वर्षा होने पर चढ़ना किसी के बरामदे में
झड़ में जैसे किवाड़ खिड़की बंद करना
आओ सम्हाल लें दबाब को।
देह से झाड़ लें धूल,
साफ कर लें काँच की किरचों को।
पिंजरे में बंद पक्षी, पंछी नहीं
जो नहीं उड़ सके आकाश में।
मैं क्या नहीं जानती ?
नंगा होना कितना असम्मान ?
अगर साड़ी में लगी आग
फेंकें या नहीं फेंकें ?
जीवन में दुख तो हैं गाड़ी भर
कूड़े की तरह
तीन भाग दबाए बैठा घर।
सब क्या दिखा सकती ?
मैं पाँव से छाती तक डूबी हूँ पानी में।
अब हम क्या करें ?
सीढ़ी चढ़ें या कुआँ में उतरें ?
पागल का कांड करना ?
पहाड़ को तोड़ना ?
भूतनी होना ?
मंडल में बैठना, मधु चूसना ?
या रूमाल उड़ाते चलें राज रास्ते पर ?
जितना गुणा करें, गुणनफल हमारी आत्मीयता।
खो जाएँ क्या ? पवन की तरह फूल में।
मीत रे ! प्राण पोखर न बने
सागर में अधिक पानी तो
सच कितनी अधिक लहरें !
प्रेमिका की जन्मकुंडली तो अलग
ताकि पहचानें मंदिर को,
हों चक्र, कलश और पताका।
बड़ी बात
व्यवस्था के बीच रह
एक हो सकेंगे रसिक।