मैं अपने घर कब लौटूँगा!
जिसकी खातिर मैं अपनों के अपनेपन से दूर रहा
जिसकी खातिर मैं सपनों की हदबंदी को मजबूर रहा
जिसको बनवाने की खातिर रोज ही टूटा करता हूँ
जिसको पाने की खातिर मैं छूटा-छूटा करता हूँ
जाने किस दिवाली में चौखट पर दीये बारूँगा
कब अपने ओसारे में मैं मुर्गी चूजे पालूँगा
मैं अपने घर अब लौटूँगा!
मैं जितना घर से दूर रहा बेगाना सा
हाल कोई जो पूछे लगता ताना सा
मैं सड़कें, गलियाँ, चेहरे ना पहचान सका
परदेश में खुद को आगंतुक भर मान सका
खत मिलते हैं पर बात वहीं रह जाती है
व्यथा नहीं बोली बतियाई जाती है
मैं अपने घर क्यों लौटूँगा?
टूटा मन, टूटी देह लिए तैयार हुआ
बरसों पहले का विद्रूप सा आकार हुआ
जाने संगी-साथी होंगे किस ओर-छोर
बस्ती गलियों का बदला होगा पोर-पोर
मैं जीते जी इतिहास सरीखा लगता हूँ
मैं तो बस अब और किसी सा लगता हूँ।