चमकता है आसमान में अप्सराओं सा
दिव्य रूहों का सौंदर्य अलौकिक सा
केशों का मोहपाश है उसका मेघवृंद सा
बिखरे या नागिन सी वेणियों में गुंफित सा
तुम लावण्यमयी रति रूपा हो रोजलीन
उसकी आँखें जैसे बर्फ में जड़े हीरे
स्वर्ग का प्रवेशद्वार हैं उसकी गहरी पलकें
आँखों में जब दहकते हैं प्रेम के स्फुल्लिंग
हतप्रभ रह जाते हैं समूह देवताओं के
क्या तुम सचमुच मेरी हो रोजलीन !
रक्तिम बनाते हैं भोर के गुलाबी चेहरे को
कपोलों की रंगत को अरुणिमा देती सुर्खी को
मेनका सी मुस्कान मोहक है मंद-मंद
यौवन से महकते हैं रोजलीन के अंग-अंग
ओष्ठ युग्म जैसे जोड़ी गुलाब कलियों की
परिधि में है कैद मदनपाश सीमाओं की
क्या तुम सचमुच मेरी हो रोजलीन!
शाही स्तंभ हैं उसकी गर्दन सुराहीदार
स्वयं प्रेम जिसके बंधन में है बेजार
अपनी एक झलक पाने को आतुर प्रतिपल
झील सी आँखों में डूबता हर पल
सच! तुम कितनी सुंदर हो रोजलीन!
आल्हाद के केंद्रबिंदु हैं कुचाग्र उसके
और उरोज जैसे गुंबद स्वर्गद्वार के
जिनके सभी वलयों पर आसक्त प्रकृति
करती है परावर्तित सूर्य रश्मियाँ भी
सम्मोहन में जिसके मैं हो जाता हूँ लीन
क्या सचमुच तुम मेरी हो रोजलीन!
उज्जवल मोती और रक्तवर्णी माणिक
धवल संगमरमर... नीलम के नीलमणि
उसके अंग-प्रत्यंगों के सजीव अलंकार
कामदेव की धनु प्रत्यंचा को देते हैं टंकार
रेशम का स्पर्श और मधु की मिठास
रोजलीन! तुम्हारे प्रेम की कैसी है आस!
उर्वशी... मेनका ...रंभा या रति की छाया
कामाग्नि का देह-दर्प तुममें ही समाया
नयन कटाक्ष करते है ईश्वर को आहत
कामबाण की मूर्छा से मन को है राहत।