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आलोचना

शेखर : एक जीवनी उपन्यास का भाषा शिल्प

मधुछंदा चक्रवर्ती


साहित्य की एक विधा है उपन्यास। उपन्यास आज के युग का महाकाव्य है। इसकी विशेषता है कि यह सरल एवं सहज है तथा व्यक्ति के जीवन के एकदम निकट है। इसकी भाषा भी इसी तरह की है। अर्थात सहज, सरल एवं जन की भाषा है। प्रत्येक उपन्यासकार अपनी रचना को लोगों तक पहुँचाने के लिए उपन्यास में उसी प्रकार की भाषा एवं बोली का प्रयोग करता है जो लोग बोलते हैं। जैसा समाज, जैसी संस्कृति, जैसा परिवेश वैसे ही सबकुछ उपन्यासकार अपनी रचना में डाल देता है ताकि लोग इसे पढ़ें तथा अपने निकट समझकर इसमें साहित्यकार ने जो अपने मन की बात अभिव्यक्त की है या कुछ कहना चाहा है वह पाठकों तक पहुँचे और पाठक समुदाय उसे ग्रहण कर ले। अतः उपन्यासकार का यह दायित्व हो जाता है कि वह अपनी रचना की भाषा को बहुत ही जतन के साथ तथा पाठक के ग्रहण योग्य स्तर पर ही रखे। साथ ही यह भी दायित्व रहता है कि भाषा के प्रयोग में वह साहित्यिक मानदंडों को भी ध्यान में रखे। कहीं ऐसा न हो कि भाषा के चलते रचना ही साहित्य के क्षेत्र में निम्नस्तर की हो जाए। रचना की साहित्यिक उच्चता भी बरकरार रखनी आवश्यक है।

यह गुण हिंदी साहित्य में अनेक रचनाकारों में पाया गया है जिनमें प्राचीन काल के महानतम कवियों से लेकर आधुनिक काले तक के महान रचनाकार शामिल है। जैसे कबीर, महाकवि तुलसीदास, केशवदास, बिहारी, मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भारतेंदु हरिश्चंद्र, पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत, अज्ञेय आदि। इन सभी की रचनाओं ने पाठकों के हृदय में इसीलिए स्थान बनाया है क्योंकि इनकी रचनाएँ जेनता की रचना है। सबकी रचनाओं में समाज, लोक संस्कृति, परंपरा, साधारण जनता के जीवन से जुड़ी प्रत्येक प्रकार की बातें तथा उनकी ही अपनी भाषा समाहित है। अत कैसे कोई इनकी रचना को अपने हृदय में स्थान न दे। ऐसे ही एक रचनाकार है जो कि आधुनिक काल में भी अपनी रचनाओं के जरिए पाठकों के हृदय में स्थान रखते हैं। वह है बहुमुखी प्रतिभा के धनी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय जी। इन्होंने कई कविताएं, कहानियाँ, उपन्यास तथा निबन्ध लिखे है। इनकी रचना की विशेषता यह है कि सभी रचनाओं में पाठक को अपने अंदर के भीतर के व्यक्ति से मिलवा देता है। अर्थात् पाठक इनकी रचनाओं से इतना प्रभावित हो जाता है कि रचना में उभरे विचार जो कि वास्तव में अज्ञेय जी कमे वह पाठक के अपने विचार से मालूम होने लगते हैं। अज्ञेय जी द्वारा लिखित 'शेखरः एक जीवनी 'उपन्यास को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है। 'शेखर : एक जीवनी' एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। इस उपन्यास के केंद्र में शेखर है जिसके जीवन की कथा इस उपन्यास में लिखी है। शेखर के ही इर्द गिर्द घुमती परिस्थितियों तथा उसका शेखर पर पड़ते प्रभाव को एवं इन्हीं के मध्य शेखर के उभरते व्यक्तित्व को ही अज्ञेय जी ने उपन्यास में अभिव्यक्त किया गया है। शेखर क्या सोचता है, कैसे पारिस्थितियों का सामना करते वक्त उसके मन में विद्रोह की भावना उठती है या किसी के प्रति वह झुकता है सब कुछ इसमें व्यक्त हुआ है। सबसे अधिक अपने आप को समझने एवं उसी में खोने की बात भी इसमें स्पष्ट दिखाई देती है। शेखर केंद्रीय पात्र है परंतु उसके साथ साथ अन्य पात्रों को भी लिया गया है एवं उनकी भी भूमिका चवदिखाई गई है ताकि शेखर का व्यक्तित्व स्पष्ट हो जाए। इस समस्त पक्षों को उजागर करने के लिए अज्ञेय जी कभी शेखर के मुख से तो कभी अपनी तरफ से, संवाद के माध्यम से भी शेखर के विचारों, चिंताधरा, अंतस्चेतना में होती हलचलें सबको सरल भाषा में ही प्रस्तुत किया है। परंतु यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास है अतः व्यक्ति का मनोविज्ञान सब समय स्थिर या ऐसा नहीं होता बल्कि परिस्थिति अनुसार बदलती भी है। इसी कारण इस उपन्यास की भाषा भी औपन्यासिक मोड़ों पर बदलती जाती है। भाषा के बदलाव के साथ साथ हमें शेखर के विचार एवं बदलाव का भी आभास होता जाता है जिससे पाठक समाज कभी शेखर से जुड़ता है। तो कभी उसके संवाद या रहकत से चकित भी होता है। कुल मिलाकर पूरे उपन्यास से शेखर के जीवन के विविध आयामों के दर्शन हो जाते हैं। और इसक लिए इस उपन्यास की भाषा को ही सराहा जा सकता है जिसके कारण यह उपन्यास पाठक के मन में स्थान बना गई है। आमतौर पर कहा जाता है कि किसी के मनोविज्ञान को समझना इतना आसान नहीं होता है, उसी तरह एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास को भी पढ़कर उसके धरातल तक जाकर उसे समझना भी उतना आसान नहीं है। परंतु 'शेखर : एक जीवनी' के साथ यह कठिनता नहीं है। तभी तो इसकी कितनी बार आलोचना हो चुकी है तथा कितने ही लेख इस उपन्यास को लेकर प्रकाशित हो चुके हैं। इस उपन्यास की भाषा है ही इतनी सुंदर और सरल।

'शेखर : एक जीवनी' के प्रथम भाग में अज्ञेय जी ने शेखर के बचपन का चित्रण किया है। कहीं कहीं पर शेखर के रूप में अज्ञेय स्वयं बोल उठते हैं तो कहीं कही पर वे वर्णन करते हुए नजर आते है। जैसे कि प्रथम खंड में शेखर के स्कूल की एक घटना वर्णित की है जिसमें शेखर तथा उसके साथियों के बीच किंहीं दो लड़कों में लड़ाई हो जाती है। तब उस लड़ाई को रोकने के लिए आई हुई टीचर शेखर की कमीज के बटन में एक नोट चिपका देती है और उसे डाँटती है कि उसने बहुत शरारत की है। तब शेखर के मन में भाव को अज्ञेय जी ने इसी प्रकार से व्यक्त किया :- उस दिन लगभग चार बजे शेखर घर की ओर चला जा रहा था। धीरे धीरे किसी विचार में लीन... वह इतना गंभीर इसलिए था कि वह किसी निश्चय पर पहुँचना चाहता था। उसने सिस्टर के शब्दों में 'शरारत' की थी अवश्य, किंतु यह कोई कारण नहीं था कि वह घर जाकर पिटा। उसकी न्याय बुद्धि कह रही थी, मैंने दूसरों को मारा, स्वयं भी मार खा ली, अब घर पहुँचकर दुबारा दंड क्यों पाऊँ? यहाँ अज्ञेय जी ने जैसा वर्णन किया है उससे पाठकों को घटना भी समझ में आती है तथा हँसी भी क्योंकि यह बचपन के समय का चित्रण है। यहाँ भाषा बिल्कुल सरल किंतु विद्रोहात्मक तेवर लिए हुए हैं। शेखर के मन में उठ रहे विचार है। इसी प्रकार की एक ओर शरारत भरी एक और घटना जो कि शेखर के बचपन में ही बीती थी तथा जिसका कारण भी शेखर ही था उसे भी अज्ञेय जी ने बहुत ही सुंदरता से उभारा है। इसमें अज्ञेय जी ने वर्णनात्मक तरीका अपनाया है। परंतु ऐसे वर्णन किया है जैसे की वह स्वयं उस घटना को प्रत्यक्ष देख रहे हों। शेखर ने अपने पिता से प्रभावित होकर एक किताब लिखने की सोची थी तथा इसमें वह कामयाब भी हो गया था अपनी बहन की मदद से। एकाएक वह किताब शेखर के पिता के हाथ लग जाती है तथा उसे देखकर एवं पढ़कर शेखर के माता पिता दोनों हँसने लगते हैं। हँसने का करण शेखर द्वारा जो बातें उस पुस्तक में लिखी गई थी उसे अज्ञेय जी ने इस प्रकार लिखा है :- Fushia Vylet flower with fore red small leeves varay pretty kashmiri girls put it in there hair nurse zinnia puts it in her ears to dance in the kichen. Habitat, Shalamar gaardens and chashama Shahi.

(फूशिया - छोटी लाल पत्तियों वाला बैंगनी रंग का फूल बहुत सुंदर, काश्मीरी लड़कियाँ बालों में लगाती है। जिनिया आया कानों में पहनकर रसोईघर में नाचती है। पैदाइश शालामार बाग और चश्माशाही)

Iris, very beautiful some are blue some red and some white there is a yellow stick inside the flower.

Habitat, Mr. Chatterjis house near gupkar the best were in our house but the flud took them away. 2

इस प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है कि अज्ञेय जी को अंग्रेजी भाषा का भी बहुत अच्छा ज्ञान था। तभी वह अंग्रेजी का इस तरह का प्रयोग कर सके जिससे की शेखर के बचपन की बालपन वाली बेवकूफी भी झलकती है तथा पाठकों में हँसी की लहर भी दौड़ जाती है। अज्ञेय जी को बंगला भाषा का भी ज्ञान था तभी उनके प्रथम खंड से पहले के प्रसंग में एक बंगला गीत भी लिखा हुआ मिलता है जो कि शेखर अपने मन में गाता है। अज्ञेय जी का इस तरह का प्रयास आने समय में अनोखा है। यहाँ अलग अलग शब्द ही प्रयुक्त हुए है जिनसे वाक्य तो बना है परंतु अर्थ नहीं है। फिर भी प्रसंग को समझने में किसी के कठिनाई नहीं होगी क्योंकि यदि इन सबका शाब्दिक अर्थ निकाला जाए तो प्रसंग वास्तव में ही हास्यास्पद दिखता है। उपन्यास में व्यंजना होती है। साधारण तरीके से ही सही, परंतु उपन्यास में लिखित वाक्यों का शाब्दिक अर्थ कुछ और कहता है। तथा पूर अनुच्छेद पढ़ने पर कुछ और ही अर्थ नजर आता है। यही उपन्यासकार की भाषा वाली कला है। चक्रधर नलिन जी ने अज्ञेय जी की भाषा कलात्मक प्रयोग को लेकर कहा है कि अज्ञेय भाषा की कोमलता के बल पर मानवीय चिंतन तथा चेतन के अंतिम आयाम का सहज स्पर्श करते हैं। उन्होंने काव्य वस्तु को ही नहीं वरन् भाषा और उसके उपकरणों के प्रयोगों से भाषाई क्रांति की। उनके कथ्य सूक्ष्म अंतर्दृष्टि का प्रतिफल है तथा भाषा कृष्णा सी प्रवाहमान है। यद्यपि उन्होंने यह बात अज्ञेय जी की कविताओं को लेकर कही है परंतु अज्ञेय जी द्वारा लिखित गद्य रचनाओं में भी यही विशेषताएँ नजरा आती है। शशि तथा शांति, शारदा सभ्य को लेकर जो शेखर के मन में भावनाएँ उठती है उन सबका जो वर्णन अज्ञेय जी ने किया है उन प्रसंगो में तथा ऐसे कुछ प्रसंगों में तथा ऐसे कुछ प्रसंगो में जहाँ शेखर के मन में विद्रोहात्मक तेवर या क्रांति के विचार उठते हैं उनमें यह बातें लागू होती है। शेखर बचपन से ही शरारती तथा जिद्दी हुआ करता था जिस कारण माता पिता के अलावा अपनी बहिन से भी कभी कभार पिटाई खानी पड़ती थी। फिर भी शेखर का अपनी बहिन सरस्वती से अधिक रोस्ताना था क्योंकि अक्सर सरस्वती ही उसकी हर काम में मदद कर दिया करती थी तथा उसे लाढ प्यार भी करती थी। शेखर के मन में सरस्वती को लेकर जो भावनाएँ थीं उन्हें अज्ञेय जी ने ऐसे चित्रित किया है :- तो सरस्वती और शेखर साथ खेलते थे, लेकिन उन खेल में उनके साथ की अपेक्षा सरस्वती के हाथ और शेखर के गालों का साथ अधिक रहता था। और जब से शेखर के पिता ने सरस्वती को आज्ञा दी थी कि वह शेखर को पढ़ाया करे, तब से तो शेखर ने समझ लिया था कि 'बहिन' उस जंतु का नाम है, जो खेल में झगड़ा करे, अपनी गलती होने पर भी पीट डाले, तंग करे, सीधे अक्षर पढ़ाकर संयुक्ताक्षर (यद्यपि शेखर तब उन्हें 'संयुक्ताक्षर 'नहीं कहता था) पढ़ाए, न पढ़ने पर पिता से कहे, और कभी किसी बात में विरोध होने पर माँ से यह फतवा प्राप्त कर ले कि वह बड़ी है इसलिए शेखर को उसका कहना मानना चाहिए। जब से काश्मीर गए, तब शेखर को इस बात में बड़ा मजा आता था कि कभी वर्षा के दिनों वह रात में चुपचाप खिड़की खोल दे ताकि खिड़की के पास सोयी हुई सरस्वती भीग जाए। (शेखर ने आग्रह किया था कि खिड़की के पास वह सोयेगा क्योंकि वहाँ से चाँद दीखता था, पर माँ की आज्ञा हुई कि वह नहीं सो सकता, उसे ठँड लग जाएगी, क्योंकि वह छोटा है। लेकिन वहीं काश्मीर में उन्ही वर्षा के दिनों, एक दिन सरस्वती उसके मन में एकाएक 'सरस्वती' से ' बहिन' और बहिन से 'सरस' हो गई थी - यद्यपि इस अंतिम अंतरंग नाम का उसने कभी उच्चारण नहीं किया, इसे मन में ही छिपा रखा। यहाँ अज्ञेय जी ने भाषा का मनोवैज्ञानिक पद्धति से प्रयोग किया है। पहले शेखर के मन में अपनी बहिन के प्रति बालपन वाली ईर्श्या तथा द्वेष, फिर उसी के प्रति झुकाव को यहाँ अज्ञेय जी ने बहुत स्पष्ट किंतु सुंदर ढंग से प्रयोग किया है। इसी प्रकार अज्ञेय जी ने शेखर के जिद्दीपन को भी कई जगहों पर इसी प्रकार के व्यक्त किया है। जैसे शेखर का भवानी मंदिर में जाकर कह उठना कि 'मैं ईश्वर को नहीं मानता। मैं प्रार्थना भी नहीं मानता।' ये एक प्रकार से यह कथन शेखर के भीतर के विद्रोह का सूचक बनकर नजर आता है।

अज्ञेयजी ने अपने इस उपन्यास में सबसे अधिक शेखर के जीवन की अनुभूतियों का चित्रण किया है। दोनों ही भागों में हमें इसके कई उदाहरण मिलेंगे। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने अनुभूतियों के चित्रण में छायावादी कवि की जो विशेषता है अर्थात् प्रकृति के साथ मनोभावों के ताल मेल को भी चित्रित किया है। जिससे न कवेल शेखर के मनोभाव स्पष्ट होने लगते हैं बल्कि भाषा के माध्यम से यह भी विदित होता है कि प्रकृति हमारे मनोभावों के कितने अनुकूल एवं प्रतिकूल लग सकती है। जब जब हम जैसा सोचते होंगे प्रकृति वैसा ही रूप दिखाती होगी। शेखर जब धीरे धीरे बड़ा होने लगता है तो उसका मन नए विचारों से भरने लगता है, उसकी आँखे कुछ नया देखना पसंद करती है। अज्ञेयजी ने शेखर के मनोभावों को तथा उसके अनुभवों को चपूरी तरह से चित्रित करने क लिए अंग्रेजी के कई रोमांटिक कवियों की कविताएँ भी बीच बीच में उद्धृत की है। जैसे :-

Ah me, my mountain shepherd, that my aarms

Were wound about thee, and my hot lips prest

Close, close to thine in that quick falling dew

Of fruitful kisses, thick as autumn rains

Flash in the pools of whirling Simois 5

इसी तरह एक और जगह शेखर के मन में उठते कुछ इसी प्रकार के विचारों कि प्रकृति के एक और रूप के साथ पेश किया है :- शेखर के पिता का बँगला बबूल के वृक्षों और झाड़ियों से घिरे हुए एक पहाड़ के अंचल में है। उनके घरके सामने तलहटी के पार के पहाड़ के शिखर पर एक छोटा सा पेड़ है, जिसकी शाखाएँ और पत्तियाँ मिलकर आकाश की पृष्ठ भूमि पर अंग्रेजी 'एस'(S) अक्षर का आकार बना देती है। शिखर से कुछ उतरकर चारों ओर यह पहाड़ देवदारू, चीड़ और युकलिप्टस वृक्षों के वन से घिरा हुआ है। यही सुदूर चित्र शेखर की चंचल आँखों का एकमात्र खाद्य है, आँखे जो किसी नूतनता की, किसी परिवर्तन की भूखीं है, और जो अपने सब ओर व्याप्त एकस्वरता से उकताई हुई हैं। यही 'एस' शेखर शारदा से मिलने के बाद भी देखता है। यहाँ अज्ञेय जी ने 'एस' का प्रयोग प्रतीकात्मक तौर पर दिखाया है जो शेखर के मन मे अलग अलग समय पर उठते विचारों का प्रतीक है। अज्ञेय जी के भाषा के क्रांतिकारी एवं प्रतीकात्मक प्रयोगों को लेकर एक औरे विद्वान विजयमोहन सिंह जी का मानना है कि चित्रात्मक गद्य का प्रयोग अज्ञेय से पहले हिदी कथा साहित्य में नहीं हो सका था। इसके अतिरिक्त उपन्यास में अनुभूतियों की भाषा लिखने वाले अज्ञेय हिंदी के पहले गद्य लेखक है। इस गद्य की काव्यात्मकता छायावादियों के गद्य की काव्यात्मकता से भिन्न है, जो भावात्मकता से भरा हुआ ढीला ढाला गद्य (लूस प्रोज) होता था और कल्पनरा के कुहासे में अनुभूतियों को धुँधला कर देने वाला होता था। ...अज्ञेय दृश्य और भाव की प्रत्येक सिलवट को सेटीक ढंग से व्यक्त कर देने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं और दृश्य को उसकी संपूर्ण वस्तुपरकता के साथ चित्रित करने के लिए अद्भुत शब्द बिंबों का निर्माण कर लेते है। ... वस्तुतः अज्ञेय की इस भाषा की पृष्ठभूमि में छायावाद या रोमेंटिसिज्म से पृथक फ्रेंच प्रतीकवादी आंदोलेन था और जिसकी भाषा में संगीत और काव्य के तत्व संयुक्त थे। विजयमोहन सिंह जी ने प्रसिद्ध विद्वान एडमंड विल्सन जी के कथन का उदाहरण देते हुए शेखर : एक जीवनी की भाषा के प्रतीकात्मक प्रयोग तथा शिल्प की प्रशंसा करते हुए आगे कहते हैं कि अज्ञेय की भाषा में इसी प्रकार के प्रतीकवादी उपकरण मिलते है। इस प्रकार उन्होंने एक ओर शेखर की प्रविधि मनावैज्ञानिक फ्री एसोसिएशन ऑफ आइडियाज वाले शिल्प से ली और दूसरी ओर उसमें प्रतीकवादियों वाली भाषा को अनुस्यूत कर एक अनोखे औपन्यासिक शिल्प का निमार्ण किया। इस भाषा में विभिन्न इंद्रियों की संवेदनाओं के संश्लेषण से एक ऐसी प्रभावात्मकता उत्पन्न होती है जो अभी तक औपन्यासिक स्तर पर उपलब्ध नहीं थी। उपन्यास के द्वितीय भाग के अंतिम खंड में भी हम यह देख सकते हैं जब शेखर अपनी मौसेरी बहन शशि के साथ रह रहा था तथा उन दोनों के बीच की आत्मीयता बढ़ रही थी। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि अज्ञेय जी ने शेखर के जीवन और उसमें घटने वाली घटनाओं का न केवल वर्णन ही किया है, बल्कि शेखर स्वयं क्या सोचता है, उसकी अपने जीवन में घटी घटनाओं को लेकर क्या अनुभूतियाँ है उन सबकों भी अज्ञेय जी ने स्वयं शेखर बनकर सोचा और उन्हें व्यक्त किया। व्यक्त करने के लिए उन्होंने जैसी भाषा का प्रयोग किया है, उसे और सजीव ढंग से चित्रित करने के लिए शेखर के आस पास की प्रकृति, समान या व्यक्ति को व्यवहार तक को भी प्रयोग किया है। साथ ही अज्ञेय जी को कई भाषओं का ज्ञान था जिनका प्रयोग उन्होंने शेखर के मनाविज्ञान को दर्शाने के लिए प्रयोग किया। बाँगला गीत से लेकर अंग्रेजी के रोमांटिक कविताओं को उन्होंने जगह जगह पर सटीक ढंग से प्रयोग किया है।

शेखर एक जीवनी के प्रथम भाग में जिस तरह से शेखर का मनोविज्ञान पूरी तरह से चित्रित हुआ है उसी तरह दूसरे भाग में शेखर के वास्तिविक जीवन में जिसमें उसे अनुभव से अधिक कार्यरत रहना पड़ा है वहाँ भी अज्ञेय जी ने अपनी भाषा के कलात्मकता से शेखर के मनोभावों को प्रकट करने मे सफलता पाई है। फिर वह चाहे शेखर के कॉलेज का प्रसंग हो या पंजाब में जाकर कांग्रेस से जुड़कर देश सेवा तथा जेल जाने का प्रसंग हो। सभी प्रसंग पाठकों को इसीलिए रुचिकर लगे क्योंकि एक तो उन प्रसंगों को अज्ञेय जी ने प्रस्तुत किया ही इतने रोचक ढंग से, साथ ही भाषा की सरलता तथा छायावदी दृष्टिकोण के कारण वह अधिक सुपाठ्य हो गई। द्वितीय भाग के अंतिम चरण में शशि और शेखर के साथ साथ चलती जिंदगी और उनके बीच के करीबी को भी बहुत ही संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है। सह मनोवैज्ञानिक उपन्यास है अतः भाषा को मनोविज्ञान की दृष्टि से एक भाव से दूसरे भाव ले जाते हुए तथा घटनाओं से प्रभावित होते अनुभवों को व्यक्त करते हुए कहीं भी भाषा की कृतित्रमता नहीं झलकती है और न ही कहीं पर साथ ही छूटता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि अज्ञेय जी की औपन्यासिक भाषा में काफी मजबूत पकड़ थी जिसके कारण उनका यह उपन्यास हिंदी साहित्य जगत् में उत्तम स्थान प्राप्त कर सका है।

संदर्भ :

1. शेखरः एक जीवनी, प्रथम भाग :- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय',सं- 2009, प्रकाशन- सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, पृ. सं- 54

2. वही पृ. सं. - 741

3. आजकल (साहित्य और संस्कृति का मासिक) (अज्ञेय विशेषांक) अंक 12, अप्रैल 2011, पृसं.-27, लेखक-चक्रध नलिन, लेख- बहुमुखी प्रतिभा के धनी - अज्ञेय।

4. शेखर : एक जीवनी, प्रथम भागः सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन'अज्ञेय, सं.- 2009, सं-2009,प्रकाशन- सरस्वती प्रेस,इलाहाबाद, पृ. सं.- 78-79।

5. वही पृ. सं. - 151

6. वही पृ. सं. - 159

7. उपन्यास का समाजशास्त्र - संपादिका : गरिमा श्रीवास्तव, पृ. सं. 209

8. वही पृ. सं. 210


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