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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 18 समान वितरण का रास्ता पीछे     आगे

आर्थिक समानता, अर्थात जगत के पास समान संपत्ति का होना यानी सबके पास इतनी संपत्ति का होना कि जिससे वे अपनी कुदरती आवश्‍यकताएँ पूरी कर सकें। कुदरत ने ही एक आदमी का हजमा अगर नाजुक बनाया हो और वह केवल पाँच ही तोला अन्‍न खा सके, और दूसरे को बीस तोला अन्‍न खाने की आवश्‍यकता ही, तो दोनों को अपनी पाचन-शक्ति के अनुसार अन्‍न मिलना चाहिए। सारे समाज की रचना इस आदर्श के आधार पर होनी चाहिए। अहिंसक समाज का दूसरा आदर्श नहीं रखना चाहिए पूर्ण आदर्श तक हम कभी नहीं पहुँच सकते। मगर उसे नजर में रखकर हम विधान बनावें और व्‍यवस्‍था करें। जिस हद तक हम इस आदर्श को पहूँच सकेंगे उसी हद तक सुख और संतोष प्राप्‍त करेंगे और उसी हद तक सामाजिक अहिंसा सिद्ध हुई कही जा सकेगी।

इस आर्थिक समानता के धर्म का पालन एक अकेला मनुष्‍य भी कर सकता है। दूसरों के साथ की उसे आवश्‍यकता नहीं रहती। अगर एक आदमी इस धर्म का पालन कर सकता हैं, तो जाहिर है कि एक मंडल भी कर सकता है। यह कहने की जरूरत इसीलिए है कि किसी भी धर्म के पालन में जहाँ तक दूसरे उसका पालन न करें वहाँ तक हमें रुके रहने की आवश्‍यकता नहीं। और फिर ध्‍येय की आाखिरी हद तक न पहुँच सके वहाँ तक कुछ त्‍याग न करने की वृत्ति बहुधा लोगों में देखने में आती है। यह भी हमारी गति को रोकती है।

अहिंसा के द्वारा आर्थिक समानता कैसे लाई जा सकती है इसका विचार करें। पहला कदम यह है कि जिसने इस आदर्श को अपनाया हो वह अपने जीवन में आवश्‍यक परिवर्तन करे। हिंदुस्‍तान की गरीब प्रजा के साथ अपनी तुलना करके अपनी आवश्‍यकताएँ कम करे। अपनी धन कमाने की शक्ति को नियंत्रण में रखे। जो धन कमावे उसे ईमानदारी से कमाने का निश्‍चय करे। सट्टे की वृत्ति हो तो उसका त्‍याग करे। घर भी अपनी सामान्‍य आवश्‍यकता पूरी करने लायक ही रखे और जीवन को हर तरह से संयमी बनावे। अपने जीवन में संभव सुधार कर लेने के बाद अपने मिलने-जुलने वालों और अपने पड़ोसियों में आर्थिक समानता की जड़ में धनिक का ट्रस्‍टीपन निहित है। इस आदर्श के अनुसार धनिक को अपने पड़ो‍सी से एक कौड़ी भी ज्‍यादा रखन का अधिकार नहीं। तब उसके पास जो ज्‍यादा है, क्‍या वह उससे छीन लिया जाएᣛ? ऐसा करने के लिए हिंसा का आश्रय लेना पड़ेगा। और हिंसा के द्वारा ऐसा करना संभव हो, तो भी समाज को उससे कुछ फायदा होने वाला नहीं है। क्‍योंकि द्रव्‍य इकट्ठा करने की शक्ति रखने वाले एक आदमी की शक्ति को समाज खो बैठेगा। इसलिए अहिंसक मार्ग यह हुआ कि जितनी मान्‍य हो सकें उतनी अपनी आवश्‍यकताएँ पूरी करने के बाद जो पैसा बाकी बचे उसका वह पजा की ओर से ट्रस्‍टी बन जाए। अगर वह प्रामाणिकता से संरक्षक बनेगा तो जो पैसा पैदा करेगा उसका सद्व्‍यय भी करेगा। जब मनुष्‍य अपने-आपको समाज का सेवक मानेगा, समाज के खातिर धन कमावेगा, समाज के कल्‍याण के लिए उसे खर्च करेगा, तब उसकी कमाई में शुद्धता आएगी। उसके साहस में भी अहिंसा होगी। इस प्रकार की कार्य-प्रणाली का आयोजन किया जाए, तो समाज बगैर संघर्ष के मूक क्रांति पैदा हो सकती है।

इस प्रकार मनुष्‍य-स्‍वभाव में परिवर्तन होने का उल्‍लेख इतिहास में कहीं देखा गया है? ऐसा प्रश्‍न हो सकता है। व्‍यक्तियों में तो ऐसा हुआ ही है। बड़े पैमाने पर समाज में परिवर्तन हुआ है, यह शायद सिद्ध न किया जा सके। इसका अर्थ इतना ही है कि व्‍यापक अहिंसा का प्रयोग आज तक नहीं किया गया। हम लोगों के हृदय में इस झूठी मान्‍यता ने घर कर लिया है कि अहिंसा व्‍यक्तिगत रूप से ही विकसित की जा सकती है और वह व्‍यक्ति तक ही मर्यादित है। दरअसल बात ऐसी है नही। अहिंसा सामाजिक धर्म है, सामाजिक धर्म के तौर पर वह विकसित किया जा सकता है, यह मनवाने का मेरा प्रयत्‍न और प्रयोग है। यह नई चीज है इसलिए इसे झूठ समझकर फेंक देने की बात इस यूग में तो कोई नहीं कहेगा। क्‍योंकि बहुत-सी चीजें अपनी आँखों के सामने नई-पुरानी होती हमने देखी हैं। मेरी यह मान्‍यता है कि अहिंसा के क्षेत्र में इससे बहुत ज्‍यादा साहस शक्‍य है, और विविध धर्मों के इतिहास इस बात के प्रमाणों से भरे पड़े हैं। समाज में से धर्म को निकालकर फेंक देने का प्रयत्‍न बाँझ के घर पुत्र पैदा करने जितना ही निष्‍फल है; और अगर कहीं सफल हो जाए तो समाज का उसमें नाश है। धर्म के रूपांतर हो सकते हैं। उसमें निहित प्रत्‍यक्ष वहम, सड़न और अपूर्णताएँ दूर हो सकती हैं, हुई हैं और होती रहेंगी। मगर धर्म तो जहाँ तक जगत है वहाँ तक चलता ही रहेगा, क्‍योंकि एक धर्म ही जगत का आधार है। धर्म की अंतिम व्‍याख्‍या है ईश्‍वर का कानून। ईश्‍वर और इसका कानून अलग-अलग चीजें नही हैं। ईश्‍वर अर्थात अचलित, जीता-जागता कानून। उसका पार कोई नहीं पा सकता। मगर अवतारों ने और पैगंबरों ने तपस्‍या करके उसके कानून की कुछ-न-कुछ झाँकी जगत को कराई है।

किंतु महाप्रयत्‍न करने पर भी धनिक संरक्षक न बनें, और भूखों मरते हुए करोड़ों को अहिंसा के नाम से और अधिक कुचलते जाए तब क्‍या करेंᣛ? इस प्रश्‍न का उत्‍तर ढूँढने में ही अहिंसक कानून-भंग प्राप्‍त हुआ। कोई धनवान गरीबो के सहयोग के बिना धन नहीं कमा सकता। मनुष्‍य को अपनी हिंसक शक्ति का भान है, क्‍योंकि वह उसे लाखों वर्षों से विरासत में मिली हुई है। जब उसे चार पैर की जगह दो पैर और दो हाथ वाले प्राणी का आकार मिला, तब उससे अहिंसक शक्ति भी आई। अहिंसा-शक्ति का भान भी धीरे-धीरे, किंतु अचूक रीति से रोज-रोज बढ़ने लगा। वह भान गरीबों में प्रसार पा जाए,तो वे बलवान बनें और आर्थिक असमानता को, जिसके कि वे शिकार बने हुए हैं, अहिंसक तरीके से दूर करना सीख लें।

भारत की जरूरत यह नहीं हे कि चंद लोगों के हाथों में बहुत सारी पूँज इकट्ठी हो जाए। पूँजी का ऐसा वितरण होना चाहिए कि वह इस 1900 मील लंबे और 1500 मील चौड़े विशाल देश को बनाने वाले साढ़े-सात लाख गाँवों को आसानी से उपलब्‍ध हो सके।


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