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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम पदमावती-नागमती-सती खंड पीछे     आगे

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी॥

सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो ससि सो अमावस भई॥

छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥

सेंदुर परा जो सीस उघारा । आगि लागि चह जग ऍंधिायारा॥

वही दिवस हौं चाहति नाहा । चलौं साथ, पिउ! देइ गलबाहाँ॥

सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे॥

नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं॥

दीपक प्रीति पतंग जेउँ, जनम निबाह करेउँ।

नेवछावरि चहुँ पास होइ, कंठ लागि जिउ देउँ॥1॥

नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी॥

दुवौ सवति चढ़ि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी॥

बैठौ कोइ राज ओ पाटा । अंत सबै बैठै पुनि खाटा॥

चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा॥

बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता॥

एक जो बाजा भयउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर निबाहूँ॥

जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा॥

आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़।

आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़॥2॥

सर रचि दानपुन्निबहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा॥

एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं॥

जियत, कंत! तुम हम्ह गर लाई । मुए कंठ नहिं छोड़हिं, साईं!॥

औ जो गाँठि, कंत! तुम्ह जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी॥

यह जग काह जो अछहि न आथी । हम तुम, नाह! दुहूँ जगसाथी॥

लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौढ़ीं दुवौ कंत गर लाई॥

लागीं कंठ आगि देइ होरी । छार भईं जरि, अंग न मोरी॥

रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भयउ रतनार।

जो रे उवा, सो अथवा, रहा न कोइ संसार॥3॥

वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह गढ़ छेंका आई॥

तौलगि सो अवसर होइ बीता । भए अलोप राम औ सीता॥

आइ साह जौ सुना अखारा । होइगा राति दिवस उजियारा॥

छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उड़ाइ, पिरथिमी झूठी॥

सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल बाँधाा जहँ जहँ गढ़ घाटी॥

जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै॥

भा धाावा, भइ जूझ असूझा । बादल आइ पँवरि पर जूझा॥

जौहर भइँ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम।

बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम॥4॥

(1) आगि लागि...ऍंधिायार=काले बालों के बीच लाल सिंदूर मानो यह सूचित करता था कि ऍंधोरे संसार में अब आग लगा चाहती है (पदमावती के सती होने का आभास मिलता है)। छहरावौं=छितराऊँ।

(2) महा सत=सत्य में। तिन्ह दीठि परा=उन्हें दिखाई पड़ा। बैठौ=चाहे बैठे। खाटा=अर्थी, टिकठी। अगूता होइ=आगे होकर। सूता चहहिं=सोना चाहती हैं। बाजा=बाजे से। ओर निबाहू=अंत का निर्वाह। रहसि=प्रसन्न होकर। बूड़=डूबा। हम्ह=हमें, हमारे लिए। जूड़=ठंढी।

(3) सर=चिता। गोहन=साथ। हम्ह गर लाइ=हमें गले लगाया। अंत लहि=अंत तक। अछहि=है। आथी=सार, पूँजी, अस्तित्व। अछहि न आथी=जो स्थिर या सारवान नहीं है। रतनार=लाल, प्रेममय या आभापूर्ण।

(4) सहगवन भईं=पति के साथ सहगमन किया; सती हुईं। तौ लगि...बीता=तब तक वहाँ सब कुछ हो चुका था। अखारा=अखाड़े या सभा में, दरबार में। गढ़ घाटी=गढ़ की खाई। पुल बाँधाा...घाटी=सती स्त्रिायों की एक एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि उससे जगह-जगह खाई पट गई और पुल सा बँधा गया। जौ लहि=जब तक। तिस्ना=तृष्णा। जौहर भइँ=राजपूत प्रथा के अनुसार जल मरीं। संग्राम भए=खेत रहे, लड़कर मरे। चितउर भा इसलाम=चित्ताौरगढ़ में भी मुसलमानी अमलदारी हो गई।


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