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कविता

खुशी ठहरती है कितनी देर

अभिज्ञात


मैं दरअसल खुश होना चाहता हूँ

मैं तमाम रात और दिन
सुबह और शाम
इसी कोशिश में लगा रहा ता-उम्र
कि मैं हो जाऊँ खुश
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता

नहीं जानता कि ठीक किस
...किस बिंदु पर पहुँचना होता है आदमी का खुश होना
कितना फर्क होता है दुख और खुशी में
कि खुशी आदमी को किस अक्षांश और शर्तों
और कितनी जुगत के बाद मिलती है

वह ठहरती है कितनी देर
क्या उतनी जितनी ठहरती है ओस की बूँद हरी
घासों पर

या उतनी जितनी फूटे हुए अंडों के बीच चूजे
हालाँकि वह समय निकल चुका है विचार करने का
कि क्या नहीं रहा जा सकता खुशी के बगैर
तो फिर आखिर में इतने दिन कैसे रहा बगैर खुशी के

शायद खुशी की तलाश में जी जाता है आदमी
पूरी-पूरी उम्र

और यह सोचकर भी खुश नहीं होता

जबकि उसे होना चाहिए
कि वह तमाम उम्र
खुशी के बारे में सोचता
और जीता रहा
उसकी कभी न खत्म होने वाली तलाश में।


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