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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम राजा-बादशाह-मेल खंड पीछे     आगे

सुना साह अरदासैं पढ़ीं । चिंता आन आनि चित चढ़ी॥

तौ अगमन मन चीतै कोई । जौ आपन चीता किछु होई॥

मन झूठा, जिउ हाथ पराए । चिंता एक हिए दुइ ठाएँ॥

गढ़ सौं अरुझि जाइ तब छूटै । होइ मेराव, कि सो गढ़ टूटै॥

पाहन कर रिपु पाहन हीरा । बेधाौं रतन पान देइ बीरा॥

सुरजा सेंति कहा यह भेऊ । पलटि जाहु अब मानहु सेऊ॥

कहु तोहि सौं पदमावति नहिं लेऊँ । चूरा कीन्ह छाँड़ि गढ़ देऊँ॥

आपन देस खाहु सब, और चंदेरी लेहु।

समुद जो समदन कीन्ह तोहि ते पाँचौ नग देहु॥1॥

सुरजा पलटि सिंह चढ़ि गाजा । आज्ञा जाइ कही जहँ राजा॥

अबहूँ हिये समुझ रे राजा । बादसाह सौ जूझ न छाजा॥

जेहि कै देहरी पृथिवी सेई । चहै तौ मारै औ जिउ लेई॥

पिंजर माहँ ओहि कीन्ह परेवा । गढ़पति सोइ बाँच कै सेवा॥

जौ लगि जीभ अहै मुख तोरे । सँवरि उघेलु विनय कर जोरे॥

पुनि जो जीभ पकरि जिउ लेई । को खोलै, को बोलै देई?॥

आगे जस हमीर मैमंता । जौ तस करसि तोरे भा अंता॥

देखु! काल्हि गढ़ टूटे, राज ओहि कर होइ।

कर सेवा सिर नाइ कै, घर न घालु बुधिा खोइ॥2॥

सरजा! जौ हमीर अस ताका । ओर निबाहि बाँधिा गा साका॥

हौं सकबंधाी ओहि अस नाहीं । हौं सौ भोज विक्रम उपराहीं॥

बरिस साठ लगि साँठि न खाँगा । पानि पहार चुवै बिनु माँगा॥

तेहि ऊपर जौ पै गढ़ टूटा । सत सकबंधाी केर न छूटा॥

सोरह लाख कुँवर हैं मोरे । परहिं पतँग जस दीप ऍंजोरे॥

जहिं दिन चाँचरि चाहौं जोरी । समदौं फागु लाइ कै होरी॥

जौ निसि बीच, डरै नहिं कोई । देखु तौकाल्हि काह दहुँ होई1॥

अबहीं जौहर साजि कै, कीन्ह चहौं उजियार।

होरी खेलौं रन कठिन, कोइ समेटै छार॥3॥

अनु राजा सो जरै निआना । बादशाह कै सेब न माना॥

बहुतन्ह अस गढ़ कीन्ह सजवना । अंत भई लंका जस रवना॥

जेहि दिन वह छेंकै गढ़ घाटी । होइ अन्न ओही दिन माटी॥

तू जानसि जल चुवै पहारू । सो रोवै मन सँवरि सँघारू॥

सूतहि सूत सँवरि गढ़ रोवा । कस होइहि जौ होइहि ढोवा॥

सँवरि पहार सो ढारै ऑंसू । पै तोहि सूझ न आपन नासू॥

आजु काल्हि चाहै गढ़ टूटा । अबहुँ मानु जौ चाहसि छूटा॥

हैं जो पाँच नग पहँ, लेइ पाँचों कहँ भेंट।

मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धारि मेट॥4॥

अनु सरजा को मेटै पारा । बादसाह बड़ अहै तुम्हारा॥

ऐगुन मेटि सकै पुनि सोई । औ जो कीन्ह चहै सो होई॥

नग पाँचों देइ देउँ भँडारा । इसकंदर सौं बाँचै दारा॥

जो यह वचन त माथे मोरे । सेवा करौं ठाढ़ कर जोरे॥

पै बिनु सपथ न अस मन माना । सपथ बोल बाचा परवाना॥

खंभ जो गरुअ लीन्ह जग भारू । तेहि क बोल नहिं टरै पहारू॥

नाव जो माँझभार हुँत गीवा । सरजै कहा मंद वह जीवा॥

सरजै सपथ कीन्ह छल, बैनहि मीठै मीठ।

राजा कर मन माना, माना तुरत बसीठ॥5॥

हंस कनक पींजर हुँत आना । औ अमृत नग परस पखाना॥

औ सोनहार सोन केडाँड़ी । सारदूल रूप के काँड़ी॥

सो बसीठ सरजालेइ आवा । बादसाह कहँ आनि मेरावा॥

ए जगसूर भूमि उजियारे । बिनती करहिं काग मसि कारे॥

बड़ परताप तोर जग तपा । नवौ खंड तोहि को नहिं छपा॥

कोह छोह दूनौ तोहि पाहाँ । मारसि धाूप, जियावसि छाहाँ॥

जो मन सूर चाँद सौं रूसा । गहन गरासा, परा मँजूसा॥

भोर होइ जौ लागै, उठहिं रोर कै काग।

मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर अभाग॥6॥

करि बिनती अज्ञा अस पाई । 'कागहु कै मसि आपुहि लाई॥

पहिलेहि धानुष नवै जब लागै । काग न टिकै, देखि सर भागै॥

अबहूँ ते सर सौहैं होहीं । देखैं धानुक चलहिं फिर त्योंहीं॥

तिन्ह कागन कै कौन बसीठी । जो मुख फरि चलहिं देइ पीठी॥

जो सर सौंह होहिं संग्रामा । कित बग होहिं सेत वै सामा?॥

करै न आपन ऊजर केसा । फिरि फिरि कहै परार सँदेसा॥

काग नाग ए दूनौ बाँके । अपने चलत साम वै ऑंके॥

कैसेहु जाइ न मेटा, भयउ साम तिन्ह अंग।

सहस बार जौ धाोवा, तबहुँ न गा वह रंग॥7॥

अब सेवा जो आइ जोहारे । अबहूँ देखु सेत की कारे॥

कहौ जाइ जौ साँच, न डरना । जहवाँ सरन नाहि तहँ मरना॥

काल्हि आव गढ़ऊपर भानू । जो रे धानुक, सौंह होइ बानूँ॥

पान बसीठ मया करि पावा । लीन्ह पान, राजा पहँ आवा॥

जस हम भेंट कीन्ह गा कोहू । सेवा माँझ प्रीति औ छोहू॥

काल्हि साह गढ़ देखैआवा । सेवा करहु जैस मन भावा॥

गुन सौं चलै जो बोहित बोझा । जहँवाँ धानुक बान तह सोझा॥

भा आयसु अस राजघर, बेगि दै करहु रसोइ।

ऐस सुरस रस मेरवहु, जेहि सौं प्रीति रस होइ॥8॥

(1) चीतै=सोचे, विचारे। चिंता एक...ठाएँ=एक हृदय में दो ओर की चिंता लगी। गढ़ सौं...टूटै=बादशाह सोचता है कि गढ़ लेने में जब उलझ गए हैं तब उससे तभी छूट सकते हैं जब या तो मेल हो जाय या गढ़ टूटे। पाहन कर रिपु...हीरा=हीरे पत्थर का शत्राु हीरा पत्थर ही होता है अर्थात् हीरा हीरे से ही कटता है। पान देइ बीरा=ऊपर से मेल करके। मानहु सेऊ=आज्ञा मानो। चूरा कीन्ह=एक प्रकार से तोड़ा हुआ गढ़। खाहु=भोग करो। समदन कीन्ह=विदा के समय भेंट में दिए थे।

(2) उघेलु=निकाल। हमीर=रनथंभौर का राजा, हम्मीरदेव जो अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था। तस=वैसा। घर न घालु=अपना घर न बिगाड़।

(3) ताका=ऐसा विचारा। साँठि=सामान। खाँगा=कम होगा। समदौं=विदा के समय का मिलना मिलूँ। जो निसि बीच...दहुँ होई=(सरजा ने जो कहा था कि 'देखु काल्हि गढ़ टूटै' इसके उत्तार में राजा कहता है कि) यदि रात बीच में पड़ती है (अभी रात भर का समय है) तो कोई डर की बात नहीं; देख तो कल क्या होता है?

(4) अनु=फिर। सजवना=तैयारी। रवना=रावण। अन्न माटी होइ=खाना- पीना हराम हो जायेगा। सँघारू=संहार, नाश। ढोवा=लूट। मकु सो एक गुन...मेट=शायद वह तुम्हारे इस एक ही गुण से सब अवगुणों का भूल जाय।

1. पाठांतर-'देइकै घरनि जो राखै जीऊ। सो कस आपुहि कहि सक पीऊ'॥

(5) को मेटै पारा=इस बात को कौन मिटा सकता है कि। भँडारा=भंडार से। जौ यह वचन=जो बादशाह का इतना ही कहना है तो मेरे सिर माथे पर है। वाचा परवाना=बचन का प्रमाणहै।नावजो माँझ...गीवा=जो किसी बात का बोझ अपने ऊपर लेकर बीच में गरदन हटाता है। छल=छल से। बसीठ माना=सुलह का संदेश मान लिया।

(6) सोनहार=समुद्र का पक्षी। डाँड़ी=अव। काँड़ी=पिंजरा (?)। बिनती करहिं काग मसि कारे=हे सूर्य! कौए विनती करते हैं कि उनकी कालिमा (दोष,अवगुण)दूर कर दे अर्थात् राजा के दोष क्षमा कर। कोह=क्रोधा। छोह=दया, अनुग्रह। धाूप=धाूप से। छाहाँ=छाँह में, अपनी छाया में। परा मँजूसा=झाबे में पड़ गया अर्थात् घिर गया। कागहि केर अभाग=कौए का ही अभाग्य है कि उसकी कालिमा न छूटी।

(7) कागहु कै मसि...लाई=कौए की स्याही तुम्हीं ने लगा ली है (छल करके), वे कौए नहीं हैं क्योंकि...। पहिलेहि...भागै=जो कौआ होता है वह ज्योंही धानुष खींचा जाता है, भाग जाता है। अबहूँ...होहीं=वे तो अब भी यदि उनके सामने बाण किया जाय तो तुरत लड़ने के लिए फिर पड़ेंगे, धानुक=(क) युध्द के लिए चढ़ी कमान, (ख) टेढ़ापन, कुटिलता। सर=(क) शर, तीर; (ख) ताल, सरोवर। जोर सर...सामा=जो लड़ाई में तीर के सामने आते हैं वे श्वेत बगुले काले (कौए) कैसे हो सकते हैं? करै न आपन...सँदेसा=तू अपने को शुध्द और उज्ज्वल नहीं करता; केवल कौओं की तरह इधार का उधार सँदेसा कहता है (कवि लोग नायिकाओं का कौए से सँदेसा कहना वर्णन करते हैं)। अपने चलत...ऑंके=वे एक बात पर दृढ़ करते हैं और सदा वही कालिमा ही प्रकट करते हैं, पर तू अपने को और का और प्रकट करके छल करता है।

(8) अब सेवा...जोहारे=उन्होंने मेल कर लिया है, तू अब भी देख सकता है कि श्वेत हैं या काले अर्थात् वे छल नहीं करेंगे। जोरे धानुक...बानू=जो अब वह किले में मेरे जाने पर किसी प्रकार की कुटिलता करेगा तो उसके सामने फिर बाण होगा (धानुष टेढ़ा होता है और बाण सीधाा)। गुन=गून, रस्सी। जहँवा धानुक...सोझा=जहाँ कुटिलता हुई कि सामने सीधाा बाण तैयार है।



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