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कविता

मैं जरूर रोता

अभिज्ञात


अगर वह कायम रहती अपने कहे पर
और उसके अंदर-बाहर रह जाता वह मकान
जिसे वह अपनी जन्नत कहती है

मैंने देखा, उस मकान के आगे
उग आई सहसा एक सड़क
जिससे होकर आएँगे उसके आत्मीय, स्वजन
उसकी सखी-सहेलियाँ और उनके बच्चे
डाकिया, अजनबी
और वह भिखारी भी
जो बुढ़ापे की जर्जर अवस्था में
मुश्किल से चल पाता था

घर के आँगन में उग आए फूल
जिससे महकता है पास पड़ोस तक

घर में जगह है मुर्गियों के लिए

गाय के लिए
और मेहमानों के ठहरने के लिए भी

धीरे-धीरे तब्दील हो गया उसका घर
एक पूरे संसार में

मैं जरूर रोता
अगर उसका मकान सिर्फ उसका घर होता।


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