कुंभलनेर राय देवपालू । राजा केर सत्राु हिय सालू॥
वह पै सुना कि राजा बाँधाा । पाछिल बैर सँवरि छर साधाा॥
सत्राुसाल तब नेवरै सोई । जौ घर आव सत्राु कै जोई॥
दूती एक बिरिधा तेहि ठाऊँ । बाम्हनि जाति, कुमोदिनि नाऊँ॥
ओहि हँकारि कै बीरा दीन्हा । तोरे बर मैं बर जिउ कीन्हा॥
तुइ जो कुमोदिनि कँवल के नियरे । सरग जो चाँद बसै तोहिहियरे॥
चितउर महँ जो पदमावति रानी । कर बर छर सौ दे मोहिं आनी॥
रूप जगत मन मोहन, औ पदमावति नावँ।
कोटि दरब तोहि देइहौं, आनि करसि एहि ठावँ॥1॥
कुमुदिनि कहा देखु, हौं सो हौं । मानुष काह, देवता मोहौं॥
जस काँवरू चमारिनि लोना । को नहिं छर पाढ़त कै टोना॥
बिसहर नाचहिं पाढ़त मारे । औ धारि मूँदहिं घालि पेटारे॥
बिरिछ चलै पाढ़त कै बोला । नदी उलटि बह परबत डोला॥
पढ़त हरै पंडित मन गहिरे । और को अंधा, गूँग औ बहिरे॥
पाढ़त ऐस देवतन्ह लागा । मानुष कहँ पाढ़त सौं भागा?॥
चढ़ि अकास कै काढ़त पानी । कहाँ जाइ पदमावति रानी॥
दूती बहुत पैज कै, बोली पाढ़त बोल।
जाकर सत्ता सुमेरु है, लागे जगत न डोल॥2॥
दूती बहुत पकावन साधो । मोतिलाडू औ खरौरा बाँधो॥
माठ, पिराकैं, फेनी, पापर । पहिरे बूझि, दूति के कापर॥
लेइ पूरी भरि डाल अछूती । चितउर चली पैज कै दूती॥
बिरिधा बैस जो बाँधो पाऊ । कहाँ सो जोबन, कित बेवसाऊ?॥
तन बूढ़ा, मन बूढ़ न होई । बल न रहा, पै लालच सोई॥
कहाँ सो रूप जगत सब राता । कहाँ सो गरब हस्ति जस माता॥
कहाँ सो, तीख नयन, तन ठाढ़ा । सबै मारि जोबन पन काढ़ा॥
मुहमद बिरिधा जो नइ चलैं, काह चलै भुइँ टोइ।
जोबन रतन हेरान है, मकु धारती महँ होइ॥3॥
आइ कुमोदिनि चितउर चढ़ी । जोहन मोहन पाढ़त पढ़ी॥
पूछि लीन्ह रनिवास बरोठा । पैठी पँवरी भीतर कोठा॥
जहाँ पदमावति ससि उजियारी । लेइ दूती पकवान उतारी॥
हाथ पसारि धााइ कैं भेंटी । चीन्हा नहिं राजा कै बेटी॥
हौं बाम्हनि जेहि कुमुदिनि नाऊँ । हम तुम उपने एकै ठाऊँ॥
नावँ पिता कर दूबे बेनी । सोइ पुरोहित गँधारबसेनी॥
तुम बारी तब सिंघलदीपा । लीन्हे दूधा पियाइउँ सीपा॥
ठाँव कीन्ह मैं दूसर, कुंभलनेरै आइ।
सुनि तुम्ह कहँ चितउर महँ, कहिउँ कि भेंटौं जाइ॥4॥
सुनि निसचैं नैहर कै कोई । गरे लागि पदमावति रोई॥
नैन गगन रबि बिनु ऍंधिायारे । ससि मुख ऑंसु टूट जनु तारे॥
जग ऍंधिायार गहन धानि परा । कब लगि सखि नखतन्ह निसिभरा॥
माय बाप कित जनमी बारी । गीउ तूरि कित जनम न मारी?॥
कित बियाहि दुख दीन्ह दुहेला । चितउर पंथ कंत बँदि मेला॥
अब एहि जियन चाहि भल मरना । भयउ पहार जनम दुख भरना॥
निकसि न जाइ निलज यह जीऊ । देखौं मँदिर सून बिनु पीऊ॥
कुहुकि जो रोई ससि नखत, नैन हैं रात चकोर।
अबहूँ बोलैं तेहि कुहुक, कोकिल, चातक, मोर॥5॥
कुमुदिनि कंठ लागि सुठि रोई । पुनि लेइ रूप डार मुख धाोई॥
तुइ ससि रूप जगत उजियारी । मुख न झाँपु निसि होइ ऍंधिायारी॥
सुनि चकोर कोकिल दुख दुखी । घुँघुची भई नैन करमुखी॥
केतौ धााइ मरैं कोइ बाटा । सोइ पाव जो लिखा लिलाटा॥
जो बिधिा लिखा आन नहिं होई । कित धाावै, कित रोवै कोई॥
कित कोउ हींछ करै औ पूजा । जो बिधिा लिखा होइ नहिं दूजा॥
जेतिक कुमूदिनि बैंन करेई । तस पदमावति òवन न देई॥
सेंदुर चीर मैल तस, सूखि रही जस फूल।
जेहि सिंगार पिय तजिगा, जनम न पहिरै भूल॥6॥
तब पकवान उधाारा दूती । पदमावति नहिं छुवै अछूती॥
मोहि अपने पिय केर खभारू । पान फूल कस होइ अहारू?॥
मोकहँ फूल भए सब काँटे । बाँटि देहु जौ चाहहु बाँटे॥
रतन छुआ जिन्ह हाथन सेंती । और न छुबौं सो हाथ सँकेती॥
ओहि के रँग भा हाथ मँजीठी । मुकुता लेउँ तौ घुँघची दीठी॥
नैन करमुहें राती काया । माती होहिं घुँघची जेहि छाया॥
अस कै ओछ नैन हत्यारे । देखत गा पिउ, गहै न पारे॥
का तोर छुवौं पकवान, गुड़ करुवा, घिउ रूख।
जेहि मिलि होत सवाद रस, लेइ सो गयउ पिउ भूख॥7॥
कुमुदिनी रही कवँल के पासा । बैरी सूर, चाँद कै आसा॥
दिन कुँभिलानि रही, भइ चूरू । बिगसि रैनि बातन्ह कर भूरू॥
कस तुइ, बारि! रहसि कुँभलानी । सूखि बेलि जस पाव न पानी॥
अबही कँवल करी तुइँ बारी । कोवँरि बैस, उठत पौनारी॥
बेनी तोरि मैलि औ रूखी । सरवर माहँ रहसि कस सूखी?॥
पान बेलि बिधिा कया जमाई । सींचत रहै तबै पलुहाई॥
करु सिंगार सुख फूल तमोरा । बैठु सिंहासन, झूलु हिंडोरा॥
हार चीर नीति पहिरहु, सिर कर करहु सँभार।
भोग मानि लेहु दिन दस, जोबन जात न बार॥8॥
बिहँसि जोजोबन कुमुदिन कहा । कवँल न बिगसा, संपुट रहा॥
ए कुमुदिनि! जोबनतेहि माहाँ । जो आछै पिउ के सुख छाहाँ॥
जाकर छत्रा सो बाहर छावा । सो उजार घर कौन बसावा?॥
अहा न राजा रतन ऍंजोरा । केहिक सिंघासन, केहिक पटोरा?॥
को पालक पौढ़े को माड़ी? । सोवनहार परा बँदि गाढ़ी॥
चहुँ दिसियह घर भा ऍंधिायारा । सब सिंगार लेइ साथ सिधाारा॥
क्या बेलि तब जानौं जामी । सींचनहार आव घर स्वामी॥
तौ लहि रहौं झुरानी, जौ लहि आव सो कंत।
एहि फूल, एहि सेंदुर, नव होइ उठै बसंत॥9॥
जिनि तुइ, बारि! करसि अस जीऊ । जौ लहि जोबन तौ लहिपीऊ॥
पुरुष संग आपन केहि केरा । एक कोहाँइ, दुसर सहुँ हेरा॥
जोबन जल दिन दिन जस घटा । भँवर छपान, हंस परगटा॥
सुभर सरोवर जौ लहि नीरा । बहु आदर पंखी बहु तीरा॥
नीर घटे पुनि पूछ न कोई । बिरसि जो लीज हाथ रह सोई॥
जौ लगि कालिंदि, होहि बिरासी । पुनि सुरसरि होइ समुद परासी॥
जोबन भँवर, फूल तन तोरा । बिरिधा पहुँचि जस हाथ मरोरा॥
कृस्न जो जोबन कारनै, गोपीतन्ह के साथ।
छरि कै जाइहि बानपै, धानुक रहै तोरे हाथ॥10॥
जौ पिउ रतनसेन मोर राजा । बिनु पिउ जोबन कौने काजा॥
जौ पै जिउ तौ जोबन कहे । बिनु जिउ जोबन काह सो अहे?॥
जो जिउ तौ यह जोबन भला । आपन जैस करै निरमला॥
कुल कर पुरुष सिंह जेहि खेरा । तेहि थर कैस सियार बसेरा?॥
हिया फार कूकुर तेहि केरा । सिंघहिं तजि सियार मुख हेरा॥
जोबन नीर घटे का घटा? । सत्ता के बर जौ नहिं हिय फटा॥
सघन मेघ होइ साम बरीसहिं । जोबन नव तरिवर होइ दीस¯ह॥
रावन पाप जो जिउ धारा, दुवौ जगत मुहँ कार।
राम सत्ता जो मन धारा, ताहि छरै को पार?॥11॥
कित पावसि पुनि जोबन राता । मैमँत चढ़ा साम सिर छाता॥
जोबन बिना बिरिधा होइ नाऊँ । बिनु जोबन थाकै सब ठाऊँ॥
जोबन हेरत मिलै न हेरा । सो जौ जाइ, करै नहिं फेरा॥
हैं जो केस नग भँवर जो बसा । पुनि बग होहिं, जगत सब हँसा॥
सेंवर सेव न चित करु सूआ । पुनि पछितासि अंत जब भूआ॥
रूप तोर जग ऊपर लोना । यह जोबन पाहुन चल होना॥
भोग बिलास केरि यह बेरा । मानि लेहु, पुनि को केहि केरा?॥
उठत कोंप जस तरिवर, तस जोबन तोहि रात।
तौ लगि रंग लेहु रचि, पुनि सो पियर होइ पात॥12॥
कुमुदिनि बैंन सुनत हिय जरी । पदमावति उरहि आगि जनु परी॥
रँग ताकर हौं जारौं काँचा । आपन तजि जो पराएहि राँचा॥
दूसर करै जाइ दुइ बाटा । राजा दुइ न होहिं एक पाटा॥
जेहि के जीउ प्रीति दिढ़ होई । मुख सोहाग सौं बैठे सोई॥
जोबन जाउ, जाउ सो भँवरा । पिय कै प्रीति न जाइ, सो सँवरा॥
एहि जग जौ पिउ करहिं न फेरा । ओहि जग मिलहिंजौदिनदिनहेरा॥
जोबन मोर रतन जहँ पीऊ । बलि तेहि पिउ पर जोबन जीऊ॥
भरथरि बिछुरि पिंगला, आहि करत जिउ दीन्ह।
हौं पापिनि जो जियत हौं, इहै दोष हम कीन्ह॥13॥
पदमावति! सो कौन रसोई । जेहि परकार न दूसर होई॥
रस दूसर जेहि जीभ बईठा । सो जानै रस खाटा मीठा॥
भँवर बास बहु फूलन्ह लेई । फूल बास बहु भँवरन्ह देई॥
दूसर पुरुष न रस तुइ पावा । तिन्ह जाना जिन्ह लीन्ह परावा॥
एक चुल्लू रस भरै न हीया । जौ लहि नहिं फिर दूसर पीया॥
तोर जोबन जस समुद हिलोरा । देखि देखि जिउ बूड़ै मोरा॥
रंग और नहिं पाइय वैसे । जरे मरे बिनु पाउब कैसे?॥
देखि धानुष तोर नैना, मोहिं लाग बिष बान।
बिहँसि कँवल जो मानै, भँवर मिलावौं आन॥14॥
कुमुदिनि! तुइ बैरिनि, नहिं धााई । तुइ मसि बोलि चढ़ावसि आई॥
निरमल जगत नीर कर नामा । जो मसि परै होइ सो सामा॥
जहँवा धारम पाप नहिं दीसा । कनक सोहाग माँझ जस सीसा॥
जो मसि परे होइ ससि कारी । सो मसि लाइ देसि मोहिं गारी॥
कापर महँ न छूट मसि अंकू । सो मसि लेइ मोहि देसि कलंकू॥
साम भँवर मोर सूरुज करा । और जो भँवर साम मसि भरा॥
कँवल भँवर रबि देखे ऑंखी । चंदन बास न बैठै माखी॥
साम समुद मोर निरमल, रतनसेन जग सेन।
दूसर सरि जौ कहावै, सो बिलाइ जस फेन॥15॥
पदमावति!पुनि मसि बोल न बैना । सो मसि देखु दुहूँ तोरे नैना॥
मसि सिंगार, काजर सब बोला । मसिक बुंद तिल सोह कपोला॥
लोना सोइ जहाँ मसि रेखा । मसि पुतरिन्ह तिन्ह सौं जग देखा॥
जो मसि घालि नयन दुहुँ लीन्ही । सो मसि फेरि जाइ नहिं कीन्ही॥
मसि मुद्रा दुइ कुच उपराहीं । मसि भँवरा जे कँवल भँवाहीं॥
मसि केसहि, मसि भौंह उरेही । मसि बिनु दसन सोह नहिं देही॥
सो कस सेत जहाँ मसि नाहीं? । सो कस पिंड न जेहि परछाहीं?॥
अस देवपाल राय मसि, छत्रा धारा सिर फेर।
चितउर राज बिसरिगा, गयउ जो कुंभलनेर॥16॥
सुनि देवपाल जो कुंभलनेरी । पंकजनैन भौंह धानु फेरी॥
सत्राु मोरे पिउ करदेवपालू । सो कित पूत सिंघ सरि भालू?॥
दु:ख भरा तन जेत न केसा । तेहि का सँदेस सुनावसि बेसा?॥
सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा । पाहन होइ परै जौ हरुवा॥
जेहि ऊपर अस गरुवा पीऊ । सो कस डोलाए डोलै जीऊ?॥
फेरत नैन चेरि सौ छूटीं । भइ कूटन कुटनी तस कूटीं॥
नाक कान काटेन्हि, मसि लाई । मूँड़ मूँड़ि कै गदह चढ़ाई॥
मुहमद बिधिा जेहि गरुड़ गढ़ा, का कोई तेहि फूँक।
जेहि के भाग जग थिर रहा, उड़ै न पवन के झूँक॥17॥
(1) राजा केर=राजा रत्नसेन का। हियसालू=हृदय में कसकनेवाला। पै=निश्चय। छर=छल। सत्राुसाल तब नेबरै=शत्राु के मन की कसर तब पूरी-पूरी निकलती है। नेवरै=पूरी होती है। जोइ=जोय, स्त्राी।
(2) का नहिं छर=कौन नहीं छला गया? पाढ़त कै=पढ़ते हुए। पाढ़त=पढ़ंत, मंत्रा जो पढ़ा जाता है, टोना, मंत्रा, जादू। भागा=बचकर जा सकता है। पैज=प्रतिज्ञा।
(3) पकावन=पकवान। साधो=बनवाए। खरौरा=ख्रडौरा, खाँड़ या मिòी के लड्डू। बूझि=खूब सोच समझकर। कापर=कपड़े। डाल=डला या बड़ा थाल। जौ बाँधो पाऊ=जब पैर बाँधा दिए अर्थात् बेबस कर दिया। बेबसाऊ=व्यवसाय, रोजगार। तन ठाढ़ा=तनी हुई देह।
(4) जोहन मोहन=देखते ही मोहनेवाला। बरोठा=बैठकखाना। चीन्हा नहिं=क्या नहीं पहचाना? जेहि=जिसका। उपने=उत्पन्न हुए। लीन्हे=गोद में लिये। सीपा=सीप में रखकर, शुक्ति में। (इधार स्त्रिायाँ छोटे बच्चों को ताल की सीपों में रखकर दूधा पिलाती हैं क्योंकि उसका आकार चम्मच का सा होता है)।
(5) नैहर=मायका, पीहर। नैन गगन=गगन नयन, नेत्रारूपी आकाश। जनमी=जनी, पैदा की। बारी=लड़की। तूरि=तोड़कर, मरोड़कर। जनम=जन्म काल में ही। कंत बँदि=पति की कैद में। जियन चाहि=जीने की अपेक्षा। कुहुकि=कूककर। तेहि कुहुक=उसी कूक से उसी कूक को लेकर।
(6) सुठि=खूब। रूपडार=चाँदी का थाल या परात। केतौ=कितना ही। हींछ=इच्छा बैन करेई=बकवाद करती है। भूल=भूल, भूलकर भी।
(7) उघारा=खोला। खभारू=खभार, शोक। हाथन्ह सेंती=हाथों से। हाथ सकेती=हाथ से बटोरकर। मुकता लेउँ दीठी=हाथ में मोती लेते ही हाथों की ललाई से (जो रत्नसेनरूपी रत्न या माणिक्य के स्पर्श के प्रभाव से है) वह लाल हो जाता है, फिर जब उसकी ओर देखती हूँ तब पुतली की छाया पड़ने से उसके ऊपर काला दाग भी दिखाई देने लगता है, इस प्रकार वह मोती घुँघची दिखाई पड़ता है अर्थात् उसका कुछ भी मूल्य मुझे नहीं मालूम होता। राती=लाल। छाया=लाल और काली छाया से।
(8) कँवल=अर्थात् पदमावती। बैरी सूर... आसा=कुमुदिनी का बैरी सूर्य है और वह कुमुदिनी चंद्र की आशा में है अर्थात् उस दूती का रत्नसेन शत्राु है और वह दूती पदमावती को प्राप्त करने की आशा में है। बिगसि रैनि...भूरू=रत्नसेन के अभावरूपी रात में विकसित या प्रसन्न होकर बातों से भुलाया चाहती है। रहसि=तू रहती है। कोवँरि=कोमल। पौनारि=मृणाल। बार=देर।
(9) ऍंजोरा=प्रकाशवाला। माढ़ी=मंच, मचिया। बँदि=बँदी में। एहि फूल=इसी फूल से
(10) कोहाँइ=रूठती है। सहुँ=सामने। भँवर=(क) पानी का भँवर, (ख) भौंरे के समान काले केश। भँवर छपान...परगटा=पानी का भँवर गया और हंस आया (जल की बरसाती बाढ़ हट जाने पर शरत् में हंस आ जाते हैं) अर्थात् काले केश न रह गए, सफेद बाल हुए। बिरसि जो लीज=जो बिलस लीजिए, जो विलास कर लीजिए। जौ लगि कालिंदि...परासी=जब तक कालिंदी या जमुना है विलास कर ले फिर तो गंगा में मिलकर, गंगा होकर, समुद्र में दौड़कर जाना ही पड़ेगा, अर्थात् जब तक काले बालों का यौवन है तब तक विलास कर ले फिर तो सफेद बालोंवाला बुढ़ापा आवेगा और मृत्यु की ओर झटपट ले जायगा। बिरासी=विलासी। परासी=तू भागती है अर्थात् भागेगी। जोबन भँवर...तोरा=इस समय जोबनरूपी भौंरा (काले केश) हैं और फूल सा तेरा शरीर है। बिरिधा=वृध्दावस्था। हाथ मरोरा=इस फूल को हाथ से मल देगा। बान=(क) तीर, (ख) वर्ण, कांति। धानुक=टेढ़ी कमर।
(11) आपन जैस=अपने ऐसा। खेरा=घर, बस्ती। थर=स्थल, जगह। फार=फाड़ै। सत्ता के...फटा=यदि सत्य के बल से हृदय न फटे अर्थात् प्रीति में अंतर न पड़े (पानी घटने से ताल की जमीन में दरारें पड़ जाती हैं) छरै को पार=कौन छल सकता है।
(12) राता=ललित। साम सिर छाता=अर्थात् काले केश। थाकै=थक जाता है। बग=बगुलों के समान श्वेत। चल होना=चल देनेवाला है। कोंप=कोंपल, कल्ला। रँग लेहु रचि=(क) रंग लो, (ख) भोग-विलास कर लो।
(13) काँचा=कच्चा। राँचा=अनुरक्त हुआ। जाइ दुइ बाटा=दुर्गति को प्राप्त होता है। जाउ=चाहे चला जाय। भँवरा=काले केश। सँवरा=जिसका स्मरण किया करती हूँ। जौ दिन दिन हेरा=यदि लगातार ढूँढ़ती रहूँगी।
(14) कौनि रसोई=किस काम की रसोई है! जेहि परकार...होई=जिसमें दूसरा प्रकार न हो, जो एक ही प्रकार की हो। दूसर पुरुष=दूसरे पुरुष का। बैसे=बैठे रहने से, उद्योग न करने से। आन=दूसरा।
(15) धााई=धााय, धाात्राी। मसि चढ़ावसि=मेरे ऊपर तू स्याही पोतती है। जस सीसा=जैसे सीसा नहीं दिखाई पड़ता है। लाइ=लगाकर। कापर=कपड़ा। सरि=(क) बराबरी का; (ख) नदी।
(16) घालि लीन्ही=डाल रखी है। मुद्रा=मुहर। उपराहीं=ऊपर। भँवाहीं=घूमते हैं। कँवल=कमल को, कमल के चारों ओर। सो कस...नाहीं=ऐसी सफेदी कहाँ जहाँ स्याही नहीं, अर्थात् स्याही के भाव के बिना सफेदी की भावना हो ही नहीं सकती। पिंड=साकार वस्तु या शरीर। जेंहि=जिसमें।
(17) भौंह धानु फेरी=क्रोधा से टेढ़ी भौं की। सरि पूज=बराबरी को पहुँच सकता है। दुख भरा तन...केसा=शरीर में जितने रोएँ या बाल नहीं उतने दु:ख भरे हुए हैं। सोन नदी...गरुवा=महाभारत में शिला नाम की एक ऐसी नदी का उल्लेख है जिसमें कोई हल्की चीज डाल दी जाए तो वह डूब जाती है और पत्थर हो जाती है। मेगस्थनीज ने भी ऐसा ही लिखा है। गढ़वाल के कुछ सोतों के पानी में इतना रेत और चूना रहता है कि पड़ी हुई लकड़ी पर क्रमश: जमकर उसे पत्थर के रूप में कर देता है। पाहन होइ...हरुवा=हलकी वस्तु भी हो तो उसमें पड़ने पर पत्थर हो जाती है। चेरि=दासियाँ। छूटीं=दौड़ीं। कूटन=कुटाई, प्रहार। कुटनी=कुट्टिनी, दूती। झूँक=झोंका।