हमारी मिलें अभी इतना सूत पैदा नहीं कर सकतीं कि कपड़े की हमारी सारी जरूरत उनसे पूरी हो जाए, और यदि वे करती होती, तो भी जब तक उन्हें बाध्य न किया जाता वे कीमत कम करने के लिए तैयार न होतीं। उनका उद्देश्य जाहिर तौर पर पैसे कमाना है और इसलिए यह तो हो नहीं सकता कि वे राष्ट्र की आवश्यकताओं का खयाल करके अपनी कीमतों का नियमन करें। अत: हाथ-कताई ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा गरीब देहातियों के हाथों मे करोड़ों रुपए रखे जा सकते है। हर एक कृषि-प्रधान देश को ऐसे एक पूरक उद्योग की जरूरत होती है, जिससे किसान अपने अवकाश के समय का उपयोग कर सकें। भारत में यह पूरक उद्योग हमेशा कताई रहा है। जिस उद्योग के नाश के फलस्वरूप गुलामी और गरीबी आई और उस अनुपम कला-प्रतिभा का लोप ही गया, जो किसी समय चमत्कार पूर्ण भारतीय वस्त्रों में दिखाई देती थी और जो दुनिया की ईर्ष्या का विषय बन गई थी, उस प्राचीन उद्योग को पुनर्जीवित करने के प्रयत्न को क्या स्वप्न-सेवियों का आदर्श कहा जा सकता हैᣛ?
आम तौर पर यह दावा जरूर किया जा सकता है कि बड़ा मिल-उद्योग हिंदुस्तानी उद्योग है। पर जापान और लंकाशायर के साथ टक्कर लेने की शक्ति होते हुए भी यह उद्योग जितने अंशों मे खादी के ऊपर विजय प्राप्त करता है, उतने ही अंशो में जन-साधरण का शोषण खड़े कर देने की इस जमाने की धुन में मेरे इस विचार को यद्यपि बिलकुल ठुकरा नहीं दिया गया है, तो भी इसके विषय में कुछ लोगों ने शंका तो उठाई ही हे। इसके विरोध में यह कहा गया है कि यांत्रिक उद्योगों की प्रगति के कारण जन-साधारण की दरिद्रता जो बढ़ती जाती है वह अनिवार्य है, और इसलिए उसको सहना करना ही चाहिए। इस अनिष्ट को सहन करता तो दूर, मैं तो यह भी नहीं मानता कि वह अनिवार्य है। अखिल भारत चरखा-संघ ने सफलतापूर्वक यह बता दिया है कि लोगों के फुरसत के समय का उपयोग अगर कातने और उसके पूर्व की क्रियाओं में किया जाए, तो इतने से ही गाँवों में हिंदुस्तान की जरूरत के लायक कपड़ा पैदा हो सकता है। कठिनाई तो जनता से मिल का कपड़ा छुड़वाने में है।
मिल-मालिक कुछ परोपकारी तो हैं नहीं कि वे हाथ-करघे के बुनकरों को तब भी सूत देते रहेंगे जब ये उनके साथ उन्हें नुकसान पहुँचाने वाली प्रतिस्पर्धा करने लगेंगे।
ज्यों ही मिल-मालिकों को ऐसा लगेगा कि सूत बेचने के बजाय बुनने में ज्यादा लाभ हैं, त्यों ही वे उसे बेचना बंद कर देंगे और बुनना शुरू कर देंगे। वे कोई परोपकारी नहीं है। उन्होंने मिलें पैसा कमाने के लिए ही खड़ी की हे। यदि वे देखेंगे कि सूत बुनने में ज्यादा लाभ है, तो वे उसे हाथ-करघ के बुनकरों को बेचना बंद कर देंगे।
मिल के सूत का उपयोग हाथ-करघा उद्योग के मार्ग की एक घातक बाधा है। उसकी मुक्ति हाथ-कताई के सूत का उपयोग करने में ही है। अगर चरखा असफल रहा और मिट गया, तो हाथ-करघे का नाश भी निश्चित ही है।
मैं अनेक कंपनियों के संघबद्ध होकर काम करने या बड़े-बड़े यंत्रों का उपयोग करके उद्योगों का केंद्रीकरण करने के खिलाफ हूँ। अगर भारत खादी को और खादी के फलितार्थों को अपनाएँ, तो मैं ऐसी आशा करता हूँ कि भारत आधुनिक यंत्रों में से केवल उतनों का ही उपयोग करेगा, जो जीवन की सुख-सुविधा बढ़ाने और श्रम की बचत के लिए आवश्यक माने जाए।
चंद लोगों के हाथ में धन और सत्ता का केंद्रीकरण करने के लिए यंत्रों के सघटन को मैं बिलकुल गलत समझता हूँ। आजकल यंत्रों की अधिकांश योजनाओं का यही उद्देश्य होता है। चरखे का आंदोलन यंत्रों द्वारा होने वाला शोषण और धन तथा सत्ता का यह केंद्रीकरण रोकने के लिए किया जा रहा संघटित प्रयत्न है। इसलिए मेरी योजना में यंत्रों के अधिकारी अपने लाभ की या अपने देश के उदाहरण के लिए, लंकाशायर के लोग अपने यंत्रो का उपयोग भारत के या दूसरे देशों के शोषण के लिए नहीं करेंगे; उलटे वे ऐसे साधन ढूढ़ेंगे जिनसे भारत अपने कपास को अपने गाँवों में ही कपड़े का रूप देने में समर्थ हो जाए। इसी तरह मेरी योजना में अमेरिका के लोग भी अपनी आविष्कारक प्रतिभा के द्वारा दुनिया की दूसरी जातियों का शोषण करने की कोशिश नहीं करेंगे।