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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम स्त्राी-भेद-वर्णन खंड पीछे     आगे

पहिले कहौं हस्तिनी नारी । हस्ती कै परकीरति सारी॥

सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी । उर कै खीनि लंक कै मोटी॥

कुंभस्थल कुच मद उर माहीं । गयन गयंद ढाल जनु वाहीं॥

दिस्टि न आवै आपन पीऊ । पुरुष पराए ऊपर जीऊ॥

भोजन बहुतबहुत रति चाऊ । अछवाई न¯ह थोर बनाऊ॥

मद जस मंदबसाइ पसेऊ । औ बिसवासि छरै सब केऊ॥

डर औ लाज न एकौ हिये । रहै जो राखे ऑंकुस दिये॥

गज गति चलै चहूँ दिसि, चितवै लाए चोख।

कही हस्तिनी नारि यह, सब हस्तिन के दोख॥1॥

दूसरि कहौं संखिनी नारी । करै बहुत बल अलप अहारी॥

उर अति सुभर खीन अति लंका । गरब भरी मन करै न संका॥

बहुत रोष चाहै पिउ हना । आगे घाल न काहू गना॥

अपनै अलंकार ओहि भावा । देखिन सकै सिंगार परावा॥

सिंघ क चाल चलै डग ढीली । रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली॥

मोटि माँसु रुचि भोजन तासू । औ मुख आव बिसायँधा वासू॥

दिस्टि तिरहुँड़ी हेर न आगे । जनु मथवाह रहै सिर लागे॥

सेज मिलत स्वामी कहँ, लावै उर नखबान।

जेहि गुन सबै सिंघ के, सो संखिनि सुलतान!॥2॥

तीसरि कहौं चित्रिानी नारी । महा चतुर रस प्रेम पियारी॥

रूप सुरूप सिंगार सवाई । अछरी जैसि रहै अछवाई॥

रोष न जानै हँसतामुखी । जेहि अस नारि कंत सो सुखी॥

अपने पिउ कै जानै पूजा । एक पुरुष तजि आन न दूजा॥

चंदबदनि रँग कुमुदिनि गोरी । चाल सोहाइ हंस कै जोरी॥

खीर खाँड़ रुचि अलप अहारू । पान फूल तेहि अधिाक पियारू॥

पदमावति चाहि घाटि दुइ करा । और सबै गुन ओहि निरमरा॥

चित्रिानि जैस कुमुद रँग, सोइ बासना अंग।

पदमावति सब चंदन असि, भँवर फिरहिं तेहि संग॥3॥

चौथी कहौं पदमावति नारी । पदुम गंधा ससि दैउ सँवारी॥

पदमिनि जाति पदुम रँग ओही । पदुम बास मधाुकर सँग होहीं॥

ना सुठि लाँबी, ना सुठि छोटी । ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी॥

सोरह करा रंग ओहि बानी । सो, सुलतान! पदमावति जानी॥

दीरघ चारि, चारि लघु सोई । सुभर चारि, चहुँ खीनो होई॥

औ ससि बदन देखि सब मोहा । बाल मराल चलत गति सोहा॥

खीर अहार न कर सुकुवाँरी । पान फूल के रहै अधाारी॥

सोरह करा सँपूरन, औ सोरहौ सिंगार।

अब ओहि भाँति कहत हौं, जस बरनै संसार॥4॥

प्रथम केस दीरघ मन मोहै । औ दीरघ ऍंगुरी कर सोहै॥

दीरघ नैन तीख तहँ देखा । दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा॥

पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा । औ लघु कुच उत्तांग जँभीरा॥

लघु लिलाट दूइज परगासू । औ नाभी लघु, चंदन बासू॥

नासिक खीन खरग कै धाारा । खीन लंक जनु केहरि हारा॥

खीन पेट जानहुँ नहिं ऑंता । खीन अधार बिद्रुम रँग राता॥

सुभर कपोल, देख मुख सोभा । सुभर नितंब देखि मन लोभा॥

सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल।

सोरह सिंगार बरनि कै, करहिं देवता लाल॥5॥

(1) अछवाई=सफाई। बनाऊ=बनाव-सिंगार। बसाइ=दुर्गंधा करता है। चोख=चंचलता या नेत्रा।

(2) सुभर=भरा हुआ। चाहै पिउ हाना=पति को कभी-कभी मारने दौड़ती है। घाल न गना=कुछ नहीं समझती, पसंगे बराबर नहीं समझती। फीली=पिंडली। तिरहुँड़ी=नीचा। हेर=देखती है। मथवाह=झालरदार पट्टी जो भड़कनेवाले घोड़ों के मत्थे पर इसलिए बाँधा दी जाती है जिसमें वे इधार-उधार की वस्तु देख न सकें। जेहि गुन सबै सिंघ के=कवि ने शायद शंखिनी के स्थान पर 'सिंघिनी' समझा है।

(3) सवाई=अधिाक। अछवाई=साफ, निखरी। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत। घाटि=घटकर। करा=कला। बासना=बास, महँक।

(4) सुठि=खूब, बहुत। दीरघ चारि...होइ=ये सोलह शृंगार के विभाग हैं।

(5) दीरघ लंबे। तीख=तीखे। तिनि=तीन। केहरि हारा=सिंह ने हार कर दी। ऑंता=ऍंतड़ी। सुभर=भरे हुए। लाल=लालसा।


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