समाचार-पत्र सेवाभाव से ही चलाने चाहिए। समाचार-पत्र एक जबरदस्त शक्ति है; किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव-के-गाँव डुबों देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार निरंकुश कलम का प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि ऐसा अंकुश बाहर से भी अधिक विषैली सिद्ध होता है। अंकुश अंदर का ही लाभदायक हो सकता। यदि यह विचारधारा सच हो, तो दुनिया के कितने समाचार-पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते है? लेकिन निकम्मों को बंद कौन करे? किसे निकम्मा समझेᣛ? उपयोगी और निकम्मे दोनों-भलाई और बुराई की तरह-साथ-साथ ही चलते रहेंगे। उनमें से मनुष्य को अपना चुनाव करना होगा।
आधुनिक पत्रकार-कला में गहराई का अभाव, विषय का कोई एक ही पक्ष पेश करना, तथ्योंके वर्णन में भूले और अक्सर बेईमानी आदि जो दोष आ गए हैं,वे उन ईमानदार व्यक्तियों को लगातार गुमराह करते हैं, जो शुद्ध न्याय होते देखना चाहते हैं।
मेरे सामने विविध पत्रों के ऐसे उद्धारण हैं, जिनमें बहुत-सी अपात्तिजनक बातें हैं। उनमें सांप्रदायिक भावनाओं को उभाड़ने की कोशिश है, हकीकतों को अत्यंत गलत ढँग से पेश किया गया है और हत्या की हद तक राजनीतिक हिंसा को उत्तेजना दी गई है। सरकार चाहे तो ऐसे लेखों के खिलाफ मुकदमें चला सकती है या उन्हें रोकने के लिए दमनकारी कानून पास कर सकते है। लेकिन इस उपायों से अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धि या तो होती नहीं या बहुत अस्थायी तौर पर होती है। और उन लखकों का मानस-परिवर्तनो इनसे कभी नहीं होता। कारण, जब उन्हें अपनी बात के प्रचार के लिए समाचार-पत्रों का सबके लिए खुला हुआ स्थान नहीं मिलता, तो वे अक्सर गुप्त प्रचार का आश्रय लेते हैं।
इस बुराई का सच्चा इलाज तो ऐसे स्वस्थ लोकमत का निर्माण है, जो इस किस्म के जहरीले पत्रों को आश्रय देने से इनकार कर दे। हमारा पत्रकारों का अपना संघ है। इस संघ को अपना एक ऐसा विभाग क्यों नहीं खोलना चाहिए, जो सब पत्रों को ध्यान से पढ़े, आपत्तिजनक लेखों को ढूँढ़ निकाले और उन्हें उन पत्रों के संपादकों की नजर में लाएᣛ? इस विभाग का कार्य अपराधी पत्रों से संपर्क स्थापित करने तक और जहाँ अभीष्ट सुधार इस संपर्क से सिद्ध न किया जा सके, वहाँ उन आपत्तिजन लेखों की सार्वजनिक आलोचना करने तक सीमित रहे। समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता ऐसा कीमती अधिकार है, जिसे कोई भी देश छोड़ना नहीं चाहेगा। लेकिन इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए मामूली प्रकार की कानूनी रोक के सिवा कोई दूसरी कानूनी रोक न हो, तो मैंने जैसी आंतरिक रोक सुझाई है वैसी आंतरिक रोक असंभव नहीं होनी चाहिए। और वह लगाई जाए तब उसका विरोध नहीं होना चाहिए।
मैं अवश्य ही यह मानता हूँ कि अनीति से भरे हुए विज्ञापनों की मदद से समाचार-पत्रों को चलाना उचित नहीं है। में यह भी मानता हूँ कि विज्ञापन यदि लेने ही हों तो उन पर समाचार-पत्रों के मालिकों और संपादकों की तरफ से बड़ी सख्त चौकीदारी होना आवश्यक है और केवल शुद्ध और पवित्र विज्ञापन ही लिए जाने चाहिए। ... आज अच्छे प्रतिष्ठिता गिने जाने वाले समाचार-पत्रों और मासिकों पर भी यह दुषित विज्ञापनों का अनिष्ट हावी हो रहा है। यह अनिष्ट तो सामाचा-पत्रों के मालिकों और संपादकों की विवेक-बुद्धि को शुद्ध करके ही दूर किया जा सकता है। मेरे जैसे नौसिखुवे संपादक के प्रभाव से यह शुद्धि नहीं हो सकती। लेकिन जब उनकी विवेक-बुद्धि इस बढ़ने वाला और राष्ट्र के प्रति जाग्रत होगी, अथवा जब राष्ट्र की शुद्धि प्रतिनिधित्व करने वाला और राष्ट्र की नैतिकता पर सदा ध्यान रखने वाला राज्यतंत्र उस विवेक-बुद्धि को जाग्रत करेगा तभी हो सकेगी।
मेरा आग्रह है कि विज्ञापनों में सत्य का यथेष्ट ध्यान रखा जाना चाहिए। हमारे लोगों की एक आदत यह है कि वे पुस्तक या अखबर में छपे हुए शब्दों को शास्त्र-वचनों की तरह सत्य मान लेते हैं। इसलिए विज्ञापनों की सामग्री तैयार करने में अत्यंत सावधानी बरतने की जरूरत है। झूठी बातें बहुत खतरनाक होती है।