एक किताब की तरह स्वयं को खोले और बंद करे पुरुष की मर्जी पर। एक किताब की तरह उसके हर पन्ने पर आँखें तैराता पुरुष जहाँ मन वहाँ रुकता तन्न तन्न कर पढ़ता। विभोर और क्लांत हो, तो हटा देता एक कोने में। खर्राटे भरता तृप्ति में।
हिंदी समय में गायत्रीबाला पंडा की रचनाएँ