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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 56 संतति-नियमन पीछे     आगे

संतति के जन्‍म की आवश्‍यकता के बारे में दो मत हो ही नहीं सकते। परंतु इसका एकमात्र उपाय है आत्‍म-संयम या ब्रह्मचर्य, जो कि युगों से हमें प्राप्‍त है। यह रामबाण और सर्वोपरि उपाय है, और जो इसका सेवन करते हैं उन्‍हें लाभ-ही-लाभ होता है। डॉक्‍टर लोगों का मानव-जाति पर बड़ा उपकार होगा, यदि वे संतति-नियमन के लिए कृत्रिम साधनों की तजवीज करने के बजाय आत्‍म-संयम के साधन निर्माण करें।

कृत्रिम साधनों की सलाह देना मानों बुराई का हौसला बढ़ाना है। उससे पुरुष और स्‍त्री दोनों उच्‍छृंखल हो जाते है। और इन कृत्रिम साधनों को जो प्रतिष्‍ठा दी जा रही हैं, उससे उस संयम के ह्रास की गति बढ़े बिना न रहेगी, जो कि लोकमत के कारण हम पर रहता है। कृत्रिम साधनों के अवलंबन का कुफल होगा नपुंसकता और क्षीणवीर्यता। यह दवा रोग से भी ज्‍यादा बदतर साबित हुए बिना न रहेगी।

अपने कर्म के फल को भोगने से दुम दबाना दोष है, अनीतिपूर्ण है। जो शख्‍स जरूरत से ज्‍यादा खा लेता है, उसके लिए यही अच्‍छा है कि उसके पेट में दर्द हो और उसे लाँघन करना पड़े। जबान को काबू में रखकर अनाप-शनाप खा लेना और फिर बलवर्धक या दूसरी दवाइयाँ खकर उसके नतीजे से बचना बुरा है। पशु की तरह विषय-भोग में गर्क रहकर अपने इस कृत्‍य के फल से बचना और भी बुरा है। प्रकृति बड़ी कठोर शासक है। वह अपने कानून-भंग का पूरा बदला बिना आगा-पीछा देखे चुकाती है। लेकिन नैतिक संयम के द्वारा ही हमें नैतिक फल मिल सकता है। संयम के दूसरे तमाम साधन अपने हेतु के ही विनाशक सिद्ध होंगे।

विषय-भोग करते हुए भी कृत्रिम उपायों के द्वारा प्रजोत्‍पति रोकने की प्रथा पुरानी है। मगर पूर्वकाल में वह गुप्‍तरूप से चलती थी। आधुनिक सभ्‍यता के इस जमाने में उसे ऊँचा स्‍थान मिल गया है, और कृत्रिम उपायों की रचना भी व्‍यवस्थित तरीके से की गई है। इस प्रथा को परमार्थ का जामा पहनाया गया है। इन उपायों के हिमायती कहते हैं कि भोगेच्‍छा स्‍वाभाविक वस्‍तु है, शायद उसे ईश्‍वर का वरदान भी कहा जा सकता है। उसे निकाल फेंकना अशक्‍य है। उस पर संयम का अंकुश रखना कठिन है। और अगर संयम के सिवा दूसरा कोई उपाय न ढूँढ़ा जाए, तो असंख्‍य स्त्रियों के लिए प्रजोत्‍पत्ति बोझ रूप हो जाएगी; और भोग से उत्‍पन्‍न होने वाली प्रजा इतनी बढ़ जाएगी कि मनुष्‍य-जाति के लिए पूरी खुराक ही नहीं मिल सकेगी। इन दो आपत्तियों को रोकने के लिए कृत्रिम उपायों की योजना करना मनुष्‍य का धर्म हो जाता है।

मुझ पर इस दलील का असर नहीं हुआ है। क्‍योंकि इन उपायों के द्वारा मनुष्‍य अनेक दूसरी मुसीबतें मोल लेता है। मगर सबसे बड़ा नुकसान तो यह है कि कृत्रिम उपायों के प्रचार से संयम-धर्म का लोप हो जाने का भय पैदा होगा। इस रत्‍न को बेचकर चाहे जैसा तात्‍कालिक लाभ मिले, तो भी यह सौदा करने योग्‍य नहीं है। ... कठिनाई आत्‍म-वंचन से पैदा होती है। इसमें त्‍याग का आरंभ विचार-शुद्धि से नहीं होती, केवल बाह्याचार की रोकने के निष्‍फल प्रयत्‍न से होता है। विचार की दृढ़ता के साथ आचार का संयम शुरू हो, तो सफलता मिले बिना रह ही नहीं सकती। स्‍त्री-पुरुष की जोड़ी विषय-सेवन के लिए ह‍रगिज नहीं बनी है।

मुझे मालूम है कि गुप्‍त पाप से पाठशाला के लड़के-लड़कियों का कैसा भयंकर विनाश किया है। विज्ञान के नाम पर कृत्रिम साधनों के प्रचलित होने और समाज के प्रसिद्ध नेताओं की उस पर मुहर लग जाने के समस्‍या और बढ़ गई है; और जो सुधारक सा‍माजिक जीवन की शुद्धि का काम करते हैं, उनका कार्य आज असंभव-सा हो गया है। मैं पाठकों को यह सूचना देते हूए कोई विश्‍वासघात नहीं कर रहा हूँ कि ऐसी कुँवारी लड़कियाँ है, जिन पर आसानी से किसी भी बात का प्रभाव पड़ सकता है और जो स्‍कूल-कॉलेजों में पढ़ती हैं, परंतु जो बड़ी उत्‍सुकता से संतति-निग्रह के साहित्‍य और पत्रिकाओं का अध्‍ययन करती है और जिनके पास उसके साधन भी मौजूद हैं। इन साधनों के प्रयोग को विवाहित स्त्रियों तक सीमित रखना असंभव है। जब विवाह के उद्देश्‍य और उच्‍च्‍तम उपयोग की कल्‍पना ही पाशविक विकार की तृप्ति हो और यह विचार तक न किया जाए कि इस प्रकार की तृप्ति का कुदरती नतीजा क्‍या होगा, तब विवाह की सारी पवित्रता नष्‍ट हो जाती है।

मुझे इसमें जरा भी शक नहीं कि जो विद्वान पुरुष और स्त्रियाँ मिशनरी उत्‍साह के साथ कृत्रिम साधनों के पक्ष में आंदोलन कर रहे हैं, वे देश युवकों की अपार हानि कर रहे हैं। उनका यह विश्‍वास झूठा है कि ऐसा करके वे उन गरीब स्त्रियों का संकट से बचा लेंगे, जिन्‍हें अपनी इच्‍छा के विरुद्ध मजबूरन बच्‍चे पैदा करने पड़ते हैं। जिन्‍हें बच्‍चों की संख्‍या मर्यादित करने की जरूरत है, उनके पास तो इनकी आसानी से पहुँच नहीं होगी। हमारी गरीब औरतों के पास न तो वह ज्ञान होता है और न वह तालीम होती है, जो पश्चिम की स्त्रियों के पास होती हे। अवश्‍य ही यह आंदोलन मध्‍यम श्रेणी की स्त्रियों की तरफ से नहीं किया जा रहा है, क्‍योंकि उन्‍हें इस ज्ञान की उतनी जरूरत नहीं है जितनी निर्धन वर्गों की स्त्रियों को है।

परंतु सबसे बड़ी हानि, जो यह आंदोलन कर रहा है, यह है कि पुराना आदर्श छोड़कर यह उसके स्‍थान पर एक ऐसा आदर्श स्‍थापित कर रहा है, जिस पर अमल हुआ तो मानव-जाति का नैतिक और शारीरिक विनाश निश्चित है। वीर्य के व्‍यर्थ व्‍यय को प्राचीन साहित्‍य में जो इतना भयंकर कृत्‍य माना गया है, वह कोई अज्ञानजन्‍य अंधविश्‍वास नहीं था। कोई किसान अगर अपने पास का बढ़िया-से-बढ़िया बीज पथरीली जमीन में बोए या कोई खेत का मालिक बढ़िया जमीन वालें अपने खेत में ऐसी परिस्थितियों में अच्‍छा बीज डाले जिनमें उसका उगना असंभव हो, तो उसके लिए क्‍या कहा जाएगाᣛ? भगवान ने पुरुष को ऊँची-से-ऊँची शक्ति वाला बीज प्रदान किया है और स्‍त्री को ऐसा खेत दिया है जिसके बराबर उपजाऊ धरती इस दुनिया में और कहीं नहीं है। अवश्‍य ही पुरुष की यह भंयकर मूर्खता है कि वह अपनी इस सबसे कीमती संपत्ति को व्‍यर्थ जाने देता है। उसे अपने अत्यंत मूल्‍यवान जवाहरात और मातियों से भी अधिक सावधानी के साथ इसकी रक्षा करनी चाहिए। इसी तरह वह स्‍त्री भी अक्षम्‍य मूर्खता करती है, जो अपने जीवोत्‍पादन क्षेत्र में बीज को नष्‍ट होने देने के इरादे से ही ग्रहण करती है। वे दोनों ईश्‍वर-प्रदत्‍त प्रतिभा के दुरुपयोग के अपराधी माने जाएँगे और जो चीज उन्‍हें दी गई है वह उनसे छीन ली जाएगी। काम की प्रेरणा एक सुंदर और उदात्‍त वस्‍तु है। उसमें लज्जित होने की कोई बात नहीं है। परंतु वह संतानोत्‍पत्ति के लिए ही बनाई गई है। उसका और कोई उपयोग करना ईश्‍वर और मानवता दोनों के प्रति पाप है। संतति-निग्रह के कृत्रिम साधन पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। परंतु पहले उन्‍हें काम में लेना पाप समझा जाता था। पाप को पुण्‍य कहकर उसका गौरव बढ़ाना हमारी पीढ़ी के ही भाग्‍य में बदा है। मेरे खयाल से कृत्रिम साधनों के हिमायती भारत के युवकों की सबसे बड़ी सेवा यह कर रहे हैं कि उनके दिमागों में वे गलत विचारधारा भर रहे हैं। भारत के युवा स्‍त्री-पुरुषों को, जिनके हाथ में देश का भाग्‍य है, इस झूठे देवता से सावधान रहना चाहिए, ईश्‍वर ने उन्‍हें जो खजाना दिया है उसकी रक्षा करनी चाहिए और इच्‍छा हो तो उसका उसी काम में उपयोग करना चाहिए जिसके लिए वह बनाया गया है।

मैं यह नहीं मानता कि स्‍त्री काम-विकार की उतनी ही शिकार बनती है जितना पुरुष। पुरुष के बनिस्‍बत स्‍त्री के लिए आत्‍म-संयम पालना ज्‍यादा आसान होता है। मैं मानता हूँ कि इस देश में स्‍त्री को दी जाने लायक सही शिक्षा वह होगी कि उसे अपने पति को भी 'नहीं' कहने की कला सिखाई जाए; उसे यह सिखाया जाए कि पति के हाथों में केवल विषय-भोग का साधन या गुड़िया बनकर रहना उसका कर्त्‍तव्‍य बिलकुल नहीं है। यदि स्‍त्री के कर्त्‍तव्‍य हैं तो उसके अधिकार भी है।

पहली बात है उसे मानसिक गुलामी से मुक्‍त करना उसे अपने शरीर को पवित्र मानने की शिक्षा देना और राष्‍ट्र तथा मानव-जाति की सेवा की प्रतिष्‍ठा और गौरव सिखाना। यह मान लेना अनुचित होगा कि भारत की स्त्रियाँ इस गुलामी से कभी छूट नहीं सकतीं और इसलिए प्रजोत्‍पत्ति को रोकने तथा अपनी बची-खुची तंदुरुस्‍ती की रखा करने के लिए उन्‍हें कृत्रिम साधनों का उपयोग सिखाने के सिवा दुसरा कोई रास्‍ता नहीं है।

जिन बहनों का पुण्‍य-प्रकोप ऐसी स्त्रियों के कष्‍टों को देखकर, जिन्‍हें इच्‍छा या अनिच्‍छा से बच्‍चे पैदा करने पड़ते हैं-जाग्रत हुआ है, वे उतावली न बनें। कृत्रिम साधनों के पक्ष में किया जाने वाला प्रचार भी वांछित हेतु को एक दिन में सिद्ध नहीं कर देगा। हर पद्धति के लिए लोगों को शिक्षा देना जरूरी होगा। मेरा कहना इतना ही है कि यह शिक्षा सही रास्‍ते ले जाने वाली होनी चाहिए।

बन्‍ध्‍यीकरण

लोगों पर बध्‍यीकरण (वह क्रिया जिससे पुरुष के वीर्य में निहित प्रजनन-शक्ति का नाश कर दिया जाता है) का कनून लादने को मैं अमानुषिक मानता हूँ। परंतु जो व्‍यक्ति पुराने रोगों के मरीज हों, वे यदि स्‍वीकार कर लें तो उनका बध्‍यीकरण वांछनीय होगा। बन्‍ध्‍यीकण एक प्रकार का कृत्रिम साधन है। य‍द्यपि मैं स्त्रियों के संबंध में कृत्रिम साधनों के उपयोग के खिलाफ हूँ, फिर भी मैं पुरुष के संबंध में स्‍वेच्‍छा से किए जाने वाले बन्‍ध्‍यीकरण के खिलाफ नहीं हूँ, क्‍योंकि पुरुष आक्रमक है।

अधिक जनसंख्‍या का हौवा

यदि यह कहा जाए कि जनसंख्‍या की अतिवृद्धि के कारण कृत्रिम साधनों द्वारा संतति-नियमन की राष्‍ट्र के लिए आवश्‍यकता है, तो मुझे इस बात में पूरा शक है। यह बात अब तक‍ साबित ही नहीं की गई है। मेरी राय में तो यदि जमीन-संबंधी कानूनों में समुचित सुधार कर दिया जाए, खेती की दशा सुधारी जाए और एक सहायक धंधे की तजवीज कर दी जाए, तो हमारा यह देश अपनी जनसंख्‍या से दूने लोगों का भरण-पोषण कर सकता है।

हमारा यह छोटा-सा पृथ्‍वी-मंडल कुछ समय का बना हुआ खिलौना नहीं है। अनगिनत युगों से यह ऐसा ही चला आ रहा है। जनसंख्‍या की वृद्धि के भार से उसने कभी कष्‍ट का अनुभव नहीं किया। तब कुछ लोगों के मन में एकाएक इस सत्‍य का उदय नहीं से हो गया कि यदि संतति-नियमन के कृत्रिम साधनों से जनसंख्‍या की वृद्धि को रोका न गया, ता अन्‍न न मिलने से पृथ्‍वी-मंडल का नाश हो जाएगाᣛ?

बढ़ती हुई जनसंख्‍या का हौवा कोई नई चीज नहीं है। अक्‍सर वह हमारे सामने खड़ा किया गया है। जनसंख्‍या की वृद्धि कोई टालने लायक संकट नहीं है; न होना चाहिए। उसे कृत्रिम उपायों से रोकना एक महान संकट है, फिर चाहे हम उसे जानते हों, या न जानते हों। अगर कृत्रिम उपायों का उपयोग आम तौर पर होने लगें, तो वह समूचे राष्‍ट्र को पतन की ओर ले जाएगा। खुशी इस बात की है कि इसकी कोई संभावना नहीं है। एक ओर हम विषय-भोग से पैदा होने वाली अनचाही संतति का पाप अपने सिर ओढ़ते हैं, और दूसरी ओर ईश्‍वर उस पाप को मिटाने के लिए हमें अनाज की तंगी, महामारी और लड़ाई के जरिए सजा करता है। अगर इस तिहरे शाप से बचना हो, तो संयम-रूपी कारगर उपाय के जरिए अनचाही संतति को रोकना चाहिए। देखने वालों को आज भी यह दिखाई पड़ता है कि कृत्रिम उपायों के कैसे बुरे नतीजे होते हैं। नीति की चर्चा में पड़े बिना मैं यही कहा चाहता हूँ कि कुत्‍ते-बिल्‍ली की तरह होने वाली इस संतान-वृद्धि को जरूर रोकना चाहिए। लेकिन इस बात का खयाल रखना होगा कि ऐसा करने से उसका ज्‍यादा बुरा नतीजा न निकले। इस बढ़ती हुई प्रजोत्‍पत्ति को ऐसे उपायों से रोकना चाहिए जिनसे जनता ऊपर उठें; यानी इसके लिए जनता को उसके जीवन से संबंध रखने वाली तालीम मिलनी चाहिए, जिससे एक शाप के मिटते ही दूसरे सब शाप अपने-आप मिट जाएँ। यह सोचकर कि रास्‍ता पहाड़ी है और उसमें चढ़ाइयाँ हैं, हमें उससे दूर नही भागना चाहिए। मनुष्‍य की प्रगति का मार्ग कठिनाइयों से भरा पड़ा हैं। उनसे डरना क्‍या ? उनका तो स्‍वागत करना चाहिए।


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