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कविता

झूठ की ओट में

अभिज्ञात


सच की रक्षा के लिए तो अब झूठ भी तैयार नहीं
वह जानता है जिसे मारा ही जाना है अंततः किसी न किसी मोर्चे पर
क्यों की जाए उसकी रक्षा

कभी न कभी आदतन सच कह बैठेगा कि वह
दुबका हुआ है किसी झूठ की ओट में
और सच यह कहकर वह बढ़ा देगा
झूठ की मर्यादा

अब झूठ नहीं चाहता अपने पक्ष में कोई दलील
उसने देखा है ऐसी ही दलीलों के कारण
झूठ नहीं रह सका रक्षणीय
वह डरता है अपने गरिमामंडन से।


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