम दसरथ कर बेटा॥

ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा॥

उदधिा आइ तेइ बंधान कीन्हा । हति दसमाथ अमरपद दीन्हा॥

तोहि बल नाहिं मूँदु अब ऑंखी । लावौं तीर टेक बैसाखी॥

बाउर अंधा प्रेम कर, सुनत लुबुधिा भा बाट।

निमिष एक महँ लेइगा, पदमावति जेहि घाट॥17॥

पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक बीरौ तर सीता॥

कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी॥

तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढ़ै हिये परगसा॥

रही मृनाल टकि दुखदाधाी । आधाी कँवल भई ससि आधाी॥

नलिनखंड दुइतस करिहाऊँ । रोमावली बिछूक कहाऊँ॥

रही टूटिजिमि कंचन तागू । को पिउ मेरवै देइ सोहागू॥

पान न खाइ करै उपवासू । फूल सूख तन रही न बासू॥

गगन धारति जल बुड़ि गए, बूड़त होइ निसाँस।

पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास॥18॥

लछमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा॥

रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा॥

औ भइ पदमावति केरूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धाूपा॥

देखि सो कँवल भँवर होइ धाावा । साँस लीन्ह वह बास न पावा॥

निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी॥

जौ भलि होतिलच्छमी नारी । तजि महेस कित हो भिखारी?॥

पुनि धानि पिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई?॥

हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ।

आनि समुद महँ छाड़ेहु अब रोवौं देइ जीउ॥19॥

मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू । लेत फिरौं मालति कर खोजू॥

मालति नारी, भँवरा पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ॥

का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल गोइ पै बास न सोई॥

भँवर जो सब फूलन कर । फेरावास न लेइ मालतिहि हेरा॥

जहाँ पाव मालति कर बासू । बारै जीउ तहाँ होइ दासू॥

कित वह वास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै॥

हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ॥

भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि।

सौहैं भाल खाइ पै, फिरि कै देइ न पीठि॥20॥

तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु जाऊँ॥

लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा॥

पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा॥

मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै लिलाटा॥

दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन कचोर भरे जनु मोती॥

भुजा लंक उर केहरि जीता । मूरति कान्ह देख गोपीता॥

जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा॥

जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग।

मिला भँवर मालति कहाँ करहु दोउ मिलि भोग॥21॥

पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती॥

जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू॥

कँवल जो बिहँसि सूर मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा॥

लोचन कँवल सिरीमुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस मूरू॥

मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली॥

देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहिके बह ओहिके आसा॥

कंचन दाहि दीन्ह जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ॥

पायँ परी धानि पीउ के, नैनन्ह सौं रज मेट।

अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कँवलहिं भेंट॥22॥

जिनि काहू कहँहोइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ॥

पदमावति जो पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ॥

कै नेवछावरि तन मन वारी । पाँयन्ह परी घालि गिउ नारी॥

नव अवतार दीन्ह बिधिा आजू । रही छार भइ मानुष साजू॥

राजा रोव घालि गिउपागा । पदमावति के पाँयन्ह लागा॥

तन जिउ महँ बिधिा दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह नकोऊ॥

सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा॥

मुहमद मीत जौ मन बसै, विधिा मिलाव ओहि आनि।

संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि॥23॥

लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पाइउँ जो चहा॥

जौ सब खोइजाहिं हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ॥

जे सब कुँवर आएहम साथी । औ जत हस्ति घोड़ औ साथी॥

जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन, भरन दुख रोगू॥

तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूढ़ सो पाऊँ॥

तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा॥

एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी॥

आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद।

भई प्राप्त सुख सँपति, गएउ छूटि दुख दंद॥24॥

और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना॥

जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ॥

तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक-एक नग दीप जो लहै॥

हीर फार बहु मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे॥

जौ एक रतन भंजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई॥

दरब गरब मन गएउ भुलाई । हम सम लच्छ मनहिं नहिं आई॥

लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चाहि सोइ तेइ माना॥

बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी काज जो सोइ।

जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ॥25॥

दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई॥

लछमी पदमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा 'मोरि तू बेटी'॥

दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥

और पाँच नग दीन्हबिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे॥

एक तौ अमृत दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू॥

चौथ दीन्ह सावक सादूरू । पाँचवँ परस जो कंचनमूरू॥

तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए । जलमानुष अगुआ सँग लाए॥

भेंट घाँट कै समदि तब, फिरे नाइकै माथ।

जलमानुष तबहीं फिरे, जब आए जगनाथ॥26॥

जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधाा भात बिकाई॥

राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि किछु गाँठि न रहा॥

साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमिडोला॥

साँठिहि रंक चलै झौंराई । निसँठ राव सब कह बौराई॥

साँठिहि आबगरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुध्दि बल भूला॥

साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई॥

साँठिहि दिस्टि जोति होइ नैना । निसँठ होइ मुख आव न बैना॥

साँठिहि रहै साधिा तन, निसँठहि आगरि भूख।

बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि, ठाढ़ ठाढ़ पै सूख॥27॥

पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धान कौने काजा?॥

अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिले लच्छि जौ नाठी॥

मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै॥

जेहि तन पंख, जाइजहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका॥

लछमी दीन्ह रहामोहि बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥

काढ़ि एक नग बेगिभँजाबा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा॥

दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई॥

जोरि कटक पुनि राजा, धार कहँ कीन्ह पयान।

दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान॥28॥

(1) न जानी=न जानें। अही=थी। सेंती=से। रेती=बालू का किनारा। तीवइ=स्त्राी में।

(2) कागर=कागज। पतरा=पतला। उड़ाइ=उड़कर। कोरै=गोद में। बोलि कै=पुकारकर। समुझि=सुधा करके

।(3) चेती=चेत करके, होश में आकर। देखै काह=देखती क्या है कि। झाँपी=आच्छादित। चाँपी=दबी हुई। चूरी=चूर्ण किया। लागौं केहि कै डार=(मुहा.) किसकी डाल लगूँ अर्थात् किसका सहारा लूँ?

(4) पाव=पाया। सँवरि=स्मरण करके। सर=चिता।

(5) थिरकि मार=थिरकता या चारों ओर नाचता है। साथी...निरबाहि=साथी वही है जो धान और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके। आथि=सार, पूँजी। निआथि=निर्धानता।

(6) धान महँ...मारा-काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार। भहर-भहर=जगमगाता हुआ। माँग=माँगती है। पाहुन पवन...सब कोई=मेहमान समझकर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं। बर=बल, सहारा। अरंभ=रंभ, नाद, कूक।

(7) बुझावै लागि=समझाने-बुझाने लगी। बारी=लड़की। लेउँ खटवाटू=खटपाटी लूँगी, रूसकर काम-धांधाा छोड़ पड़ रहूँगी। (स्त्रिायों का रूसकर खाना-पीना छोड़ खाट पर इसलिए पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी जाएगी न उठँगी, 'खटपाटी लेना' कहलाता है)। सुख सोवा=सुख से सोना (साधाारण क्रिया का यह रूप बँगला से मिलता है)। कहाँ सुमेरु सेसा=आकाश-पाताल का अंतर। बात चालि-बात चलाई।

(8) डूँगा=टीला। ख्रधाारा=स्कंधाावार, डेरा, तंबू। अवगाह=अथाह (समुद्र) में।

1. पाठांतर-अगम पंथ कर होइ सँदेसी।

(9) चाह=खबर। धाँसावौं=धाँसू। गवेसी=खोजी, ढूँढ़नेवाला, गवेषणा करने वाला। बर बाँधिा=रेखा खींचकर, दृढ़ प्रतिज्ञा करके (आजकल 'बरैया बाँधिा' बोलते हैं)।

(10) मीत होइ=जो मित्रा हो। गाढ़ै=संकट के समय में। दाम=रस्सी। करनी सार...कथा=करनी मुख्य है, बात कहने से क्या है? बटा भा=बटाऊ हुआ, चल दिया। ढील होइ रहा=चुपचाप बैठ रहा। उघेलि=खोलकर।

(11) थाँभा=ठहराया, टिकाया। थूनि=लकड़ी का बल्ला जो टेक के लिए छप्पर के नीचे खड़ा दिया जाता है। भार न थाकी-भार से नहीं थाकी। सबके पीठि...साँटी=सबकी पीठ पर तेरी छड़ी है, अर्थात् सबके ऊपर तेरा शासन है।

1. पाठांतर-को सहाय उपदेसी होई।

(12) मेरवसि=तू मिलाता है। आउ=आयु। बिछोवसि=बिछोह करता है। मेराऊ=मिलाप। जाहाँ=जहाँ कलपौं=काटूँ। करेसि=तुम करना।

(13) पाप अब घटा=यह तो बड़ा पाप मेरे सिर पर घटा चाहता है। बैसाखी=लाठी। पाँवरि=खड़ाऊँ। पाऊँ=पाँव में। काहे लगि=किसलिए। अपघात=आत्मघात। परिहसर्=ईष्या।

(14) तुम्ह=तुम्हें। भाँडे घर में, शरीर में। ओती=उतनी। चाहि=बढ़कर। रूपमती=रूपवती। दुहेल=दुख।

(15) तोर होइ...बेरा=तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता। झाँखी=झींखकर। उघरै=खुलती है। सैंतत सिध्दि....राया=तौं हैं राजा! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिध्दि पा न जाते। पानी कै...गई=जो वस्तुएँ (रतन आदि) पानी की थीं बे पानी में गईं। लेइ चाह=लिया ही चाहे। जब भाव=जब चाहे।

(16) अनु=फिर, आगे फूला, प्रफुल्ल हुआ। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत। मोकाँ=मोकहँ, मुझको। देइ हत्या=सिर पर हत्या चढ़ाकर। दाँव=बदला लेने का मौका।

(17) मरि भा=मर चुका। दायाँ=दाँव, आयोजन। बाट भा=रास्ता पकड़ा।

(18) बीरौ=बिरवा, पेड़। दाघी=जली हुई। करिहाउँ=कमर, कटि। बिछूक=बिच्छू। सेवाति=स्वाति नक्षत्रा में।

(19) छरै=छलती है। बाटा=मार्ग में। अगमन=आगे। दीठी=देखा। दीन्हीं पीठी=पीठ दी, मुँह फेर लिया।

(20) खोजू=पता। कर फेरा=फेरा करता है। हेरा=ढूँढ़ता है। वारै=निछावर करता है। नव=नया। भाल भाला।

(21) लेइ चलु, जाऊँ=यदि ले चले तो जाऊँ। छपा=छिपा हुआ। कचोर=कटोरा। गोफ्ता=गोपी। दमनहि=दमयंती को। पिंड=शरीर। छूँछा=खाली। पदिक=गले में पहनने का एक चौखूँटा गहनाजिसमें रत्न जड़े जाते हैं।

(22) पदिकपदारथ=अर्थात्पदमावती।बहुरा=लौटा,फिरा।मूरू=मूल,जड़।एक पासा=एक साथ। सीऊ=शीत। रज मेट=ऑंसुओं से पैर की धाूल धाोती है। भइ ससि कँवलहिंभेंट=शशि, पदमावती का मुख और कमल, राजा के चरण।

(23) घालि गिउ=गरदन नीचे झुकाकर।मानुष साजू=मनुष्य रूप में। घालि गिउ पागा=गले में दुपट्टा डालकर। पागा=पगड़ी। तन जिउ...चीन्ह न कोऊ=शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने वियोग दिया; यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोईनपहचाने।

(24) तुम्ह=तुम्हारे। आथी=पूँजी धान। जरी=जड़ी।

(25) पखाना=नग, पत्थर। सोन=सोना। रूप=चाँदी। तुम्ह ठाऊँ=तुम्हारे निकट, तुमसे। हीर फार=हीरे के टुकड़े। फार=फाल, कतरा, टुकड़ा। हम सम लच्छ=हमारे ऐसे लाखों हैं।

(26) पहुँनाई=मेहमानी। बिसेखे=विशेष प्रकार के। बंसू=वंश, कुल। सावक सादूरू=शार्दूल शावक, सिंह का बच्चा। परस=पारस पत्थर। कंचन-मूरू=सोने का मूल अर्थात् सोना उत्पन्न करनेवाला। जलमानुष=समुद्र के मनुष्य। अगुवा=पथ प्रदर्शक। सँग लाए=संग में लगा दिए। भेंटघाँट=भेंट मिलाप। समदि=बिदा करके।

(27) रींधाा=पका हुआ। साँठि=पूँजी, धान। नाठि=नष्ट हुई। झौंराई=झूमकर। कह=कहते हैं। औंघाई=नींद। साधिा तन=शरीर को संयत करके। आगरि=बढ़ी हुई, अधिाक। गथ=पूँजी।

(28) नाठी=नष्ट हुई। मुकती=बहुत सी, अधिाक। साँकर परे=संकट पड़ने पर। उपकरै=उपकार करती है, काम आती है। साँभर=संबल, राह का खर्च। सकान=डरा।



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