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कविता

निशान

अभिज्ञात


किसी ने बताया
मेरी पीठ पर
पड़ गया है निशान किसी दीवार का
मैंने खोजा
कहाँ, आखिर कहाँ, किसी दीवार के पीछे छिपकर बैठी है वह दीवार
जिसने चुपचाप मेरी पीठ पर छोड़ दी है अपनी छाप

और मैंने उसे पकड़ ही लिया एक दिन, उस नई नई रंगी हुई दीवार को रँगे हाथ

जब वह मेरी पीठ पर एक और निशान लगाने की कोशिश में थी
लेकिन मैं यह देखकर हो गया अचंभित
उस दीवार पर पड़े थे मेरी पीठ के निशान
गनीमत तो यह थी कि किसी ने यह नहीं देखा
मेरी पीठ और दीवार का यह अनोखा रिश्ता

उस दिन से कई बार मुझे लगा
मेरी पीठ सहसा तब्दील हो जाती है दीवार में
और दीवार भी शायद बदल जाती हो मेरी पीठ में
मैं चुपके से अक्सर सहला आता हूँ
उस दीवार को
जैसे मैं अपनी पीठ पर ही
हाथ फेर रहा होऊँ।


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