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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम बादशाह-दूती खंड पीछे     आगे

रानी धारमसार पुनि साजा । बंदि मोख जेहि पावहिं राजा॥

जावत परदेसी चलि आवहि । अन्नदान औ पानी पावहिं॥

जोगि जती आवहिं जत कंथी । पूछै पियहि, जान कोइ पंथी॥

दान कौ देत बाहँ भइ ऊँची । जाइ साह पहँ बात पहूँची॥

पातुरि एक हुति जोगि सवाँगी । साह अखारे हुँत ओहि माँगी।

जोगिनि भेस बियोगिनि कीन्हा । सींगी सबद मूल तँत लीन्हा॥

पदमावति पहँ पटई करि जोगिनि । बेगि आनु करि बिरह बियोगिनि॥

चतुर कला मनमोहन, परकाया परवेस।

आइ चढ़ी चितउर गढ़, होइ जोगिनि के भेस॥1॥

माँगत राजवार चलि आई । भीतर चेरिन्हं बात जनाई॥

जोगिनि एक बार है कोई । माँगै जैसि बियोगिनि सोई॥

अबहीं नव जोबन तप लीन्हा । फारि पटोरहि कंथा कीन्हा॥

बिरह भभूत, जटा बैरागी । छाला काँधा, जाप कँठ लागी॥

मुद्रा òवन, नाहिं थिर जीऊ । तन तिरसूल अधाारी पीऊ॥

छात न छाँह धाूप जनु मरई । पावँ न पवँरी, भूभुर जरई॥

सिंगी सबद धाँधाारी करा । जरै सो ठाँव पाँव जहँ धारा॥

किंगरी गहे बियोग बजावै, बारहि बार सुनाव।

नयन चक्र चारिउ दिसि (हेरहिं) दहुँ दरसन कब पाव॥2॥

सुनि पदमावति मँदिर बोलाई । पूछा कौन देस तें आई?॥

तरुन बैस तोहिं छाज न जोगू । केहि कारन अस कीन्ह बियोगू?॥

कहेसि बिरह दुख जान न कोई । बिरहिन जान बिरह जेहि होई॥

कंत हमार गयउ परदेसा । तेहि कारन हम जोगिनि भेसा॥

काकर जिउ जोबन औ देहा । जौ पिउ गयउ, भयउ सब खेहा॥

फारि पटोर कीन्ह मैं कंथा । जहँ पिउ मिलहिं लेउँ सो पंथा॥

फिरौं, करौं चहुँ चक्र पुकारा । जटा परीं का सीस सँभारा?॥

हिरदय भीतर पिउ बसै, मिलै न पूछौं काहि?

सून जगत सब लागै, ओहि बिनु किछु नहिं आहि॥3॥

òवन छेद महँ मुद्रा मेला । सबद ओनाउँ कहाँ पिउ खेला॥

तेहि बियोग सिंगी निति पूरौं । बार बार किंगरी लेइ झूरौं॥

को मोहिं लेइ पिउ कंठलगावै । परम अधाारी बात जनावै॥

पाँवरि टूटि चलत, पर छाला । मन न मरै तन जोबन बाला॥

गयउँ पयाग मिला नहिं पीऊ । करबत लीन्ह, दीन्ह बलि जीऊ॥

जाइ बनारस जारिउँ कया । पारिउँ पिंड नहाइउँ गया॥

जगन्नाथ जगरन कै आई । पुनि दुवारिका जाइ नहाई॥

जाइ केदार दाग तन, तहँ न मिला तिन्ह ऑंक।

ढूँढ़ि अयोधया आइउँ, सरग दुवारी झाँक॥4॥

गउमुख हरिद्वार फिर कीन्हिउँ । नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ॥

ढूँढ़िउँ बालनाथ कर टीला । मथुरा मथिउँ, न सो पिउ मीला॥

सुरुजकुंड महँ जारिउँ देहा । बद्री मिला न जासौं नेहा॥

रामकुंड, गोमति, गुरुद्वारू । दाहिन वरत कीन्ह कै बारू॥

सेतुबंधा, कैलास, सुमेरू । गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू॥

बरम्हावरत ब्रह्मावति परसी । बेनी संगम सीझिउँ करसी॥

नीमषार मिसरिख कुरुछेता । गोरखनाथ अस्थान समेता॥

पटना पुरुब सो घर घर, हाँड़ि फिरिउँ संसार॥

हेरत कहूँ न पिउ मिला, ना कोइ मिलवनहार॥5॥

बन बन सब हेरेउँ नवखंडा । जल जल नदी अठारह गंडा॥

चौंसठ तीरथ के सब ठाऊँ । लेत फिरिउँ ओहि पिउ कर नाऊँ॥

दिल्ली सब देखिउँ तुरकानू । औ सुलतान केर बँदिखानू॥

रतनसेन देखिउँ बँदि माहाँ । जरै धाूप, खन पाव न छाहाँ॥

सब राजहि बाँधो औ दागे । जोगिनि जान राज पग लागे॥

का सो भोग जेहि अंत न केऊ । यह दुख लेइ सो गएउ सुखदेऊ॥

दिल्ली नावँ न जानहुँ ढीली । सुठि बँदि गाढ़ि निकस नहिं कीली॥

देखि दगधा दुख ताकर, अबहुँ कया नहिं जीउ।

सो धानि कैसे दहुँ जियै, जाकर बँदि अस पीउ?॥6॥

पदमावति जौ सुना बँदि पीऊ । परा अगिनि महँ मानहुँ घीऊ॥

दौरि पायँ जोगिनि के परी । उठी आगि अस जोगिनि जरी॥

पायँ देहि, दुइ नैनन्ह लाऊँ । लेइ चलु तहाँ कंत जेहि ठाऊँ॥

जिन्ह नैनन्ह तुइ देखा पीऊ । मोहिं देखाउ, देहुँ बलि जीऊ॥

सत औ धारम देहुँ सब तोहीं । पिउ कै बात कहै जौ मोहीं॥

तुइ मोर गुरु, तोरि हौं चेली । भूली फिरत पंथ जेहि मेली॥

दंड एक माया करु मोरे । जोगिनि होउँ, चलौं सँग तोरे॥

सखिन्ह कहा, सुनु रानी, करहु न परगट भेस।

जोगी जोगवै गुपुत मन, लेइ गुरु कर उपदेस॥7॥

भीख लेहु, जोगिनि! फिरि माँगू । कंत न पाइय किए सवाँगू॥

यह बड़ जोग बियोग जो सहना । जेहुँ पीउ राखै तेहुँ रहना॥

घर ही महँ रहु भई उदासा । ऍंजुरी खप्पर, सिंगी साँसा॥

रहै प्रेम मन अरुझा गटा । विरह धाँधाारि, अलक सिर जटा॥

नैन चक्र हेरै पिउ पंथा । कया जो कापर सोई कंथा॥

छाला भूमि, गगन सिर छाता । रंग करत रह हिरदय राता॥

मन माला फेरै तँत ओही । पाँचौ भूत भसम तन होहीं॥

कुंडल सोइ सुनु पिउ कथा, पँवरि पाँव पर रेहु।

दंडक गोरा बादलहि, जाइ अधाारी लेहु॥8॥

(1) धारमसार=धार्मशाला, सदावर्त, खैरातखाना। मोख पावहिं=छूटें। जत=जितन। हुँत=थी। जोगि सवाँगी=जोगिन का स्वाँग बनानेवाली। अखारे हुँत=रंगशाला से, नाचघर से। माँगी=बुला भेजा। तंत=तत्तव। कला मनमोहन=मन मोहने की कला में।

(2) राजवार=राजद्वार। बार=द्वार। तन तिरसूल...पीऊ=सारा शरीर ही त्रिाशूलमय हो गया है और अधाारी के स्थान पर प्रिय ही है अर्थात् उसी का सहारा है। पवरी=चट्टी या खड़ाऊँ। भूभुर=धाूप से तपी धाूल या बालू। धाँधाारी=गोरखधांधाा।

(3) छाज न=नहीं सोहाता। खेहा=धाूल, मिट्टी। चहुँ चक्र=पृथ्वी के चारों ओर खूँट में। आहि=है।
 

(4) ओनाउँ=झुकती हूँ, झुककर कान लगाती हूँ। सबद ओनाउँ...खेला=आहट लेने के लिए
कान लगाए रहती हूँ कि प्रिय कहाँ गया। झूरौं=सूखती हूँ। अधाारी=सहारा देनेवाली। पर=पड़ता
है। बाला=नवीन। जगरन=जागरण। दाग=दागा, तप्त मुद्रा ली। तिन्ह=उस प्रिय का। ऑंक=चिद्द, पता। सरगदुवारी=अयोधया में एक स्थान।

(5) गउमुख=गोमुख तीर्थ, गंगोत्तारी का वह स्थान जहाँ से गंगा निकलती है। नगरकोट=नागरकोट, जहाँ देवी का स्थान है। कटि रसना दीन्हिउँ=जीभ काटकर चढ़ाई। बालनाथ कर टीला=पंजाब में सिंध और झेलम के बीच पड़नेवाले नमक के पहाड़ों की एक चोटी। मील=मिला। सुरुजकुंड=अयोधया, हरिद्वार आदि कई तीर्थों में इस नाम के कुंड हैं। बद्री=बदरिकाश्रम में। कै बारू कई बार। अलकपुर=अलकापुरी। ब्रम्हावति=कोई नदी। करसी=करीषाग्नि में, उपलों की आग में। हाँडि फिरिउँ=छान डाला, ढूँढ़ डाला, टटोल डाला।

(6) राज पग लागे=राजा ने प्रणाम किया। न केऊ=पास में कोई न रह जाय। (यह दुख) लेइ गयउ=लेने या भोगने गया। सुखदेऊ=सुख देनेवाला तुम्हारा प्रिय। दिल्ली नावँ=दिल्ली इस नाम से (पृथ्वीराज रासो में किल्ली ढिल्ली कथा है)। सुठि=खूब। कीली=कारागार के द्वार का अर्गल। अबहुँ क्या नहिं जीउ=अब भी मेरे होश ठिकाने नहीं।

(7) माया=मया, दया।

(8) फिरि माँगू=जाओ, और जगह घूमकर माँगो। सवाँग=स्वाँग, नकल, आडंबर। यह बड़...सहना=वियोग का जो सहना है यही बड़ा भारी योग है। जेहुँ=जैसे, ज्यों, जिस प्रकार। तेहुँ=त्यों, उस प्रकार। सिंगी साँसा=लंबी साँस लेने को ही सिंगी फूँकना (बजाना) समझो। गटा=गटरमाला। रहै प्रेम...गटा=जिसमें उलझा हुआ मन है उसी प्रेम को गटरमाला समझो। छाल=मृगछाला। तँत=तंत, तत्व या मंत्रा। पाँचौ भूत...होहीं=शरीर के पंचभूतों को ही रमी हुई भभूत या भस्म समझो। पँवरि पाँच पर रेहु=पाँव पर जो धाूल लगे उसी को खड़ाऊँ समझ। अघारी=अव्े के आकार की लकड़ी जिसे सहारे के लिए साधाु रखते हैं। अधाारी लेहु=सहारा लो।


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