रानी धारमसार पुनि साजा । बंदि मोख जेहि पावहिं राजा॥
जावत परदेसी चलि आवहि । अन्नदान औ पानी पावहिं॥
जोगि जती आवहिं जत कंथी । पूछै पियहि, जान कोइ पंथी॥
दान कौ देत बाहँ भइ ऊँची । जाइ साह पहँ बात पहूँची॥
पातुरि एक हुति जोगि सवाँगी । साह अखारे हुँत ओहि माँगी।
जोगिनि भेस बियोगिनि कीन्हा । सींगी सबद मूल तँत लीन्हा॥
पदमावति पहँ पटई करि जोगिनि । बेगि आनु करि बिरह बियोगिनि॥
चतुर कला मनमोहन, परकाया परवेस।
आइ चढ़ी चितउर गढ़, होइ जोगिनि के भेस॥1॥
माँगत राजवार चलि आई । भीतर चेरिन्हं बात जनाई॥
जोगिनि एक बार है कोई । माँगै जैसि बियोगिनि सोई॥
अबहीं नव जोबन तप लीन्हा । फारि पटोरहि कंथा कीन्हा॥
बिरह भभूत, जटा बैरागी । छाला काँधा, जाप कँठ लागी॥
मुद्रा òवन, नाहिं थिर जीऊ । तन तिरसूल अधाारी पीऊ॥
छात न छाँह धाूप जनु मरई । पावँ न पवँरी, भूभुर जरई॥
सिंगी सबद धाँधाारी करा । जरै सो ठाँव पाँव जहँ धारा॥
किंगरी गहे बियोग बजावै, बारहि बार सुनाव।
नयन चक्र चारिउ दिसि (हेरहिं) दहुँ दरसन कब पाव॥2॥
सुनि पदमावति मँदिर बोलाई । पूछा कौन देस तें आई?॥
तरुन बैस तोहिं छाज न जोगू । केहि कारन अस कीन्ह बियोगू?॥
कहेसि बिरह दुख जान न कोई । बिरहिन जान बिरह जेहि होई॥
कंत हमार गयउ परदेसा । तेहि कारन हम जोगिनि भेसा॥
काकर जिउ जोबन औ देहा । जौ पिउ गयउ, भयउ सब खेहा॥
फारि पटोर कीन्ह मैं कंथा । जहँ पिउ मिलहिं लेउँ सो पंथा॥
फिरौं, करौं चहुँ चक्र पुकारा । जटा परीं का सीस सँभारा?॥
हिरदय भीतर पिउ बसै, मिलै न पूछौं काहि?
सून जगत सब लागै, ओहि बिनु किछु नहिं आहि॥3॥
òवन छेद महँ मुद्रा मेला । सबद ओनाउँ कहाँ पिउ खेला॥
तेहि बियोग सिंगी निति पूरौं । बार बार किंगरी लेइ झूरौं॥
को मोहिं लेइ पिउ कंठलगावै । परम अधाारी बात जनावै॥
पाँवरि टूटि चलत, पर छाला । मन न मरै तन जोबन बाला॥
गयउँ पयाग मिला नहिं पीऊ । करबत लीन्ह, दीन्ह बलि जीऊ॥
जाइ बनारस जारिउँ कया । पारिउँ पिंड नहाइउँ गया॥
जगन्नाथ जगरन कै आई । पुनि दुवारिका जाइ नहाई॥
जाइ केदार दाग तन, तहँ न मिला तिन्ह ऑंक।
ढूँढ़ि अयोधया आइउँ, सरग दुवारी झाँक॥4॥
गउमुख हरिद्वार फिर कीन्हिउँ । नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ॥
ढूँढ़िउँ बालनाथ कर टीला । मथुरा मथिउँ, न सो पिउ मीला॥
सुरुजकुंड महँ जारिउँ देहा । बद्री मिला न जासौं नेहा॥
रामकुंड, गोमति, गुरुद्वारू । दाहिन वरत कीन्ह कै बारू॥
सेतुबंधा, कैलास, सुमेरू । गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू॥
बरम्हावरत ब्रह्मावति परसी । बेनी संगम सीझिउँ करसी॥
नीमषार मिसरिख कुरुछेता । गोरखनाथ अस्थान समेता॥
पटना पुरुब सो घर घर, हाँड़ि फिरिउँ संसार॥
हेरत कहूँ न पिउ मिला, ना कोइ मिलवनहार॥5॥
बन बन सब हेरेउँ नवखंडा । जल जल नदी अठारह गंडा॥
चौंसठ तीरथ के सब ठाऊँ । लेत फिरिउँ ओहि पिउ कर नाऊँ॥
दिल्ली सब देखिउँ तुरकानू । औ सुलतान केर बँदिखानू॥
रतनसेन देखिउँ बँदि माहाँ । जरै धाूप, खन पाव न छाहाँ॥
सब राजहि बाँधो औ दागे । जोगिनि जान राज पग लागे॥
का सो भोग जेहि अंत न केऊ । यह दुख लेइ सो गएउ सुखदेऊ॥
दिल्ली नावँ न जानहुँ ढीली । सुठि बँदि गाढ़ि निकस नहिं कीली॥
देखि दगधा दुख ताकर, अबहुँ कया नहिं जीउ।
सो धानि कैसे दहुँ जियै, जाकर बँदि अस पीउ?॥6॥
पदमावति जौ सुना बँदि पीऊ । परा अगिनि महँ मानहुँ घीऊ॥
दौरि पायँ जोगिनि के परी । उठी आगि अस जोगिनि जरी॥
पायँ देहि, दुइ नैनन्ह लाऊँ । लेइ चलु तहाँ कंत जेहि ठाऊँ॥
जिन्ह नैनन्ह तुइ देखा पीऊ । मोहिं देखाउ, देहुँ बलि जीऊ॥
सत औ धारम देहुँ सब तोहीं । पिउ कै बात कहै जौ मोहीं॥
तुइ मोर गुरु, तोरि हौं चेली । भूली फिरत पंथ जेहि मेली॥
दंड एक माया करु मोरे । जोगिनि होउँ, चलौं सँग तोरे॥
सखिन्ह कहा, सुनु रानी, करहु न परगट भेस।
जोगी जोगवै गुपुत मन, लेइ गुरु कर उपदेस॥7॥
भीख लेहु, जोगिनि! फिरि माँगू । कंत न पाइय किए सवाँगू॥
यह बड़ जोग बियोग जो सहना । जेहुँ पीउ राखै तेहुँ रहना॥
घर ही महँ रहु भई उदासा । ऍंजुरी खप्पर, सिंगी साँसा॥
रहै प्रेम मन अरुझा गटा । विरह धाँधाारि, अलक सिर जटा॥
नैन चक्र हेरै पिउ पंथा । कया जो कापर सोई कंथा॥
छाला भूमि, गगन सिर छाता । रंग करत रह हिरदय राता॥
मन माला फेरै तँत ओही । पाँचौ भूत भसम तन होहीं॥
कुंडल सोइ सुनु पिउ कथा, पँवरि पाँव पर रेहु।
दंडक गोरा बादलहि, जाइ अधाारी लेहु॥8॥
(1) धारमसार=धार्मशाला, सदावर्त, खैरातखाना। मोख पावहिं=छूटें। जत=जितन। हुँत=थी। जोगि सवाँगी=जोगिन का स्वाँग बनानेवाली। अखारे हुँत=रंगशाला से, नाचघर से। माँगी=बुला भेजा। तंत=तत्तव। कला मनमोहन=मन मोहने की कला में।
(2) राजवार=राजद्वार। बार=द्वार। तन तिरसूल...पीऊ=सारा शरीर ही त्रिाशूलमय हो गया है और अधाारी के स्थान पर प्रिय ही है अर्थात् उसी का सहारा है। पवरी=चट्टी या खड़ाऊँ। भूभुर=धाूप से तपी धाूल या बालू। धाँधाारी=गोरखधांधाा।
(3) छाज न=नहीं सोहाता। खेहा=धाूल, मिट्टी। चहुँ चक्र=पृथ्वी के चारों ओर खूँट में। आहि=है।
(4) ओनाउँ=झुकती हूँ, झुककर कान लगाती हूँ। सबद ओनाउँ...खेला=आहट लेने के लिए
कान लगाए रहती हूँ कि प्रिय कहाँ गया। झूरौं=सूखती हूँ। अधाारी=सहारा देनेवाली। पर=पड़ता
है। बाला=नवीन। जगरन=जागरण। दाग=दागा, तप्त मुद्रा ली। तिन्ह=उस प्रिय का। ऑंक=चिद्द, पता। सरगदुवारी=अयोधया में एक स्थान।
(5) गउमुख=गोमुख तीर्थ, गंगोत्तारी का वह स्थान जहाँ से गंगा निकलती है। नगरकोट=नागरकोट, जहाँ देवी का स्थान है। कटि रसना दीन्हिउँ=जीभ काटकर चढ़ाई। बालनाथ कर टीला=पंजाब में सिंध और झेलम के बीच पड़नेवाले नमक के पहाड़ों की एक चोटी। मील=मिला। सुरुजकुंड=अयोधया, हरिद्वार आदि कई तीर्थों में इस नाम के कुंड हैं। बद्री=बदरिकाश्रम में। कै बारू कई बार। अलकपुर=अलकापुरी। ब्रम्हावति=कोई नदी। करसी=करीषाग्नि में, उपलों की आग में। हाँडि फिरिउँ=छान डाला, ढूँढ़ डाला, टटोल डाला।
(6) राज पग लागे=राजा ने प्रणाम किया। न केऊ=पास में कोई न रह जाय। (यह दुख) लेइ गयउ=लेने या भोगने गया। सुखदेऊ=सुख देनेवाला तुम्हारा प्रिय। दिल्ली नावँ=दिल्ली इस नाम से (पृथ्वीराज रासो में किल्ली ढिल्ली कथा है)। सुठि=खूब। कीली=कारागार के द्वार का अर्गल। अबहुँ क्या नहिं जीउ=अब भी मेरे होश ठिकाने नहीं।
(7) माया=मया, दया।
(8) फिरि माँगू=जाओ, और जगह घूमकर माँगो। सवाँग=स्वाँग, नकल, आडंबर। यह बड़...सहना=वियोग का जो सहना है यही बड़ा भारी योग है। जेहुँ=जैसे, ज्यों, जिस प्रकार। तेहुँ=त्यों, उस प्रकार। सिंगी साँसा=लंबी साँस लेने को ही सिंगी फूँकना (बजाना) समझो। गटा=गटरमाला। रहै प्रेम...गटा=जिसमें उलझा हुआ मन है उसी प्रेम को गटरमाला समझो। छाल=मृगछाला। तँत=तंत, तत्व या मंत्रा। पाँचौ भूत...होहीं=शरीर के पंचभूतों को ही रमी हुई भभूत या भस्म समझो। पँवरि पाँच पर रेहु=पाँव पर जो धाूल लगे उसी को खड़ाऊँ समझ। अघारी=अव्े के आकार की लकड़ी जिसे सहारे के लिए साधाु रखते हैं। अधाारी लेहु=सहारा लो।