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कविता

दो : संवाद

अभिज्ञात


मैं तुमसे संवाद
चाहता हूँ
केवल तुम्हारा पिता इसलिए नहीं होना चाहता
कि वंशानुक्रम का यह नियम है
मेरे हावभाव और शक्ल मिल सकती है
जैविकीय कारणों से
मैं तुम्हारी माँ से अपने संबंधों के आधार पर ही
नहीं मान सकता तुम्हें अपना उत्तराधिकारी
मैं तुम्हें अपने संबंधों और वजहों से बनाना चाहता हूँ अपना
मैं तुम्हारी खुशियों की वजह होना चाहता हूँ
मैं तुम्हारी वजह से होना चाहता हूँ
जैसे तुम मेरी वजह से भी हो
चाहता हूँ रिश्ते की परिभाषा में अपना भी योगदान
मेरे तुम्हारे बीच जो कुछ हो वह केवल खून की वजह से न हो
इस आधार पर कि तुमने लिया है मेरे घर
और मेरी पत्नी के गर्भ से जन्म

नहीं चाहता कि तुम केवल इस आधार पर बनो मेरी वारिस
कि तुम हो मेरी खानदान की
मैं नहीं चाहता कि तुम्हें किन्हीं टुच्ची मर्यादाओं के लिए
बनना पड़े बलि का बकरा
नहीं चाहता कि खानदानी लड़की होने का
तुम्हें उठाना पड़े किसी तरह का कोई बोझ
जो मुझे भी लगते रहे कभी असह्य
मैं चाहता हूँ तुम जानो
रिश्ता बांधता ही नहीं मुक्त भी करता है
और मैं चाहता हूँ तुम्हें मुक्ति निःश्वास की तरह नहीं
उत्सव की तरह मिले
वरना लड़कियों के लिए जिंदगी पग-पग मुक्ति नहीं बंधन है
अदृश्य बंधनों को चुपचाप सहना और झेलना
और इसे नियति ही नहीं स्वभाव बनाना है

मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ तुम्हारी माँ के उलट
के हर पुरुष के अंदर छिपा है एक पशु
के तर्ज पर हर औरत में छिपी है एक डायन
जो खा जाएगी तुम्हारे मासूम सपनों तक को
मार डालेगी उसके भ्रूण तक को
वह जहर भर देगी तुम्हारी कामनाओं के उत्स तक में
जिसका तुम्हें भान तक भी न होगा
एक गहरा अविश्वास लगातार तुम्हारी धमनियों में दौड़ने लगेगा

एक भय जो तुम्हारा पीछा करेगा तुम्हारी नींद में
औरत को एक छिपे खजाने की तरह मिला है
क्रमिक आत्महत्या का हुनर
जिसे वह थाती की तरह सहेजती है अपनी बेटियों में

वह सौंदर्य को श्राप में बदल डालती है कई बार
वही सौंदर्य जो अब दुनिया में उपहार के बदले
हथियार की जगह लेने लगा है।


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