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कविता

पाँच : उपलब्धि

अभिज्ञात


तुम वह हो
जिसमें मेरे साथ खुद को पाया है तुम्हारी माँ ने
जहाँ हम दोनों ने मिटा दिया है अपना स्वतंत्र अस्तित्व
तुम हमारी संधि हो
तुम हो हमारा सेतु
तुम हो वह
जहाँ से
हम चाहें भी तो लौट नहीं सकते अपने आप तक
तुम हमारे स्व के खोने की परिभाषा हो
तुम हमारे विलय की उपलब्धि हो

तुममें झाँकती है मेरी मुस्कान
तुम्हारे स्वर में है तुम्हारी माँ की तान
तुममें मेरी शरारतें कहीं छिपी हैं

माँ की आदतें तुममें रची बसी हैं

मेरी संवेदनशीलता तुमसे बँधी है
तुम्हारी माँ की काया तुममें नधी है
पर हम नहीं चाहते
तुम बनो हमारा प्रतिरूप
तुम पाओ प्रकृति से अपने होने की धूप
अपना छंद ही तुम्हें साधेगा
हम हम हैं शत्रु नहीं
जो तुम्हें बांधेगा।


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