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आलोचना

यायावर की याद

माधवेंद्र पांडेय


सामाजिक विकास के व्यवस्थित जीवन में यायावरी बंधन से ऐसी मुक्ति है जो खुलकर जीने का विकल्प प्रस्तुत करती हैं। ऐसा लगता है कि सभ्यता एवं संस्कृति का विकास मनुष्य की स्वतंत्रता को बाधित अथवा प्रभावित करने के मूल्य पर ज्यादा हुआ हैं, जिसमें नियंत्रण की एक स्वाभाविक अधिकार वृत्ति शामिल रहती हैं। क्या मनुष्य की आदिम- वृत्ति मुक्त रहने की, निर्बंध जीने की - खिलाखिलाते झरने की तरह झकझोर मारते हवा की तरह, उछलते-कूदते कभी इस गुफा में रहने, कभी उस तरुवर के नीचे सोने, कभी यह फल चखने, कभी उस सोते का पानी पीने की नहीं रही है?

जीवन को एकसार जीना क्या मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति के खिलाफ नहीं है? मनुष्य तबेले की गाय तो नहीं था कि एक खूँटे से बाँध दिया, फिर दुह लिया - जब मन चाहा। बँधे खाने, बँधे पानी वाली - निरीह, बेचारी।

यायावर की याद में यायावरी का यह दर्शन जीवन को नए ढंग से समझने की माँग करता है कि रचनात्मकता के मूल में नया होने एवं नया करने की यही जिजीविषा आधार का काम करती है। कुछ नया करने, नया गढ़ने में बेलीक होना आवश्यक होता है। प्रकृति से बेलीक होकर ही तो सभ्यता का विकास प्रारंभ होता है। चाहें तो उन्मुक्तता कह लें, परंतु अनुसंधान एवं समाधान के मूल में उन्मुक्तता ही तो कारण रूप में होती है। बंधन में पिष्ट-पेषण होता हैं - सर्जना नहीं। सर्जन आनंदात्मक होता है और आनंद हमेशा नूतन-नवीन। मुक्ति की गूँज प्रकृति का सामान्य स्वर है। मुक्ति का नाद प्रकृति के पोर-पोर में गूँज रहा है। पर्वत, पहाड़, नदी, झरने से लेकर घास की नोंक तक सभी मुक्ति के आह्वान हैं। चिड़ियों की मुस्कान, वृक्षों की झकाझोर झूम, झरनों की बहती, फलाँगती दौड़ - सभी तो मुक्ति की इसी आदिम लालसा से स्वरित हैं। बारिश, धूप किसका बंधन मानते हैं? कल एक चिड़िया देखी - झूल रही थी एक वृक्ष की छोटी, पतली टहनी को पकड़ कर - बीच-बीच ये पंखों से हवा के थपेड़े दे रही थी - चिड़िया क्या, पूरा पेड़ झूम रहा था। तितली, भौरे, टिड्डे जीव-जंतु इसी निर्बाधता के ही तो प्रत्यय हैं। कभी पढ़ा था बंधन मृत्यु है तो क्या मुक्ति जीवन नहीं। मुक्ति ही तो यायावरी है - मुक्ति का परम उत्सव। 'पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं'।

अज्ञेय की रचनात्मकता का मूल स्वर यही मुक्ति, स्वातंत्र्य, मस्ती, उमंग, खुल कर जीने का स्वर है। अज्ञेय-साहित्य को इस घुमंतू मुक्ति-दर्शन के सापेक्ष अच्छे से समझा जा सकता है। जिस प्रयोगशीलता को अज्ञेय के पर्याय के रूप में देखा जाता है वह तो इसी मुक्ति-स्वातंत्र्य का उद्घोष हैं - साहित्य होने की पहली शर्त। और यह प्रयोगशीलता तो साहित्य के साथ प्राचीन काल से चली आ रही है। प्रयोगशीलता का आधुनिक दौर तो निराला से शुरू हुआ - जब वे साहित्य के समूचे सौंदर्यबोध को बदल देते हैं। छायावाद तक साहित्य सौंदर्यबोध की प्राचीन पद्धति का ही कमोवेश अनुकरण कर रहा था। शाश्वतता का निरंतर आग्रह एवं पवित्र निष्कलुषता का अन्वेषण इसकी सबसे बड़ी माँग थी। आभिजात्य की पूरी अनुभूति इस सौंदर्यबोध को नियंत्रित, परिचालित करती थी जिस पर पहली चोट निराला ने की। इस चोट को गति नागार्जुन आदि कवियों ने अवश्य दी, परंतु उसे आधार बना कर साहित्य के स्वर को बदल देने का काम अज्ञेय ने किया। यहाँ कहा जा सकता हे कि मुक्तिबोध ने यह काम अलग ढंग से किया। अपनी प्रतिबद्धता में वे साहित्य से जूझते रहे और नए सौंदर्यबोध से साहित्य के आभिजात्य को सामान्य जन के आदिम बोध से जोड़ते रहे। यह बोध मुक्तिबोध में वर्ग-मुक्ति के रूप में दिखलाई देता हैं जिस में व्यवस्था के स्थापित / विकसित रूप के प्रति तीव्र आक्रोश था और जिसे वे धन के असमान वितरण एवं पूँजीवादी व्यवस्था के रूप में देख रहे थे। अर्थात मुक्तिबोध जिस सौंदर्य बोध का सृजन साहित्य में कर रहे थे, वह प्रकृति-समाज का नहीं वरन विकृत सामाजिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप विकसित परिस्थितियों का बोध था। इसीलिए मुक्तिबोध का पूरा रचनात्मक व्यक्तित्व जटिल मानसिकता से निर्मित है जिसके मूल में तनाव अधिकतम है। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ने साहित्य को सोद्देश्यता के नए स्तर प्रदान किए हैं। कहा जा सकता है कि अज्ञेय इस सोदृश्यता से पहले के कवि हैं। उनमें मानव की खोज अधिक है, बनिस्पत मानव की समस्याओं की खोज के।

अज्ञेय वैविध्य के कवि हैं। वे दर्शन से आक्रांत नहीं, दर्शन के निर्माता रचनाकार हैं। मानवीय संवेदना की सहज समाई जिन कार्यों, व्यवहारों में सर्वाधिक हो सकती है, अज्ञेय उस सहजता के कवि हैं। वैचारिकता उनके लिए बोझ नहीं है।

अज्ञेय को मुक्तिबोध के साथ रख कर हमेशा दोयम दर्जे का बताया जाता रहा है। हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का एक बड़ा टोला जिस आयातित दर्शन का ढोल गले में डाल कर पीटता रहा और कुछ नया कर गुजरने की ललक में एक को बड़ा और दूसरे को छोटा साबित करने की साजिश गढ़ता रहा, उसने दोनों ही का अहित किया। साहित्य के मंद-मुकुल-विद्यार्थी यह मानते रहे कि मुक्तिबोध में सब कुछ अच्छा ही अच्छा है और अज्ञेय में काफी कुछ गड़बड़ है - लगभग अपठनीय स्तर का। इसने अज्ञेय को ही कमजोर नहीं किया बल्कि मुक्तिबोध जैसे समर्थ रचनाकार को भी जटिलता अथवा दुरूहता के प्रश्न से बाहर रखा।

साहित्य अतिवादों में नहीं चलता। अतिवाद वैचारिक पराधीनता का सबसे अच्छा उदाहरण होता है जिसमें दूसरे के लिए कोई जगह नहीं होती। संदेह की गुंजाइश ही किसी साहित्य के आगामी विकास की सूचना होती है। संदेह संभावना की जननी है और अज्ञेय का साहित्य इस संदेह की पूरी छूट देता है। यह इसलिए कि अज्ञेय के साहित्य का सृजन ही संदेह, जिज्ञासा, संभावना की आदिम वृत्ति का परिणाम है। यही यायावरी है - जीवन की खोज - नए ढंग से अन्वेषित करने की इच्छा है। मनुष्य न केवल हाड़-मांस है, और न ही शुष्क चिंतन-मशीन। संवेदनाएँ मनुष्य के सत्तर प्रतिशत को नियंत्रित करती हैं, गढ़ती हैं, और उसे इस गढ़ने की पूरी छूट मिलनी चाहिए। केवल तीस प्रतिशत ही मनुष्य की व्यवस्था है जिसमें नियम, निषेध अथवा प्रतिबद्धता आती है, शेष तो खालिस मनुष्य है - मस्त। सभ्य होने एवं सभ्य दीखने की पूरी माँग को नकारता।

अज्ञेय मूलतः कवि हैं और यह कवि प्रकृति की यायावरी से ही अपनी रचनात्मक ऊर्जा गहण करता हैं। यही कारण है कि अज्ञेय की रचनाओं में स्थानिक रंग अपनी पूरी सज-धज के साथ उपस्थित होते हैं। यही स्थानिकता उनके प्रयोग का आधार बनती है। भाव, दृश्य, भाषा अथवा बिंबों के पारंपरिक ढर्रे को छोड़ कर अज्ञेय ने सीधे, स्थानिक आधार पर उन्हें ग्रहण किया है, इसीलिए वे नए या टटके लगते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि जो भी लिया, सब अच्छा या सही है। बल्कि केवल यह कि वे अपनी अभिव्यक्ति एवं अनुभूति में किसी स्थापित परंपरा का अनुकरण नहीं करते। 'छरहरी कलगी बाजरे की' से लेकर असाध्य-वीणा के नाजुक ध्वनि-बिंबों तक इस स्थानीयता को देखा जा सकता है। 'शेखर-एक जीवनी' में शेखर की पूरी खोज इसी स्थानीयता की खोज ही है। जो है उसमें उसी की खोज, बिना किसी आरोपित मूल्य के भले ही यह आरोपण सभ्यता अथवा संस्कृति का ही क्यों न हो। इस स्तर पर प्रयोग अभिकात्म एवं शिल्प के स्तर पर यथार्थ की सबसे बड़ी माँग होती है। इसे ही चलताऊ भाषा में 'भोगी हुई अभिव्यक्ति कहते हैं।' अज्ञेय की कविता और उनके पूरे साहित्य में यथार्थ की यह माँग ही प्रयोग के लिए उन्हें बार-बार उकसाती है और नए बिंबों, प्रतीकों का सृजन उनकी रचनाओं में नए मानव की खोज करता रहता है। यह नया मानव सभ्यता एवं मूल्य की भागमभाग में गुम वह मानव है जिसे हम बहुत पीछे छोड़ आए थे। इस अर्थ में अज्ञेय की रचनाएँ मानव के पुनः अनुसंधान में संलग्न रचनाएँ है जहाँ व्यक्ति अपने नैसर्गिक रूप से देखा जा सकता है। 'यह द्वीप अकेला' की पूरी संवेदना इसी 'कांति' एवं 'समाज' में विभाजित मनुष्य की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। 'इसको भी पंक्ति को दे दो' में सहज स्वीकार नहीं, सभ्यता के विकास की लाचारी है। असाध्य वीणा तो व्यक्ति की परम मुक्ति, विराट अनुभूति की स्थूल अभिव्यक्ति है जहाँ 'मौन' ही मनुष्य की नियति बन जाता है। स्वरों के, ध्वनियों के समस्त संभार को अपने में समेटे रहने के बावजूद बज न सकने की पीड़ा मनुष्य की आदिम अनुभूतियों के खिलाफ ठहरती है। प्रियंवद कोई और नहीं स्वयं अज्ञेय हैं जो महामौन से अनंत संगीत का आह्वान करते हैं। केवल बजाते नहीं खुद बजते हैं। वीणा के तार-तार में आदिम युगों से संचित मनुष्य के वे अनुभव हैं जो 'मौन' हो जाने के लिए शापित हैं। इस 'मौन' को साधना मनुष्य के 'स्व' को मूल रूप को पहचानना है। अज्ञेय पूरी कविता में अपने को साधते, अपने मनुष्य को - मूल आदिम रूप को पाने के लिए जूझते दिखाई देते हैं। वीणा का बजना मनुष्य के 'सत्व' का सधना है, इसीलिए सभी लोग उसे अपने-अपने ढंग से महसूस करते हैं।

अज्ञेय की कविता सामान्य मनुष्य के खोज की कविता है। केवल 'बायोलाजिकल मनुष्य' की खोज नहीं, शरीर के भीतर निवास करने वाले सूक्ष्म मनुष्य की खोज, जो बोलता, बतियाता, महसूस करता है। 'शेखर' में जिन प्रश्नों से वे टकराते हैं वे भी इसी 'मनुष्य' की खोज में लगे प्रश्न हैं। कहीं-कहीं ये प्रश्न नितांत बौद्धिक होते हैं तो कहीं भावुक किस्म के - अपरिपक्व, जिज्ञासा-रूप। रूढ़िगत नैतिकता के विरोध एवं प्रकृति -आकर्षक के स्वीकार ने ही शेखर को गढ़ा है। आस्था, अनास्था, अच्छा-बुरा से परे जिस मानव-समाज की परिकल्पना वहाँ दिखलाई देती है, वह मनुष्य को नए ढंग से अन्वेषित करने का प्रयास है। 'शेखर' के खंडों के नामों जैसे 'उषा और ईश्वर', 'बीज और अंकुर', 'पुरुष और परिस्थिति', 'बंधन और जिज्ञासा' ये भी देखा जा सकता है।

अज्ञेय आधुनिक हिंदी कविता के वे बड़े नाम हैं जिन्हें फिर से अधिक गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। केवल चलताऊ तुलनात्मक दृष्टिकोण से उन्हें नहीं समझा जा सकता। जीवन के जिस सत्व को उन्होंने अपनी रचनाओं का आधार बनाया है, उसे साकारात्मक ढंग से विश्लेषित करने की आवश्यकता है। ढोल बजाऊ आयातित चिंतकों का दौर समाप्त होने को आया है। ऐसे में अज्ञेय की रचनात्मक मानसिकता में व्याप्त 'यायावर' को नए तरह से देखा जा सकता है। 'नए' एवं 'अलग' की खोज, मौन की भावुक अभिव्यक्ति, वस्तु का बारीक अन्वेषण, विचारों की सजल नाजुकता एवं तितली के रंगों वाली छबीली कविता - सब कुछ में घुमंतू मस्ती थी झलक देखी जा सकती है।

दृश्यों, बिंबों, रंगों, ध्वनियों, आकृतियों आदि का जो विराट संभार अज्ञेय के पास है वह पढ़ कर नहीं, आँखों देखी है। 'आँखिन देखी' का यही सच भाषा का ताव लेकर उनकी रचनाओं में अभिव्यक्त होता है। भग्नदूत के तने धनु की टूटी प्रत्यंचा से लेकर महामौन की वीणा तक यही 'आँखिन देखी' सच मौजूद है। 'साँप / तुम सभ्य तो नहीं हुए / नगर में बसना / भी तुम्हें नहीं आया / एक बात पूछूँ - उत्तर दोगे / तब कैसे सीखा डसना - / विष कहाँ पाया /' कौन कहेगा कि केवल किताबी सच है। भले ही विद्वानों ने ढूँढ़ लिया हो कि यह अज्ञेय की मौलिक रचना नहीं बल्कि बारहवीं सदी के आचार्य कवि शेखर की रचना है -

'रे सर्प नैव त्वमभू खलु सभ्यजंतु :
नैवं भविष्यसि तथा नगरेपि वसतुम्जा
नासि नैव यदि दास्यसि सत्यमुत्तरें
दंशः वचनाडशिक्षे वाचवा पिवै विषम्।'

यह तो मानना ही पड़ेगा कि अज्ञेय की अनुभूति जीवन के विविध क्षेत्रों से 'फर्स्ट हैंड' ऊर्जा प्राप्त करती थी। इसी लिए उनके साहित्य में वह नवीनता है जिसे लोग 'प्रयोग' कहते है। अज्ञेय का यह बार-बार कहना कि 'प्रयोग' साध्य नहीं साधन है, को गंभीरता से समझने की जरूरत हैं। एक भावुक मन वाले आदमी की खोज में लगे अज्ञेय के साहित्य को लेकर अतिवादी अथवा अंतिम बयान से काम नहीं चलने वाला है। उनकी छोटी से छोटी कविता भी इतना कुछ कह जाती है कि महाकाव्यात्मकता की झलक मिलने लगती है -

'उड़ गई चिड़िया
काँपी, फिर थिर हो गई पत्ती।'

अज्ञेय संभावनाओं के कवि हैं, इसलिए उनके प्रति शंकाओं का होना भी स्वाभाविक है परंतु उस यायावर को पढ़ते समय अज्ञेय की इस उद्घोषणा को ध्यान में रखना आवश्यक है तभी उन्हें ठीक से, सही ढंग से समझा जा सकता है -

'मैं आस्था हूँ तो निरंतर उठते रहने की शक्ति हूँ
मैं व्यथा हूँ तो मुक्ति का श्वास हूँ
मैं गाथा हूँ तो मानव का अलिखित हतिहास हूँ
मैं साधना हूँ तो प्रयत्न में कभी शिथिल
न होने का निश्चय हूँ,
मैं संघर्ष हूँ जिसे विश्राम नहीं,
जो है मैं उसे बदलता हूँ
जो कर्म है, उसमें मुझे संशय का नाम नहीं
वह मेरा अपनी साँस सा पहचाना है।


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