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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम चित्ताौर-आगमन खंड पीछे     आगे

चितउर आइ नियर भा राजा । बहुरा जीति इंद्र अस गाजा॥

बाजन बाजहिं होइ ऍंदोरा । आवहिं बहल हस्ति औ घोरा॥

पदमावति चंडोल बईठी । पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी॥

यह मन ऐंठा रहै न सूझा । बिपति न सँवरै सँपति अरूझा॥

सहस बरिस दुख सहै जो कोई । घरी एक सुख बिसरै सोई॥

जोगी इहै जानि मन मारा । तौहुँ न यह मन मरै अपारा॥

रहा न बाँधाा बाँधाा जेही । तेलिया मारि डार पुनि तेही॥

मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ।

ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ॥1॥

नागमती कहँ अगम जनावा । गई तपनि बरखा जनु आवा॥

रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा । जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा॥

सब दुख जस केंचुरि गा छूटी । होइ निसरी जनु बीरबहूटी॥

जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई । परहिं बूँद औ सोंधिा बसाई॥

ओहि भाँतिपलुही सुख बारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी॥

हुलसि गंग जिमि बाढ़िहि लेई । जोबन लाग हिलोरैं देई॥

काम धानुक सर लेइ भइ ठाढ़ी । भागेउ बिरह रहा जो डाढ़ी॥

पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद।

आजु बदन तोर निरमल, अहै उवा जस चंद॥2॥

अब लगि रहा पवन, सखि ताता । आजु लाग मोहिं सीअर गाता॥

महि हुलसै जस पावस छाहाँ । तस उपना हुलास मन माहाँ॥

दसवँ दावँ के गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा॥

अब जोबन गंगा होइ बाढ़ा । औटन कठिन मारि सब काढ़ा॥

हरियर सब देखौं संसारा । नए चार जनु भा अवतारा॥

भागेउ बिरह करत जो दाहू । भा मुख चंद छूटिगा राहू॥

पलुहे नैन बाँह हुलसाहीं । कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं॥

कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आवा भाँट।

राजा आइ निअर भा, मँदिर बिछावहु पाट॥3॥

सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ । भा हुलास सब ठाँवहिं ठाऊँ॥

पलटा जनु बरषा ऋतु राजा । जस असाढ़ आवै दर साजा॥

देखि सो छत्रा भई जग छाहाँ । हस्ति मेघ ओनए जग माहाँ॥

सेन पूरि आई घन घोरा । रहस चाव बरसै चहुँ ओरा॥

धारति सरग अब होइ मरावा । भरीं सरित औ ताल तलावा॥

उठी लहकि महि सुनतहि नामा । ठावहिं ठावँ दूब अस जामा॥

दादुर मोर कोकिला बोले । हुत जो अलोप जीभ सब खोले॥

होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ।

नदी अठारह गंडा मिलीं समुद कहँ जाइ॥4॥

बाजत गाजत राजा आवा । नगर चहूँ दिसि बाज बधाावा॥

बिहँसि आइमाता सौं मिला । राम जाइ भेंटी कौसिला॥

साजे मदिर बंदनवारा । होइ लाग बहु मंगलचारा॥

पदमावति कर आवं बेवानू । नागमती जिउ महँ भा आनू॥

जनहुँ छाँह महँ धाूप देखाई । तैसइ भार लागि जौ आई॥

सही न जाइ सवति कै झारा । दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा॥

भई उहाँ चहुँ खंड बखानी । रतनसेन पदमावति आनी॥

पुहुप गंधा संसार महँ, रूप बखानि न जाइ।

हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ॥5॥

बैठ सिंहासन लोग जोहारा । निधानी निरगुन दरव बोहारा॥

अगनितदान निछावरि कीन्हा । मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा॥

लेइ कै हस्ति महाउत मिले । तुलसी लेइ उपरोहित चले॥

बेटा भाइ कुँवर जत आवहिं । हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं॥

नेगी गए, मिले अरकाना । पँवरिहि बाजै घहरि निसाना॥

मिले कुँवर, कापर पहिराए । देह दरब तिन्ह घरहिं पठाए॥

सबकै दसा फिरी पुनि दुनी । दान डाँग सबही जग सुनी॥

बाजैं पाँच सबद निहित, सिध्दि बखानहिं भाँट।

छतिस कूरि, षट दरसन, आइ जुरे ओहि पाट॥6॥

सब दिन राजा दान दिआवा । भइ निसि, नागमती पहँ आवा॥

नागमती मुख फेरि बईठी । सौंह न करै पुरुष सौं दीठी॥

ग्रीषम जरत छाँड़ि जो जाई । सो मुख कौन देखावै आई?॥

जबहिं जरै परबत बन लागे । उठी झार पंखी उठि भागे॥

जब साखा देखै औ छाहाँ । को नहिं रहसि पसारै बाहाँ॥

को नहिं हरषिबैठ तेहि डारा । को नहिं करै केलि कुरिहारा?॥

तू जोगी होइगा बैरागी । हौं जरि छार भएउँ तोहि लागी॥

काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ और सौं नेह।

तुम्ह मुख चमकै बीजुरी, मोहि मुख बरिसै मेह॥7॥

नागमती तू पहिलि बियाही । कठिन प्रीति दाहै जस दाही॥

बहुतै दिनन आव जो पीऊ । धानि न मिलै धानि पाहन जीऊ॥

पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ । तेउ मिलहिं जौ होइ बिछोऊ॥

भलेहि सेत गंगाजल दीठा । जमुन जो साम, नीर अति मीठा॥

काह भएउ तन दिस दस दहा । जौ बरषा सिर ऊपर अहा॥

कोइ केहु पास आत कै हेरा । घनि ओहि दरस निरास न फेरा॥

कंठ लाइ कै नारि मनाई । जरी जो बेलि सींचि पलुहाई॥

फरे सहस साखा होइ, दारिउँ, दाख, जँभीर।

सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर॥8॥

जौ भा मेर भएउ रँग राता । नागमती हँसि पूछी बाता॥

कहहु कंत! ओहि देस लोभाने । कस धानि मिली, भोग कस माने॥

जौ पदमावति सुठि होइ लोनी । मोरे रूप कि सरवरि होनी?॥

जहाँ राधिाका गोपिन्ह माहाँ । चंद्रावलि सिर पूज न छाहाँ॥

भँवर पुरुष अस रहै न राखा । तजै दाख, महुआ रस चाखा॥

तजि नागेसर फूल सोहावा । कँवल बिसैंधाहिं सौं मन लावा॥

जौ अन्हवाइ भरै अरगजा । तौहुँ बिसायँधा वह नहिं तजा॥

काह कहौं हौं तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव॥

इहाँ बात मुख मोसौं, उहाँ जीउ ओहि ठाँव॥9॥

कहि दुख कथा जो रैनि बिहानी । भयउ भोर जहँ पदमावतिरानी॥

भानु देख ससि बदन मलीना । कँवल नैन राते, तनु खीना॥

रैनि नखत गनि कीन्ह बिहानू । बिकल भई देखा जब भानू॥

सूर हँसै, ससि रोइ डफारा । टूट ऑंसु जनु नखतन्ह मारा॥

रहै न राखी होइ निसाँसी । तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी॥

हौं कै नेह कुऑं महँ मेली । सींचौ लागि झुरानी बेली॥

नैन रहे होइ रहँट क घरी । भरी ते ढारी, छूँछी भरी॥

सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोह।

कँवल न प्रीतम परिहरै, सूखि पंक बरु होइ॥10॥

पदमावति तुइँ जीउ पराना । जिउ तें जगत पियार न आना॥

तुइँ जिमि कँवल बसीहिय माहाँ । हौं होइ अलि बेधाा तोहि पाहाँ॥

मालति कली भँवर जो पावा । सो तजि आन फूल कित भावा?॥

मैं हौं सिंघल कैं पदमावति । सरि न पूज जंबू नागिनी॥

हौं सुगंधा निरमल उजियारी । वह विषभरी डेरावनि कारी॥

मोरी बास भँवर सँग लागहिं । ओहि देखत मानुष डर भागहिं॥

हौं पुरुषन्ह कै चितवन दीठी । जेहिक जिउ अस अहौं पईठी॥

ऊँचे ठाँव जो बैठे, करै न नीचहिं संग।

जहँ सो नागिनि हिरकै, करिया करै सो अंग॥11॥

पलुही नागमती कै बारी । सोने फूल फूलि फुलवारी॥

जावत पंखि रहे सब दहे । सबै पंखि बोलत गहगहे॥

सारिउँ सुवा महरि काकिला । रहसत आइ पपीहा मिला॥

हारिल सबद महोखसोहावा । काग कुराहर करि सुख पावा॥

भोग बिलास कीन्ह कै फेरा । बिहँसहिं, रहसहिं करहिं बसेरा॥

नाचहिं पंडुक मोर परेवा । बिफल न जाइ काहुकै सेवा॥

होइ उजियार सूर जस तपै । खूसट मुख न देखावै छपै॥

संग सहेली नागमति, आपनि बारी माहँ।

फूल चुनहिं, फल तूरहिं, रहसि कूदि सुख छाँह॥12॥

(1) ऍंदोरा=अंदोर, हलचल, शोर (आंदोल)। चंडोल=पालकी। सरग सौं=ईश्वर से। तेलिया=सींगिया विष। तेलिया=तेही=चाहे उसे तेलिया विष से न मारे। केहुँ=किसी प्रकार।

(2) तुचा=त्वचा, केंचली। सुचा=सूचना, सुधा, खबर। सोंधिा=सोंधी। सोंधिा बसाई=सुगंधा से बस जाती है या सोंधाी महकती है। करिल=कल्ला। कोंप=कोंपल।

(3) ताता=गरम। दसवँ दावँ=दशम दशा, मरण। महरा=सरदार। औटन=ताप। नए चार=नए सिर से।

(4) दर=दल। रहस चाव=आनंद, उत्साह। लहकि उठी=लहलहा उठी। हुत=थे। अठारह गंडा नदी=अवधा में जनसाधारण के बीच यह प्रसिध्द है कि समुद्र में अठारह गंडे (अर्थात् 72) नदियाँ मिलती हैं।

(5) बेवान=विमान। जिउ महँ भा आनू=जी में कुछ और भाव हुआ। झार=(क) लपट, (ख)र् ईष्या, डाह। जौ=जब। उतारा। दीन्ह=उतारा हेम सेत=सफेद पाला या बर्फ।

(6) बहुत कै=बहुत सा। जत=जितने। अरकाना=अरकाने दौलत, सरदार, उमरा। दूनी=दुनिया में। डाँग=डंका। पाँच सबद=पंच शब्द, पाँच बाजे-तंत्राी, ताल, झाँझ, नगाड़ा और तुरही । छतिस कूरि=छत्ताीसों कुल के क्षत्रिाय। षट दरसन=(लक्षण्ा से) छह शास्त्राों के वक्ता।

(7) दिआवा=दिलाया। कुरिहारा=कलरव, कोलाहल।

(8) पोढ़=दृढ़, मजबूत, कड़े। फरे सहस...भीर=अर्थात् नागमती में फिर यौवनश्री और रस आ गया और राजा के अंग-अंग उससे मिले।

(9) मेर=मेल, मिलाप। लोनी=सुगढ़। नागेसर=अर्थात् नागमती। कँवल=अर्थात् पद्मावती। बिसैधाा=बिसायँधा गंधावाला, मछली की सी गंधावाला। भाव=प्रेम भाव।

(10) देख=देखा। भानू=(क) सूर्य, (ख) रत्नसेन। डफारा=ढाढ़ मारती है। मारा=माला। कुऑं महँ मेली=मुझे तो कुएँ में डाल दिया, अर्थात् किनारे कर दिया। झुरान=सूखी। घरी=घड़ा। सुभर=भरा हुआ।

(11) बेधाा तोहि पाहाँ=तेरे पास उलझ गया हूँ। डेरावनि=डरावनी। हिरकै=सटे। करिया=काला।

(12) पलुही=पल्लवित हुई, पनपी। गहगहे=आनंदपूर्वक। कुराहर=कोलाहल। जस=जैसे ही। खूसट=उल्लू। तूरहिं=तोड़ती हैं।


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