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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम चित्ताौरगढ़-वर्णन खंड पीछे     आगे

जेवाँ साह जो भयउ बिहाना । गढ़ देखै गवना सुलताना॥

कवँल सहाय सूर सँग लीन्हा । राघवचेतन आगे कीन्हा॥

ततखन आइ बिवाँन पहूँचा । मन तें अधिाक, गगन तें ऊँचा॥

उघरी पवँरि, चला सुलतानू । जानहु चला गगन कहँ भानू॥

पवँरी सात, सात ख्रड बाँके । सातौ खंड गाढ़ दुइ नाके॥

आजु पँवरि मुख भा निरमरा । जौ सुलतान आइ पग धारा॥

जनहु उरेह काटिसबकाढ़ी । चित्रा क मूरति बिनवहिं ठाढ़ी॥

लाखन बैठ पवँरिया, जिन्ह तें नवहिं करोरि।

तिन्ह सब पवँरि उघारे, ठाढ़ भए कर जोरि॥1॥

सातौ पवँरी कनक केवारा । सातौ पर बाजहिं घरियारा॥

सात रंग तिन्ह सातौ पँवरी । तब तिन्ह चढ़ै फिरै नव भँवरी॥

ख्रड ख्रड साज पलँग औ पीढ़ी । जानहुँ इंद्रलोक कै सीढ़ी॥

चंदन बिरिछ सोह तहँ छाहाँ । अमृत कुंड भरे तेहि माहाँ॥

फरे खजहजा दारिउँ दाखा । जो ओहि पंथ जाइ सो चाखा॥

कनक छत्रा सिंघासन साजा । पैठत पँवरि भिला लेइ राजा॥

बादशाह चढ़ि चितउर देखा । सब संसार पाँव तर लेखा॥

देखा साह गनन गढ़, इंद्रलोक कर साज।

कहिय राज फुर ताकर, सरग करै अस राज॥2॥

चढ़ि गढ़ ऊपर संगति देखी । इंद्रसभा सो जानि बिसेखी॥

ताल तलावा सरवर भरे । औ ऍंबराव चहूँ दिसि फरे॥

कुऑं बावरी भाँतिहि भाँती । मठ मंडप साजै चहुँ पाँती॥

राय रंक घरघर सुख चाऊ । कनक मँदिर नग दीन्ह जड़ाऊ॥

निसि दिन बाजहिं मादर तूरा । रहस कूद सब भरे सेंदूरा॥

रतन पदारथ नग जो बखाने । घूरन्ह माँह देख छहराने॥

मँदिर मँदिर फुलवारी बारी । बार बार बहु चित्रा सँवारी॥

पाँसासारि कुँवर सब खेलहिं, गीतन्ह òवन ओनाहिं।

चैन चाव तस देखा, जनु गढ़ छेंका नाहिं॥3॥

देखत साह कीन्ह तहँ फेरा । जहँ मंदिर पदमावति केरा॥

आस पास सरवर चहुँ पासा । माँझ मँदिर जनु लाग अकासा॥

कनक सँवारि नगन्ह सब जरा । गगन चंद जनु नखतन्ह भरा॥

सरवर चहुँ दिसि पुरइन फूली । देखत बारि रहा मन भूली॥

कुँवरि सहसदस बार अगोरे । दुहुँ दिसि पवँरि ठाढ़ि कर जोरे॥

सारदूल दुहँ दिसि गढ़ि काढ़े । गलगाजहिं जानहुँ ते ठाढ़े॥

जावत कहिए चित्रा कटाऊ । तावत पवँरिन्ह बने जड़ाऊ॥

साह मँदिर अस देखा, जनु कैलास अनूप।

जाकर अस धाौराहर, सो रानी केहि रूप॥4॥

नाँघत पँवरि गए ख्रड साता । सतएँ भूमि बिछावन राता॥

ऑंगन साह ठाढ़ भा आई । मँदिर छाँह अति सीतल पाई॥

चहूँ पास फुलवारी बारी । माँझ सिंहासन धारा सँवारी॥

जनु बसंत फूला सब सोने । फल औ फूल बिगसि अति लोने॥

जहाँ जो ठाँव दिस्टि महँ आवा । दरपन भाव दरस देखरावा॥

तहाँ पाट राखा सुलतानी । बैठ साह, मन जहाँ सो रानी॥

कवँल सुभाय सूर सौं हँसा । सूर क मन चाँदहिं पर बसा॥

सो पै जानै नयन रस, दिरदय प्रेम ऍंकूर।

चंद जो बसै चकोर चित, नयनहि आव न सूर॥5॥

रानी धाौराहर उपराहीं । करै दिस्टि नहिं तहाँ तराहीं॥

सखी सरेखी साथ बईठी । तपै सूर, ससि आव न दीठी॥

राजा सेव करै कर जोरे । आजु साह घर आवा मोरे॥

नट, नाटक, पातुरि औ बाजा । आइ अखाड़ माँह सब साजा॥

पेम क लुबुधा बहिर औ अंधाा । नाच कूद जानहुँ सब धांधाा॥

जानहुँ काठ नचावै कोई । जो नाचत सो प्रगट न होई॥

परगट कहँ राजा सौं बाता । गुपुत प्रेम पदमावति राता॥

गीत नाद अस धांधाा, दहक बिरह कै ऑंच।

मन कै डोरी लाग तहँ, जहँ सो गहि गुन खाँच॥6॥

गोरा बादल राजा पाहाँ । रावत दुवौ दुवौ जनु बाहाँ॥

आइ òवन राजा के लागे । मूसि न जाहिं पुरुष जो जागे।

बाचा परखि तुरुकहम बूझा । परगट मेर गुपुत छल सूझा॥

तुम नहिं करौ तुरुक सौं मेरू । छल पै करहिं अंत कै फेरू॥

बैरी कठिन कुटिलजस काँटा । सो मकोय रह राखै ऑंटा॥

सत्राु कोट को आइ अगोटी । मीठी खाँड़ जेंवाएहु रोटी॥

हम तेहि ओंछ क पावा घातू । मूल गए सँग रहै न पातू॥

यह सो कृस्न बलिराज जस, कीन्ह चहै छर बाँधा।

हम्ह बिचार अस आवै, मेर न दीजिय काँधा॥7॥

सुनि राजहि यह बात न भाई । जहाँ मेर तहँ नहिं अधामाई॥

मंदहि भल जो करै भल सोई । अंतहि भला भले कर होई॥

सत्राु जो बिष देइ चाहै मारा । दीजिय लोन जानि बिषहारा॥

बिष दीन्हें बिषहर होइ खाई । लोन दिए होइ लोन बिलाई॥

मारे खड़ग खड़ग कर लेई । मारे लोन नाइ सिर देई॥

कौरव बिष जो पँडवन्ह दीन्हा । अंतहि दाँव पंडवन्ह लीन्हा॥

जो छल करै ओहि छल बाजा । जैसे सिंघ मँजूसा साजा1॥

राजै लोन सुनावा, लाग दुहुन जस लोन।

आए कोहाइ मँदिर कहँ, सिंघ छान अब गोन॥8॥

राजा कै सोरह सै दासी । तिन्ह महँ चुनि काढ़ीं चौरासी॥

बरन बरन सारी पहिराई । निकसि मँदिर तें सेवा आईं॥

जनु निसरीं सब बीरबहूटी । रायमुनी पींजर हुँत छूटी॥

सबै परथमै जोबन सोहैं । नयन बान औ सारँग भौंहैं॥

मारहिं धानुक फेरि सर ओही । पनिघट घाट धानुक जिति मोही॥

काम कटाछ हनहिं चित हरनी । एक एक तें आगरि बरनी॥

जानहुँ इंद्रलोक तें काढ़ी । पाँतिहि पाँति भई सब ठाढ़ी॥

साह पूछ राघव पहँ, ए सब अछरी आहिं।

तुइ जो पदमावति बरनी, कहु सो कौन इन माहिं॥9॥

दीरघ आउ, भूमिपति भारी । इन महँ नाहिं पदमावति नारी॥

यह फुलवारि सो ओहि कै दासी । कहँ केतकी भँवर जहँ बासी॥

वह तौ पदारथ, यह सब मोती । कहँ ओहि दीप पतँग जेंहिजोती॥

ए सब तरई सेब कराहीं । कहँ वह ससि देखत छपि जाहीं॥

जौ लगि सूर क दिस्टि अकासू । तौ लगि ससि न करै परगासू॥

सुनि कै साहदिस्टि तर नावा । हम पाहुन, यह मँदिर परावा॥

पाहुन ऊपर हेरै नाहीं । हना राहु अर्जुन परछाहीं॥

तपै बीज जस धारती, सूख बिरह के घाम।

कब सुदिस्टि सो बरिसै, तन तरिवर होइ जाम॥10॥

सेव करैं दासी चहुँ पासा । अछरी मनहुँ इंद्र कबिलासा॥

कोउ परात कोउ लोटा लाईं । साह सभा सब हाथ धाोवाईं॥

कोइ आगे पनवार बिछावहिं । कोई जेंवन लेइ लेइ आवहिं॥

माँड़े कोइ जाहिं धारि जूरी । कोई भात परोसहिं पूरी॥

कोई लेइ लेइ आवहिंथारा । कोइ परसहिं छप्पन परकारा॥

पहिरि जोचीर परोसै आवहिं । दूसरि और बरन देखरावहिं॥

बरन बरन पहिरे हर फेरा । आव झुंड जस अछरिन्ह केरा॥

पुनि सँधाान बहु आनहिं, परसहिं बूकहि बूक।

करहिं सँवार गोसाईं, जहाँ परै किछु चूक॥11॥

जानहु नखत करहिं सब सेवा । बिनु ससि सूरहि भाव न जेंवा॥

बहु परकार फिरहिं हर फेरे । हेरा बहुत न पावा हेरे॥

परीं असूझ सबै तरकारी । लोनी बिना लोन सब खारी॥

मच्छ छुवै आवहिं गड़ि काँटा । जहाँ कवँल तहँ हाथ न ऑंटा॥

मन लागेउ तेहि कँवल के डंडी । भावै नाही एक कनउँड़ी॥

सो जेंवन नहिं जाकर भूखा । तेहि बिन लाग जनहु सब सूखा॥

अनभावत चाखै बैरागा । पंचामृत जानहुँ बिष लागा॥

बैठि सिंघासन गूँजै, सिंघ चरै नहिं घास।

जौ लगि मिरिग न पावै, भोजन करै उपास॥12॥

पानि लिये दासी चहुँ ओरा । अमृत मानहुँ भरे कचोरा॥

पानी देहिं कपूर क बासा । सो नहिं पियै दरस कर प्यासा॥

दरसन पानि देइ तौजीऔं । बिनु रसना नयनहि सौं पीऔं॥

पपिहा बूँद सेवातिहि अघा । कौन काज जौ बरिसै मघा?॥

पुनि लोटा कोपर लेइ आईं । कै निरास अब हाथ धाोवाईं॥

हाथ जो धाोवै बिरह करोरा । सँवरि सँवरि मन हाथ मरोरा॥

बिधिा मिलाव जासौं मन लागा । जोरहि तूरि प्रेम कर तागा॥

हाथ धाोइ जब बैठा, लीन्ह ऊब कै साँस।

सँवरा सोइ गोसाईं, देइ निरासहि आस॥13॥

भइ जेवनार फिरा ख्रड़वानी । फिरा अरगजा कुहँकुहँ पानी॥

नग अमोल जो थारहि भरे । राजै सेव आनि कै धारै॥

बिनती कीन्ह घालि गिउ पागा । ए जगसूर! सीउ मोहिं लागा॥

ऐगुन भरा काँप यह जीऊ । जहाँ भानु तहँ रहै न सीऊ॥

चारिउ खंड भानु अस तपा । जोहि के दिस्टि रैनि मसि छपा॥

औ भानुहि अस निरमलकला । दरस जो पावै सो निरमला॥

कवँल भानु देखै पै हँसा । औ भा तेहु चाहि परगसा॥

रतन साम हौं रैनि मसि, ए रबि! तिमिर सँघार।

करु सो कृपा दिस्टि अब, दिवस देहि उजियार॥14॥

सुनि बिनती बिहँसा सुलतानू । सहसौ करा दिपा जस भानू॥

ए राजा! तुइ साँच जुड़ावा । भइ सुदिस्टि अब सीउ छुड़ावा॥

भानु क सेवा जो कर जीऊ । तेहि मसि कहाँ, कहाँ तेहि सीऊ॥

खाहु देस आपन करि सेवा । और देउँ माँडौ तोहि देवा!॥

लीक पखान पुरुष कर बोला । धाुव सुमेरु ऊपर नहिं डोला॥

फेरि पसाउ दीन्ह नग सूरू । लाभ देखाइ लीन्ह चह मूरू॥

हँसि हँसि बोलै, टेकै काँधाा । प्रीति भुलाइ चहै छल बाँधाा॥

माया बोल बहुत कै, साह पान हँसि दीन्ह।

पहिले रतन हाथ कै, चहै पदारथ लीन्ह॥15॥

माया मोह बिबस भा राजा । साह खेल सतरँज कर साजा॥

राजा! है जौ लगि सिर घामू । हम तुम घरिक करहिं बिसरामू॥

दरपन साह भीति तहँ लावा । देखौं जबहि झरोखे आवा॥

खेलहिं दुऔ साह औ राजा । साह क रुख दरपन रह साजा॥

प्रेम क लुबुधा पियादे पाऊँ । ताके सौंह चलै कर ठाँऊ॥

घोड़ा देइ फरजीबँधा लावा । जेहि मोहरा रुख चहै सो पावा॥

राजा पील देइ शह माँगा । शह देइ चाह मरै रथ खाँगा॥

पीलहि पील देखावा, भए दुऔ चौदाँत।

राजा चहै बुर्द भा, शाह चहै शह मात॥16॥

सूर देख जौ तरई दासी । जहँ ससि तहाँ जाइ परगासी॥

सुना जो हमदिल्ली सुलतानू । देखा आजु तपै जस भानू॥

ऊँच छत्रा जाकर जग माहाँ । जग जो छाहँ सब ओहि कै छाहाँ॥

बैठि सिंघासन गरबहिगूँजा । एक छत्रा चारिउ ख्रड भूजा॥

निरखि न जाइ सौंह ओहि पाहीं । सबै नवहिं करि दिस्टि तराहीं॥

मनि माथे,ओहि रूप नदूजा । सब रूपवंत करहिं ओहि पूजा॥

हम अस कसा कसौटीआरस । तहूँ देखु कस कंचन, पारस॥

बादसाह दिल्ली कर, कित चितउर महँ आव।

देखि लेहु पदमावति! जेहि न रहै पछिताव॥17॥

बिगसै कुमुद कहे ससि ठाऊँ । बिगसै कवँल सुने रवि नाऊँ॥

भइ निसि ससि धाौराहर चढ़ी । सोरह कला जैस बिधिा गढ़ी॥

बिहँसि झरोखे आइ सरेखी । निरखि साह दरपन महँ देखी॥

होतहि दरस परसभा लोना । धारती सरग भयउ सब सोना॥

रुख माँगत रुख तासहुँ भयउ । भा शह मात, खेल मिटि गयऊ॥

राजा भेद न जानै झाँपा । भा बिसँभार, पवन बिनु काँपा।

राघव कहाकि लागि सोपारी । लेइ पौढ़ावहिं सेज सँवारी॥

रैनि बीति गइ, भोर भा, उठा सूर तब जागि।

जो देखै ससि नाहीं, रही करा चित लागि॥18॥

भोजन प्रेम सो जान जो जेंवा । भँवरहि रुचै बास-रस-केवा॥

दरस देखाइ जाइ ससि छपी । उठा भानु जस जोगी तपी॥

राघव चेति साह पहँ गयउ । सूरज देखि कवँल बिसमयऊ॥

छत्रापती मन कीन्ह सो पहुँचा । छत्रा तुम्हार जगत पर ऊँचा॥

पाट तुम्हार देवतन्ह पीठी । सरग पतार रहै दिन दीठी॥

छोह ते पलुहहिं उकठे रूखा । कोह ते महि सायर सब सूखा॥

सकल जगत तुम्ह नावै माथा । सब कर जियन तुम्हारे हाथा॥

दिनहिं नयन लाएहु तुम, रैनि भयहु नहिं जाग।

कस निचिंत अस सोयहु, काह विलँब अस लाग?॥19॥

देखि एक कौतुक हौं रहा । रहा ऍंतरपट, पै नहिं अहा॥

सरवर देख एक मैं सोई । रहा पानि, पै पान न होई॥

सरग आइ धारती महँ छावा । रहा धारति, पै धारत न आवा॥

तिन्ह महँ पुनि एक मंदिरऊँचा । करन्ह अहा, पर कर न पहूँचा॥

तेहि मंडप मूरति मैं देखी । बिनु तन, बिनु जिउ जाइ बिसेखी॥

पूरन चँद होइ जनु तपी । पारस रूप दरस देइ छपी॥

अब जहँ चतुरदसी जिउ तहाँ । भानु अमावस पावा कहाँ?॥

बिगसा कँवल सरग निसि, जनहुँ लौकि गइ बीजु।

ओहि राहु भा भानुहि, राघव मनहिं पतीजु॥20॥

अति बिचित्रा देखा सो ठाढ़ी । चित कै चित्रा, लीन्ह जिउ काढ़ी।

सिंघ लंक, कुंभस्थल जोरू । ऑंकुस नाग, महाउत मोरू॥

तेहि ऊपर भा कँवल बिगासू । फिरि अलि लीन्ह पुहुप मधाु बासू॥

दुइ खंजन बिच बैठउ सूआ । दुइज क चाँद धानुक लेइ ऊआ॥

मिरिग देखाइ गवन फिरि किया । ससि भा नाग, सूर भा दिया॥

सुठि ऊँचे देखत वह उचका । दिस्टि पहुँचि, कर पहुँचि न सका॥

पहुँच बिहून दिस्टि कित भई? । गहि न सका, देखत वह गई॥

राघव! हेरत जिउ गयउ, कित आछत जो असाधा।

यह तन राख पाँख कै सकै न, केहि अपराधा?॥21॥

राघव सुनत सीस भुइँ धारा । जुग जुग राज भानु कै करा॥

उहै कला, वह रूप बिसेखी । निसचै तुम्ह पदमावति देखी॥

केहरि लंक कुँभस्थल हीया । गीउ मयूर, अलक बेधिाया॥

कवँल बदन औ बास सरीरू । खंजन नयन, नासिका कीरू॥

भौंह धानुक, ससि दुइज लिलाटू । सब रानिन्ह ऊपर ओहि पाटू॥

सोई मिरिग देखाइ जो गयऊ । बेनी नाग, दिया चित भयऊ॥

दरपन महँ देखी परछाहीं । सो मूरति, भीतर जिउ नाहीं॥

सबै सिंगार बनी धानि, अब सोई मति कीज।

अलक जो लरकै अधार पर, सो गहि कै रस लीज॥22॥

(1) जेवाँ=भोजन किया। बिहान=सवेरा। मन तें अधिाक=मन से अधिाक वेगवाला। पवँरि=डयोढ़ी। गाढ़=कठिन। नाके=चौकियाँ। जिन्ह तें नवहिं करोरि=जिनके सामने करोड़ों आदमी आवें तो सहम जायँ।

(2) घरियारा=घँटे। फिरै=जब फिरे। भँवरी=चक्कर। पीढ़ी=सिंहासन। लेखा=समझा, समझ पड़ा। फुर=सचमुच।

(3) संगति=सभा। सुख चाउ=आनंद मंगल। मादर=मर्दल, एक प्रकार का ढोल। घूरन्ह=कूड़ेखानों में। छहराने=बिखरे हुए। पाँसासारि=चौपड़। ओनाहिं=झुके या लगे हैं।

(4) पुरइन=(सं. पुटकिनी) कमल। अगोरे=रखवाली या सेवा में खड़ी है। सारदूल=सिंह। गलगाजहिं=गरजते हैं। कटाऊ=कटाव, बेलबूटे।

(5) राता=लाल। दरपन भाव...देखरावा=दर्पण के समान ऐसा साफ झकाझक है कि प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। ऍंकूर=अंकुर। नयनहिं न आव=नजर में नहीं जँचता है।

(6) उपराहीं=ऊपर। सूर=सूर्य के समान बादशाह। ससि=चंद्रमा के समान राजा। ससि...दीठी=सूर्य के समान चंद्रमा (राजा) की ओर नजर नहीं जाती है। अखाड़=अखाड़ा, रंगभूमि : जैसे-इंद्र का अखाड़ा। जानहु सब धांधाा=मानो नाच-कूद तो संसार का काम ही है यह समझकर उस ओर धयान नहीं देता है। कह=कहता है। दहक=जिससे दहकता है। गुन=डोरी। खाँच=खींचती है।

(7) रावत=सामंत। दुवौ जनु बाहाँ=मानो राजा की दोनों भुजाएँ हैं। òवन लागे=कान में लगकर सलाह देने लगे। मूसि न जाहिं=लूटे नहीं जाते हैं। बाचा परखि...बूझा=उस मुसलमान की मैं बात परखकर समझ गया हूँ। मेर=मेल। कै फेरू=घुमा-फिराकर। बैरी=(क) शत्राु; (ख) बेर का पेड़। सो मकोय रह‑‑‑ऑंटा=उसे मकोय की तरह (काँटे लिये हुए) रहकर ओट या दावँ में रख सकते हैं। ऑंटा=दावँ, जैसे-''न ये बिससिए लखि नये, दुर्जन दुसह सुभाय। ऑंटे पर प्रानन हरैं, काँटे लौं लगि पाय॥''-(बिहारी)। अगोटी=छेंका। ओछ=ओछे, नीच। पावा धाातू=दाँव-पेंच समझ गया। मूल गए...पातू=उसने सोचा है कि राजा को पकड़ लें तो सेना सामंत आप ही न रह जाएँगे। कृस्न=विष्णु, वामन। छर बाँधा=छल का आयोजन। काँधा दीजिए=स्वीकार कीजिए।

(8) विषहार=विष हरनेवाला। बिसहर=विषधार, साँप। होइ लोन बिलाई=नमक की तरह गल जाता है। कर लेइ=हाथ में लेता है। मारे लोन=नमक से मारने से, अर्थात् नमक का एहसान ऊपर डालने से। बाजा=ऊपर पड़ता है। लोन जस लाग=अप्रिय लगा, बुरा लगा। कोहाइ=रूठकर। मंदिर=अपने घर। छान=बाँधाती है। गोन=रस्सी। सिंघ...गोन=सिंह अब रस्सी से बँधाा चाहता है।

(9) रायमुनी=मुनिया नाम की छोटी सुंदर चिड़िया। सारँग=धानुष।

(10) आउ=आयु। कहँ केतकी...बासी=वह केतकी यहाँ कहाँ है (अर्थात् नहीं है। जिस पर भौंरे बसते हैं।) पदारथ=रत्न। जौ लगि सूर...परगासू=जब तक सूर्य ऊपर रहता है तब तक चंद्रमा का उदय नहीं होता, अर्थात् जब तक आपकी दृष्टि ऊपर लगी रहेगी तब तक पद्मावती नहीं आएगी। हेरै=देखता है। हना राहु अर्जुन परछाहीं=जैसे अर्जुन ने नीचे छाया देखकर मत्स्य का बेधा किया था वैसे ही आपको किसी प्रकार दर्पण आदि में उसकी छाया देखकर ही उसे प्राप्त करने का उद्योग करना होगा। सूख=सूखता है।

1. एक ब्राह्मण देवता ने दया करके एक शेर को पिंजड़े से निकाल दिया। शेर उन्हें खाने दौड़ा। ब्राह्मण ने कहा, भलाई के बदले में बुराई नहीं करनी चाहिए। शेर कहने लगा, अपना भक्ष्य नहीं छोड़ना चाहिए। अंत में गीदड़ पंच हुआ। उसने कहा तुम दोनों जिस दशा में थे उसी दशा में थोड़ी देर के लिए फिर हो जाओ तो मैं मामला समझूँ। शेर फिर पिंजड़े में चला गया। गीदड़ ने इशारा किया और ब्राह्मण ने पिंजड़े का द्वार फिर बंद कर दिया।

(11) पनवार=बड़ा पत्ताल। माड़े=एक प्रकार की चपाती। जूरी=गव्ी लगाकर। सँधाान=अचार। बूकहिं बूक=चंगुल भर-भरकर। करहिं सँवार गोसाईं=डर के मारे ईश्वर का स्मरण करने लगती हैं।

(12) नखत=पदमावती की दासियाँ। ससि=पदमावती। जेंवा=भोजन करना। बहु परकार=बहुत प्रकार की स्त्रिायाँ। परीं असूझ=ऑंख उन पर नहीं पड़ती। लोनी=सुंदरी पदमावती। लोन सब खारी=सब खारी नमक के समान कड़वी लगती हैं। आवहिं गड़ि=गड़ जाते हैं। न ऑंटा=नहीं पहुँचता है। कँवल के डंडी=मृणाल रूप पदमावती में। कनउँड़ी=दासी। अनभावत=बिना मन से। बैरागा=विरक्त। उपास=उपवास।

(13) कचोरा=कटोरा। अघा=अघाता, तृप्त होता है। मघा=मघा नक्षत्रा। कोपर=एक प्रकार का बड़ा थाल या परात। हाथ धाोवाईं=बादशाह ने मानो पदमावती के दर्शन से हाथ धाोया। बिरह करोरा=हाथ जो धाोने के लिए मलता है मानो विरह खरोच रहा है। हाथ मरोरा=हाथ धाोता है, मानो पछताकर हाथ मलता है।

(14) सेव=सेवा में। घालि गिउ पागा=गले में पगड़ी डालकर (अधाीनतासूचक)। सीऊ=शीत। रैनि मसि=रात की कालिमा। तेहु चाहि=उससे भी बढ़कर। सँघार=नष्ट कर।

(15) दिपा=चमका। मसि=कालिमा। खाहु=भोग करो। माँडौ=माँडौगढ़। देवा=देव, राजा। लीक पखान=पत्थर की लीक सा (न मिटनेवाला)। धाुव=धा्रुव। पसाउ=प्रसाद, भेंट। मूरू=मूलधान। प्रीति=प्रीति से। छल=छल से। रतन=राजा रत्नसेन। पदारथ=पदमावती।

(16) घरिक=एक घड़ी, थोड़ी देर। भीति=दीवार में। लावा=लगाया। रह साजा=लगा रहता है। पियादे पाऊँ=पैदल। पियादे=शतरंज की एक गोटी। फरजी=शतरंज का वह मोहरा जो सीधाा और टेढ़ा दोनों चलता है। फरजीबंद=वह घात जिसमें फरजी किसी प्यादे के जोर पर बादशाह को ऐसी शह देता है जिससे विपक्षी की हार होती है। शह=बादशाह को रोकनेवाला घात। रथ=शतरंज का वह मोहरा जिसे आजकल ऊँट कहते हैं (जब चतुरंग का पुराना खेल हिंदुस्तान से फारस अरब की ओर गया तब वहाँ 'रथ' के स्थान पर 'ऊँट' हो गया)। बुर्द=खेल में वह अवस्था जिसमें किसी पक्ष के सब मोहरे मारे जाते हैं, केवल बादशाह बच रहता है, वह आधाी हार मानी जाती है। शह मात=पूरीहार।

(17) सूर देख...तरई दासी=दासी रूप नक्षत्राों ने जब सूर्य रूप बादशाह को देखा। जहँ ससि...परगासी=जहाँ चंद्ररूप पदमावती थी वहाँ जाकर कहा। परगासी=प्रकट किया, कहा। भूजा=भोग करता है। आरस=आदर्श, दर्पण। कसा कसौटी आरस=दर्पण्ा में देखकर परीक्षा की। कित आव=फिर कहाँ आता है, अर्थात् न आएगा।

(18) कहे ससि ठाऊँ=इस जगह चंद्रमा है, यह कहने से। सुने=सुनने से। परस भा लोना=पारस या स्पर्शमणि का स्पर्श सा हो गया। रुख=शतरंज का रुख। रुख=सामना। भा शह मात=(क) शतरंज में पूरी हार हुई; (ख) बादशाह बेसुधायामतवाला हो गया। झाँपा=छिपा, गुप्त। भा बिसँभार=बादशाह बेसुधा हो गया। लागि सोपारी=सुपारीके टुकड़े निगलने में छाती में रुक जाने से कभी-कभी एकबारगी पीड़ा होने लगती है जिससे आदमी बेचैन हो जाता है; इसी को सुपारी लगना कहते हैं। देखै=जो उठकर देखता है तो। करा=कला, शोभा।

(19) भोजन प्रेम=प्रेम का भोजन (इस प्रकार के उलटे समास जायसी में प्राय: मिलते हैं।-शायद फारसी के ढंग पर हों।) सो जान=वह जानता है। बास-रस-केवा=केबा बास-रस अर्थात् कमल का गंधा और रस। सूरुज देखि...बिसमयऊ=(वहाँ जाकर देखा कि) सूर्य बादशाह कमल पदमावती को देखकर स्तब्धा हो गया है। दिन=प्रतिदिन, सदा। पलुहहिं=पनपते हैं। उकठें=सूखै। तुम्ह=तुम्हें। दिनहिं नयन...जाग=दिन के सोए आप रात होने पर भी न जागे। निचिंत=बेखबर।

(20) रहा ऍंतरपट...अहा=(क) परदा था भी और नहीं भी था अर्थात् परदे के कारण मैं उस तक पहुँच नहीं सकता था। पर उसकी झलक देखता था (पदमावती के प्रतिबिंब को शाह ने दर्पण में देखा था); (ख) यह जगत् ब्रह्म और जीव के बीच परदा है पर उसमें उसकी झलक भी दिखाई पड़ती है। रहा पानि...न होई=उसमें पानी था पर उस तक पहुँच मैं पी नहीं सकता था। सरवर=वह दर्पण ही यहाँ सरोवर के समान दिखाई पड़ा। सरग आइ धारती...आवा=सरोवर में आकाश (उसका प्रतिबिंब) दिखाई पड़ता है पर उसे कोई छू नहीं सकता। धारति=धारती पर। धारत न आवा=पकड़ाई नहीं देता था। करन्ह अहा=हाथों में ही था। अब जहँ चतुरदसी...कहाँ=चौदस (पूर्णिमा) के चंद्र के समान जहाँ पदमावती है जीव तो वहाँ है, अमावस्या में सूर्य (शाह) तो है ही नहीं। वह तो चतुर्दशी में है, चतुर्दशी में ही उसे अद्भुत ग्रहण लग रहा है। लौकि गइ=चमक उठी, दिखाई पड़ गई।

(21) चित कै चित्रा=चित्ता या हृदय में अपना चित्रा पैठाकर। कुंभस्थल जोरू=हाथी के उठे हुए मस्तकों का जोड़ा (अर्थात् दोनों कुच)। ऑंकुस नाग=साँपों (अर्थात् बाल की लटों) का अंकुश। मोरू=मयूर। मिरिग=अर्थात् मृगनयनी पदमावती। गवन फिरि किया=पीछे फिरकर चली गई। ससि भा नाग=उसके पीछे फिरने से चंद्र्रमा के स्थान पर नाग हो गया, अर्थात् मुख के स्थान पर वेणी दिखाई पड़ी। सूर भा दिया=उस नाग को देखते ही सूर्य (बादशाह) दीपक के समान तेजहीन हो गया (ऐसा कहा जाता है कि साँप के सामने दीपक की लौ झिलमिलाने लगती है)। पहुँच बिहून...कित भई?=जहाँ पहुँच ही नहीं हो सकती वहाँ दृष्टि क्यों जाती है? हेरत जिउ गयउ=देखते ही मेरा जीव चला गया। कित आछत जो असाधा=जो वश में नहीं था वह रहता कैसे? यह तन...अपराधा=यह मिट्टी का शरीर पंख लगाकर क्यों नहीं जा सकता; इसने क्या अपराधा किया है? (22) बेधिाया=बेधा करनेवाला अंकुश। ओहि=उसका। दिया चित भयउ=वह तुम्हारा चित्रा था जो नाग के सामने दीपक के समान तेजहीन हो गया। मति कीज=ऐसी सलाह या युक्ति कीजिए। अलक...रस लीज=साँप की तरह जो लटें हैं उन्हें पकड़कर अधाररस लीजिए (राजा को पकड़ने का इशारा करता है)।


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