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कविता

वंदना

रुनु महांति

अनुवाद - शंकरलाल पुरोहित


आज वंदना करनी है

इस रात की।

आज की रात और लौटेगी कल ?

होंठ से होंठ मिलाऊँगी

वन-बेर खिला दूँगी

फूस की झोंपड़ी में घर करूँगी

और जटा रँग दूँगी मयूर पंख में।

लहरों पर खेलूँगी

रँगोली आँकूँगी पानी पर।

आज वंदना करनी है हर पेड़ की,

हर पात, फूल, मेघ की।

साथी धू-धू पवन, और सागर लहरों की

या करूँगी चाँदनी रात की।

गूँथ रखूँगी स्मृति को।

आगे बढ़ा लूँगी आनंद को।

आज वरणमाला पहना देनी होगी

मेरे मीत को।

सूर्यास्त के बाद जिसने मुझे भेंट दिया है आलोक।

सहस्र देवताओं के नाम मैं कभी न लूँगी।

केवल रटती रहूँगी

प्रेमिक ! प्रेमिक !


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