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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम राजा रत्नसेन बैकुंठवास खंड पीछे     आगे

तौ लहि साँस पेट महँअही । जौ लहि दसा जीउ कै रही॥

काल आउ देखराई साँटी । उठि जिउ चला छोड़ि कै माटी॥

काकर लोग,कुटुँब, घर बारू । काकर अरथ दरब संसारू॥

ओही घरी सब भयउपरावा । आपन सोइ जो परसा, खावा॥

अहे जे हितू साथ के नेगी । सबै लाग काढ़ै तेहि बेगी॥

हाथ झारि जस चलै जुवारी । तजा राज, होइ चला भिखारी॥

जब हुत जीउ, रतन सब कहा । भा बिनु जीउ, न कौड़ी लहा॥

गढ़ सौंपा बादल कहँ, गए टिकठि बसि देव।

छोड़ी राम अयोधया, जो भावै सो लेव॥1॥

(1) साँटी=छड़ी। आपन सोइ...खावा=अपना वही हुआ जो खाया और दूसरे को खिलाया। नेगी=पानेवाले। हुत=था। टिकठि=टिकठी, अरथी जिसपर मुरदा ले जाते हैं। देव=राजा। जो भावै सो लेव=जो चाहे सो ले।



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