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कविता

तुम क्यों नहीं धारण कर लेते

महेश चंद्र पुनेठा


त्याग
समर्पण
लज्जा
सेवा
कोमलता
मितभाषिता...
...
माना कि
गहने हैं ये बहुत सुंदर
लगा देते हैं चार चाँद व्यक्तित्व में

तब खुद ही
क्यों नहीं धारण कर लेते हो तुम इन्हें
क्या तुम्हें चाह नहीं सुंदर दिखने की ?

तुम क्यों चाहते हो
कि ये सारे गहने वही धारण करे तुम्हारे लिए
तुम क्यों नहीं कर सकते हो ऐसा उसके लिए

सदियों से
इन गहनों के बोझ से दबी वह
सीधे खड़ी नहीं हो पा रही है
सामने तुम्हारे
तुम तारीफ करते रहे इन गहनों की
वह इसे अपनी तारीफ समझ
खुश होती रही
फिर क्या था
वह खुद को भी भूल गई
अपने प्राण देकर भी
इन गहनों की रक्षा में लग गई
तुम सदियों से उसकी इस अदा को
देवी-रूप में महिमामंडित करते रहे
और वह
इस झूठ को सच मानती रही।

 


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