लक्षण :- सम्भावित उपमान जब संशय सहित धरात।
उत्प्रेक्षा नामक उहाँ अलंकार बनि जात॥
हरिगीतिका :- ' जनु मनु ' सहित संदेह मय उपमा हठात दियात बा।
निश्चय नहो पावत त उत्प्रेक्षा उहाँ बनि जात बा।
चौपई :- वर्ण्य अवर्ण्य भिन्न दुई मान। राखे सम्भावित उपमान॥
वाचक जनु मनु आदि रखात। उत्प्रेक्षा तब मानल जात॥
वर्ण्य अवर्ण्य बस्तु दुई आन। पहिरे उपमा के परिधान॥
उपमा में सन्देह रखात। तब उत्प्रेक्षा मानल जात॥
उत्प्रेक्षा वाचक संग रही। ऊ वाच्या उत्प्रेक्षा सही॥
बिनु वाचक उत्प्रेक्षा आयी। ऊ प्रतीयमाना बनि जायी॥
सार :- मनु जनु प्राय: निश्चय बहुधा खलु इव मानहु मानो।
हमरा जाने में शंके क्या ध्रुव जानहु या जानो॥
ई सब शबद रहे या एकनी के पर्याप्य रहेला।
उत्प्रेक्षा के वाचक ए सब के कवि लोग कहेला॥
इव वाचक का साथ एक गो क्रिया अवश्य धराला।
उत्प्रेक्षा में ' यथा और ज्यों ' राखल दोष गनाला॥
ई सब वाचक शब्द न एको जहवाँ कहीं धराला।
ऊ प्रतीयमाना नामक उत्प्रेक्षा मानल जाला॥
उत्प्रेक्षा-भेद
(अ) वाच्या उत्प्रेक्षा :- वाचक धर्म समेत जब उत्प्रेक्षा दरसात।
वाच्या उत्प्रेक्षा तब ओकर नाम धरात॥
वाच्या उत्प्रेक्षा भेद
1. बस्तूत्प्रेक्षा अलंकार
(स्वरूपोत्प्रेक्षा)
क :- उक्तबिषया बस्तूत्प्रेक्षा अलंकार
लक्षण :- कथ्य और अकथ्य दूनूँ के जहाँ चर्चा रहे।
त उक्तविषया नाम के कवि लोग उत्प्रेक्षा कहे॥
दोहा :- उत्प्रेक्षा के विषय कहि संभावना कहात।
तहाँ उक्तविषया सही उत्प्रेक्षा बनि जात॥
उदाहरण (हरिगीतिका) :-
अब न जीवन युद्ध चलि पावत हवे उत्कर्ष से।
तन मन दुओ अति दूर भागत बा मनो संघर्ष से॥
माथ पर के बार अब पूरा सफेद दिखात बा।
सूचक पराजय के मनो झण्डा उजर फहरात बा॥
देह निष्क्रिय बा परल हो गइल धनुषाकार बा।
शिव के धनुष मानो जनकपुर में परल बेकार बा॥
उमाशंकर की कृपा से आज तक सोहत हवे।
टूटे बदे श्री राम के पेंड़ा मनो जोहत हवे॥
दोहा :- सोहत देशी भँइसि के सींघि बढ़ल छितनार।
चील मनो बइठल हवे पूरा पाँखि पसार॥
जमुना पारी के लसत सींघि कुण्डला कार।
जनु शिकार का टोह में बैठे दबकि बिलार॥
भँइसि उजारति रहति बा अपना घर के टाट।
मानो काटति बा नदी अपने आपन आट॥
गदहा धूरि लोटाइ के देत तुरन्ते झारि।
जस केहु का उपकारके देत कृतघ्न बिसारि॥
कुछ बकरा दार्ही रखें मोंछि न किंतु देखात।
मीआँ जी के अनुकरन उनका मनो सुहात॥
मुरई सतुवा का सँगे करर करर सब खात।
मोट हाड़ धरि दाँत तर मानो बाघ चबात॥
गोलमेज पर बीच में धरि भोजन के थाल।
चहुँ दिशि से मेहमान सब खात निकाल निकाल॥
ओ क्षण के शोभा कहत मन हमार सकुचात।
एके शव जनु गिद्ध दल नोचि नोचि के खात॥
चौपई :- बड़की लग्गी ले के हाथ। आ दुचार मनई का साथ॥
नापत ऊँखि खेत कमदार। सोहत जोहत मनो सियार॥
ख :- अनुक्तबिषया बस्तूत्प्रेक्षा अलंकार
लक्षण (दोहा) :- जब चर्चाना कथ्य के तनिको कहीं कहात।
तब अनुक्तविषया उहाँ उत्प्रेक्षा बनि जात॥
सार :- उत्प्रेक्षा के विषय गुप्त रहि जाय ना खोला।
तब अनुक्तविषया सुनाम के बस्तूत्प्रेक्षाहोला॥
हरिगीतिका :- कथ्य का संबंध में कुछ भी जहाँ न कहात बा।
अनुक्तविषया एक उत्प्रेक्षा तहाँ बनि जात बा॥
उदाहरण (हरिगीतिका) :-
माथ धरती मातु के मानो झुकावत माथ बा।
अंखिया पसरि के करति दर्शन होति मनहुँ कृतार्थ बा॥
अब हाथ अभिवादन मनो सब के करत स्वीकार बा।
हिलते रहत आठो घरी बा इहे मानो कार बा॥
राम के गोहराइ उनके मदत मनहु लियात बा।
तब्बे कहीं एह देह का उठि बइठि कइसो जात बा॥
जग से बिदा होखे बदे आइल मनो बेरा हवे।
छूटे चहत मनु ढहत आ ढिमिलात ई डेरा हवे॥
अब कान केहु का बात पर मानो करत ना कान बा।
आ बिना लाठी के मनो पगु में न आवत जान बा॥
पगु पाँक में मानो चलत या पानियें थाहत हवे।
अंखियो मुनाये के मनो अब जल्दिये चाहत हवे॥
ए देह के प्रत्येक पुर्जा परत मानो ढील बा।
निज जगह छोड़त जात जनु अब सजी कण्टा कील बा॥
अब पनाती लोग हम से दूर बहुते रहत बा।
नजदीक हो के जात ना बलु दूर के मगु गहत बा॥
मानो हईं हम बाघ या सनकाह हम हाथी हईं।
या कि देवी दस्यु फूलन के प्रमुख साथी हईं॥
उठल तथा बैठल अधिक श्रम के मनो अब काम वा।
ओहि में सहारा हेतु मानो जीभि टेरतिराम बा॥
लउकत कमें बा जगत के ना दृश्य देखे चहत बा।
आँखि दुनूँ जल्दीये मानो मूनाये चहत बा॥
दोहा :- पावत लाठी के मदत तब चलत पगु सोझ।
ना अकेल सम्हरात बा मनो देहि के बोझ॥
थाहि-थाहि आगे बढ़त थोरे में थकि जात।
गहिर पाँक में चलत जनु बन्धन बड़ा बुझात॥
डगमग डेग परत हवे दहिन बाँव हो जात।
मानो ढील गतानि के बोझा बा छितरात॥
कुण्डलिया :- घुसि दुसरा का गेह में , कब्जा करत हठात।
गृह स्वामी के अन्न भी , नित्य चुरा के खात।
नित्य चुरा के खात बंश निज रहत बढ़ावत।
राखे के परिवार छोट ना केहु सिखावत।
बस्तु कहाँ के कहाँ धरत ले जा के मुसि के।
आजीवन रहि जात आन का घर में घुसि के॥
मूस आन का भीति में सेन्हि कई गो देत।
कब्जा भी पर गेह में बा हठात करि लेत।
बा हठात करि लेत नित्य कुछ बस्तु चुरावे।
जल कर गृह कर देत न घर छोड़ल भी भावे।
पुलिस न पकड़े कबे न हाकिम केस चलावे।
दुओ डरे अतएव मूस का पास न आवे॥
रोला :- रातो दिन उत्पात गेह में रहत मचावत।
गृहपति थाना जाइ किंतु ना रपट लिखावत।
हाकिम इनके दण्ड देत ना केस चला के।
एसे मानो पुलिस न बान्हत इनके आके॥
सार :- जेठ दुपहरी के एक दिन के घटना इहाँ लिखाता।
झूठ बनौआ बात न बाँटे साँचे कहाता॥
देह धीकल बहुत बाटे माथ अधिक पिरात बा।
ओढ़ना बहुत बा देह पर पर जाड़ तनिक न जात बा॥
कुक्कुर कुण्डली पर भी जाड़ा ओइसहीं ज्यादा हवे।
हमरा बदे ई जेठ मानो माघ के दादा हवे॥
* * * *
अति निकट के भी बस्तु अब हमरा न साफ दिखात बा।
ताकत हईं ताकत लगा कुछ ना तबो फरियात बा।
अँखियान में आँसू भरल भरले रहत दिनरात बा।
अति धुन्ध चारू ओर से छवले रहत न ओरात बा।
अब पुलिस आँसू गैस जनु बरसा रहल दिनरात बा।
हम भीड़ अनियन्त्रित मनो सनकाह या हाथी हईं।
अथवा कि बीहड़ वासिनी फूलन के हम साथी हईं॥
कवित्त :- मणिबन्ध बायाँ आ दीवाल और मेज इहे
तीनो ठाँव पर आ के आसन जमावेले।
जन साधारण और घोर नास्तिकन से भी
मुँह निज तका के तऽ साइति बतावेले।
सब ही बहिर आ छोटकी बज्र बौको होति
बारह से आगे कौनो गनियो न पावेले।
काम करे सर्वदा आराम कबहूँ ना करे।
एही से मानो मने सब का सदा भावेले॥
दोहा :- नित्य नियम से चैत में महुवा तर प्रति वर्ष।
ओला बरसत प्रात ही बीनत कृषक सहर्ष॥
सेमर सिरिस परास पर लसत लाल अंगार।
सखा संग झूलत कबे नवानवा के डार॥
* * * *
झाडू सूर्य-किरण के बना। साँझि का बेरा निशि अंगना॥
गगन के मानो साफ गहारि। पथार निज देले उहाँ पसारि॥
बियोगी जन के निकलत आह। पाइ के ओकर मानो धाह॥
रातिभर सूखत उहाँ पथार। होत जब तक ले ना भिनुसार॥
किन्तु जब होखे लागत भोर। निशा तब लेति पथार बिटोर॥
डरति जनु कौवा कुक्कुर आय। पथार दीहें ओकर जुठियाय॥
केहु के बात सुनतना कान। आँखि लखे जनु धुवाँ जहान॥
ढोवत में शरीर के भार। पगु दूनूँ मनु मानत हार॥
मुँह में चलत रहे जे जात। टूक टूक हो अब बिलगात॥
पारापारी एकहे चूर। होत जात बा मुँह से दूर॥
छप्पय :- कपड़ा कागज काटि देत उत्पात मचावे।
डर मारे रपट न गृहपति मनो लिखावे॥
पुलिसो डर से मनो न पकड़त बान्हत आ के।
हाकिम डरि के दण्ड देत ना केस चला के॥
मानो जग में ना केहू बा जे ना इनसे डरत।
एसे ई निशंक हो आपन मनमानी करत॥
चौपई :- माघ मास के पाला ठार। आ के जब दुख देत अपार॥
ईश्वर करुणा से भरि जात। रोके बदे शीति के घात॥
धुनल रुई के भारी ढेर। जग में मानो देत बिखेर॥
रुई राशि नभ में छितरात। जेमें रवि शशि भी ढकि जात॥
कम से कम सप्ताह दु तीन। रहत रुई में जगत बिलीन॥
जड़ चेतन सब रहत दनात। बीति जात हिम के उत्पात॥
गरमी बढ़त वृद्धि की ओर। रवि शशि भी तब करत अँजोर॥
गरम बतास चले लगि जात। रुई अदृश्य होत अधियात॥
ऊठे या बइठे के बेर। राम नाम तनि कसि के टेर॥
मदत राम से मनो मँगात। तब उठल या बइठल जात॥
चलत फिरत में आठो याम। शिर धरती के करत प्रणाम॥
हाथ मिलाइ रहल बा हाथ। मानो केहु प्रिय जन का साथ॥
ओकर काम न हवे ओरात। चाहे दिन हो चाहे रात॥
बीते लागत जब बइसाख। धरती के तृण जरि के राख॥
सब प्राणी का आगे दूर। नदी विचित्र बहति जल पूर॥
लहरत मनो आगि के आँच। या कठपुतरी के हो नाच॥
बिनु अड़ार के दुओ किनार। जहाँ न कीचड़ और सेवार॥
मछरी बेंग तथा घडि़यार। ओ जल में ना करत बिहार॥
पशु पक्षी न सकल जुठियाइ। केहुवे उहाँ सकत ना जाइ॥
जब आरंभ होत बरसात। नदी सूखि के स्वयं बिलात॥
2. हेतूत्प्रेक्षा अलंकार
भेद :-
क :- सिद्धास्पद हेतूत्प्रेक्षा
लक्षण (सार) :-
सिद्ध बिषय आधार रूप में जब कवि लोग धरेला।
आ उत्प्रेक्षा आधारित जब ओपर गलत करेला॥
तब सिद्धास्पद हेतु नाम के उत्प्रेक्षा बनि जाला।
असिद्धास्पद हेतु होत तब गलत अधार धराला॥
उत्प्रेक्षा आधार जहाँ पर संभव बात-धराला।
सिद्धास्पद हेतूत्प्रेक्षा ओके मानल जाला॥
उदाहरण (सवैया) :-
भगवान जी हाथन में हमरा दुइ मोती धरे के बिचार न कैले।
सुतला पर हाथ खुली तब मोती चोराई केहु मने सोचते भैले।
अँखिया दुओ बन्द रही सुतलो पर चोर चुरा न सकी सुति गैले।
बस एही से मानो दुओ अँखियान में मोतियाबिन्द छिपाइ के धैले॥
दोहा :- आँसू बहुते बहत बा स्वजन मृत्यु सुनि कान।
आँखि मनहुँ करि लेति बा असउच के असनान॥
कुतुब नुमा बिनु राति में होय दिशा के ज्ञान।
एसे ध्रुव के अचल मनु करि दिहले भगवान।॥
वायुमान नभ में उड़त गरज सुनाय सुनाय।
ताकी पंछी भागि जा आ के ना टकराय॥
तरकुल ताड़ी देत बा आपन देह कटाय।
बड़ मनइन के देत बा मनु उपकार सिखाय॥
अस्तुति कन्या आजु ले परल कुँवार देखात।
सज्जन एके ना चहें दुर्जन पास न जाति॥
तन कटाय नीरा गिरा पर के हरत पियास।
तरकुल एही पुन्नि से बढि़ के छुवत अकास॥
हरिगीतिका :-
लखि मनुज के गोहुवन उठावत माथ फन फइलाइ के।
पद चिन्ह दुई दिखलाइ मानो कहत बा फोंफियाइ के॥
कृष्ण के पगु चिन्ह दुइ हमरा कपारे धइल बा।
अतएव हमरा जाति के शुद्धीकरण हो गइल बा॥
तूँ दूर हटि जा जल्दिये हमसे सदा फइले रहऽ।
जब तक धनाधिप के उठा के कान्ह पर धइले रहऽ॥
हम निर्धनी शिव का संगे बानी बसल आराम से।
तूँ धनाधिप के सवारी सिर्फ धन का काम से॥
कुछ बस्तु गुरू के तुच्छ भी ले गैल तीव्र निषेध बा।
शिक्षा इहे सब छात्र के दिहले हमन के वेद बा॥
बहुमूल्य शिक्षा गुरून के एसे न छात्र ग्रहण करे।
अतएव खाली हाथ ऊ चलि जात बा अपना घरे॥
गुरू भक्ति अब का छात्र लोगन में बहुत बढि़यात बा।
गुरू के निरंतर श्रम कइल ना देखि उनका जात बा॥
एसे मनो रहि रहि चलावत छात्र सब हड़ताल बा।
जेसे करत आराम गुरू सब और होत निहाल बा॥
रामो सूर्यबंशिये आ सुग्रीव सूर्य के बेटे।
जातिवाद में परि के लगले राम धंधा के भेंटे॥
बिना जाँच पड़ताले उनके मंत्री सखा बनौले।
तब से जातिवाद भारत बा अब तक ले अपनौले॥
रामचंद्र के बन भेजे में सुरपति छिपि के जोड़ लगीले।
रामो बदला लेबे खातिर बन ही में उपाय उपरौले॥
भागल भाई के भुलिया के भेजले युद्ध रचौले।
इन्द्र पुत्र रण निरत बालि के तरुतर छिपि के मारि गिरौले॥
* * * *
अपनी सरकार सनातन धर्म का पालन अक्षरश: करती है।
द्विज के प्रति सेव्य समादर का वह भाव सदा मन में धरती है।
किसी सेव्य से सेवा कराने में पाप महान लगेगा अत: डरती है।
इस कारण से वह सेवक में द्विज को न कभी भरती करती है॥
चौपई :-
भाई भरत दूत हनुमान। दुओ राम के भक्त महान।
प्रतिद्वन्दिता भाव अपनाय। भरत सोचले एक उपाय।
प्रतिद्वन्दी के पाछे ठेलि। हम उनका से जायीं हेलि।
लगे नारि में उनके ध्यान। हम पा जायीं प्रथम स्थान।
सोरह कन्या परम ललाम। कपि के दिहले भरत इनाम।
ताकी उनके मन बँटि जाय। प्रभु सेवा से कुछ हटि जाय।
नारद चहलें करे विआह। हरि का मन में उपजल डाह।
मुनि निजघर जब लिहें बसाय। घर में मन निज लिहे रमाय।
सुधि हमार दीहें बिसराय। के तब तीनि लोक में जाय।
घूमि-घूमि के बीन बजाय। आ ओपर हमार गुन गाय।
करी हमार प्रचार सचाह। बिना सवारी बिनु तनखाह।
मुनि के कटले अत: वियाह। सहले शाप जनित दुख दाह।
सवैया :-
दाग मिटावे के मानल जात बा तीनि गो एक सँगेजे दवायी।
पावक पानी आ राख तिनूँ शिव का मथवा पर देत दिखायी।
चन्द्रमा जा के अत: शिव का मथवा बसले लखि एक भलायी।
आपन जे करियापन दाग बा ऊ सगरे सहजे में धोवाई॥
* * * *
शिव का शिर पर भाई आपन शशि के बइठल पवली।
अत: लजा के मानो शिव के आपन पति न बनौली।
शिव जी सोचले कवन लाभ बा बिनु लछिमी के जियले।
एही दुख का मारे शिव जी मनो हलाहल पियले॥
* * * *
उर में घड़ी का तीन तेज सूई घूमें सदा
जेसे ऊ निरन्तर असीम कष्ट पावेले।
पीड़ा का मारे चुप चाप रहल जात नाहीं
रात और दिन भी कँहरते बितावेले।
कष्ट से सुमुक्ति हेतु तब आदमी का पास।
आस लेके बहुते दयालु जानि आवेले।
दायाँ हाथ काढि़ के निकाले बदे खाली-
राखि बायाँ पहुँचा पै सदा आसन जमावेले॥
* * * *
पहिले मनई से डेरात रहे घड़ी एसे दिवाल पै आ के टँगाइल।
तब आइल मेज पै आ उहवाँ से लजाइले जेब में जा के लुकाइल।
आदमी का लगे पौलसि चैन त आदमी पै विसवास बन्हाइल।
अब तऽ पहुँची बनिके पहुँची पहुँचा पर आ छुटि गैल लजाइल॥
(ख) असिद्धास्पद हेतूत्प्रेक्षा
लक्षण (सार) :- उत्प्रेक्षा आधार असम्भव जहवाँ धइल देखाला।
असिद्धास्पद हेतूत्प्रेक्षा उहवाँ मानल जाला॥
या
उत्प्रेक्षा के हेतु जब रहत गलत आधार।
असिद्धास्पद हेतु तब मानत कवि संसार॥
उदाहरण (छप्पय) :-
छोटा सा परिवार सदा केरा के भावे।
बढ़त देखि परिवार घोर चिंता उर छावे॥
कइसे पोषण क्रिया रही अब सबके जारी।
कइसे सबके होत रही समुचित बढ़वारी॥
एही चिन्ता में परल सपरिवार मानो मरत।
या रोगी हो के जियत ना उजहत फूलत फरत॥
हरिगीतिका:-
गुरु भक्ति अब का छात्र लोगन में बहुत बढि़यात बा।
गुरु के निरन्तर श्रम कइल उनका न देखल जात बा॥
अतएव रहि-रहि के चलावत छात्र सब हड़ताल बा।
जेसे मिलत गुरू लोग का आराम होत निहाल बा॥
बस्तु गुरू के एक भी ले गइल घोर निषेध बा।
छात्र खातिर इहे शिक्षा देत आपन बेद बा॥
अत: गुरू के दिहल शिक्षा गुरू चरन में पुनि धरे।
और खाली हाथ होके छात्र चलि जाता घरे॥
आकाश में तारा समूह दिखात बा जे अति घना।
सूर्य अपना किरण के लमहर सुदृढ़ झाडू बना॥
आकाश देत बहारि तारा सकल झारि गिराइ के।
ताकी न रथ का राह में रोड़ा बने ऊ आइ के॥
झाडू चलावे के कठिन श्रम परत प्रात: काल बा।
अत: रवि के देहि प्रात: काल लउकत लाल बा॥
सवैया :- कबे बायें कबे दहिने चलिके सियराम के पैर के चिन्ह बरौले।
बन जात में लक्ष्मण जी अपना बदे राह नया एगो टेढ़ बनौले।
भइले एह जन्म में राम के भाई त भक्त सदा अनुरक्त कहौले।
पर जिहान जाति रहे पहिले के अत: चलियो टेढ़की अपनौले॥
दोहा :- ताड़ वृक्ष ना करत बा शाखा के विस्तार।
ताकी बानर ना करे चढि़ के फल संहार॥
कोर्ट कचहरी छोट बड़ सगरे ओसे डरत बा।
ओकरा ऊपर ना दफा कवनों कायम करत बा॥
गाँव पंच के रहनि लखि रोवे लागल न्याय।
चाँद सुरुज का किरिन में जा के गइल लुकाय॥
वायुयान जब उड़त तब गरज सुनावत जाय।
ताकी पंछी भागि जा आके ना टकराय॥
डरि के पत्थर मूर्ति में सुर सब गइल समाइ।
ताकी खटमल मच्छर देहि काटि ना खाइ॥
बुलबुल के चर्चा न जब हिंदी में कुछ भैल।
तब चर्चित होखे बदे उर्दू में चलि गैल॥
आठ मास खटमल करे मानुस रक्त अहार।
अनशन पाप मिटे बदे करे मास तब चार॥
नेता के ऐश्वर्य लखि नृप सब गइल लजाय।
राजपाट तजि सादगी अत: लिहल अपनाय॥
सार :- राम सूर्यबंशी सुग्रीवो सूर्य देव के बेटे।
जातिबाद पालन हित लगले राम धध के भेंटे॥
बिना जाँच पड़ताले उनके मंत्री सखा बनौले।
जातिबाद रामे जी पहिले भारत में जनमौले॥
बर्फ देखि के हिमगिरि पर के सूरज बहुत डेराले।
एसे जाड़ा में दिन पर दिन दक्षिण टकसत जाले॥
हरिगीतिका :- पापी ग्रहन में नाम सूरज के सदैव गनात बा।
नित बिनु जियाने जल जरावत दिल न तनिक दयात बा॥
जब जाड़ आके तेज उनके बहुत कुछ हरि लेत बा।
तब रूप कुहरा के जरावल जल उहे धरि लेत बा॥
आ बैर के बदला सधावत आक्रमण करि देत बा।
कुछ देर तक अस्तित्व उनके जगत से मिट जात बा॥
आ ग्रहण से भी अधिक उनके दुर्दशा दिखलात बा॥
चौपई :- सम्पति सजी सुदामा गेह। भेजले नीक निभौले नेह॥
भइले कृष्ण निपट असहाय। घर में गइल गरीबी छाय ॥
देखि सुभद्रा बहिन कुँवार। मन में चिंता भइल अपार॥
मुखड़ा भइल निपट निस्तेज। का बियाह में देब दहेज॥
छप्पन कोटि यदुबंशी भाय। भात कहाँ से सकबि खियाय॥
तब तक सुझल एक उपाय। अर्जुन से कहले समुझाय॥
सुभद्रा के रथ पर बइठाय। ले जा अबे तुरन्त भगाय॥
करि दऽ इन्द्रप्रस्थ प्रस्थान। ना केहु जाने कानों कान॥
उहवें करिहऽ सबिधि बियाह। उत्सव करिहऽ यदि हो चाह॥
हम इहवाँ सब के समुझाय। देब विघ्न केहु करी न जाय॥
अर्जुन के भी पूजल चाह। धइले इन्द्रप्रथ के राह॥
रोगी का मन जवन सुहाय। दिहले वैद्य उहे फुरमाय॥
सवैया :- गरमी पवले कुछ वस्तु का आकृति में बढ़ती अनिवार्य दिखात बा।
रितु ग्रीष्म के दिनवाँ एहि कारनसे हरसाल बिशाल सुहात बा।
जब जाड़ में ठण्डक पावत बा जस के तस छोट पुन: बनि जात बा।
कवि कल्पना ई ना हवे तनिको एहि में सही बात सुसिद्ध कहात बा॥
कुण्डलिया :-
पर घर में दे सेन्हि आ कब्जा करत हठात।
खाद्य बस्तु सब खोजि के चुरा चुरा के खात।
चुरा चुरा के खात रोकि ना गृहपति पावे।
जलकर गृहकर कबे न केहु के केछु चुकावे।
पुलिस मनो डरि जात कसत हथकड़ी न कर में।
केतनो ऊ अपराध करे जा के पर घर में॥
* * * *
साँप गोहुवन मनुज के लखि के उठावत माथ बा।
निज फन बढ़ा फुफकारि के जनु कहत साथे साथ बा॥
रुकि जा उहें आगे बढ़ऽ जनि आँखि खूब उघारि लऽ।
सिर पर इहाँ श्री कृष्ण के दुइ चरण चिन्ह निहारि लऽ॥
अतएव जाति हमार जग में पूज्य मानल जात बा।
सावन सुदी तिथि पंचिमी के दूध सहित पुजात बा॥
भीति पर आकृति कई गो रचल जात हमार बा।
प्रतिबर्ष आदर से मनावल जात ई त्यवहार बा॥
छुवाय न देहि हमार हमसे दूर हटि फइले रहऽ।
तू कान्ह पर अपना धनाधिप के सदा धइले रहऽ।
हम शंभु के माला बनल बानी सदा आराम से।
आ तू धनाधिप के रहऽ वाहन सदा धन काम से॥
* * * *
नारिन के मन झगरा कइला में अधिकांश रमेला।
लेकिन सास पतोहू वाला झगरा खूब जमेला।
कुन्ती सोचली द्रुपदी से जब होई गारा गारी।
तब चरिभतरी हमरा के ऊ कहि के सदा पुकारी।
एसे पंचभतरी द्रुपदी के ऊ अगताह बनौली।
विजयी बने बदे झगरा में इहे नीति अपनौली॥
* * * *
मुरुगा उठे ब्रह्म बेला में रवि के नित्य पुकार।
सूरज उनके बिनती सुनि के जल्दी किरन पसारे।
ताकी मुरुगा भोजन आपन खोजे भूखि बुतावे।
एगो और विशेष कृपा भी रवि उन पर दिखलावे।
भोरे से लाली आपन रवि रखें न अपना पाले।
ऊ लाली मुरुगा का कलंगी पर प्रतिदिन दे जाले।
3. फलोत्प्रेक्षा अलंकार
भेद
क- सिद्धास्पद फलोत्प्रेक्षा
लक्षण :-
उत्प्रेक्षा के आधार सही पर उत्प्रेक्षा जब गलत रहे।
सिद्धास्पद फल उत्प्रेक्षा तब ओकरा के कवि लोग कहे॥
उदाहरण (सवैया) :-
कबे बाँयें कबे दहिने चलि के सियराम के पैर के चिन्ह बरौले।
बन जात में लक्ष्मण जी अपना बदे मारग एक गो टेढ़ बनौले।
रहले सही साँपन के पुरुखात बो राम के भाई आ भक्त कहौले।
पुरूखा के परम्परा पाले बदे गति बक्र बा साँप सभे अपनौले॥
दोहा :- बानर करि पावें नहीं फल पतई संहार।
एसे बहुते ऊँच बढि़ ताड़ करत विस्तार॥
डाढि़ पात ना एक भी रखत ताड़ उपजाय।
कि बानर ना आइ के पा अलम्ब चढि़ जाय॥
सेवत शिव के साँप सब अंग अंग लपटाइ।
ताकी शिव निज देह से दें कुछ विष हरषाइ॥
बरखा रितु में बेंग सब गला फारि चिल्लात।
लेकिन कातिक आवते पुनि अदृश्य हो जात॥
नेता होखे के मनो करत बेंग अभ्यास।
जीति चुनाव सुदूर जा भोंगत भोग विलास॥
पर्वत आ बादर सदा करत रहत जल दान।
ताकी उच्च बनल रहे जग में उनके स्थान॥
सार :- सूर्य निशा देवी के बैरी उनके देखि न पारें।
आपन हाथ हजार चला के खेदि के मारें॥
लखि सूर्यास्त अत: निशि देवी उत्सव सदा मनावें।
लोक प्रशंसा पावे खातिर नभ में दिया असंख्य जरावें॥
छोट राति ग्रीष्म में प्राणी पूरा सूति न पावें।
नीद पूर्ति खातिर तब ईश्वर तमहर दिवस बनावें॥
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जीव जन्तु जे जग में बाटे पगु से सब धरती के खाने।
बिनु धरती के खानल दोसर विधि ना चले फिरे के जाने।
धरती सोचली कि पतोह भी आपन यदि कहियो चलि आई।
उहो चली हमके कचारि के ऊ अपमान सहल ना जाई।
धरती बचे बदे एह दुख से कि ई दुख ना परे कपारे।
मंगल के वियाह ना कइली बाड़े अब तक परल कुँवारे॥
(ख) असिद्धास्पद फलोत्प्रेक्षा
लक्षण (सार) :- आधार असम्भव उत्प्रेक्षा के जब कुछ धइल रहेला।
असिद्धास्पद फलोत्प्रेक्षा तब कवि लोग कहेला॥
उदाहरण (सार) :-
मुरुगा उठे ब्रह्मबेला में रवि के नित्य पुकारें।
सूरज उनके बिनती सुनि के जल्दी किरन पसारें॥
ताकी मुरुगा आपन भोजन खोजें भूमि बुतावें।
एगो और विशेष कृपा भी रवि उन पर दिखलावें॥
भोरे के लाली आपन ऊ रखें त अपना पालें।
ऊ लाली मुरुगा का कलंगी पर प्रति दिन दे डालें॥
गणाध्यक्ष के पद महान जब लम्बोदर जी पौलें।
बंजर हथियावे खातिर तब मन में लोभ बढ़ौलें॥
एसे मनो सवारी चुनले मूस कि हर दम कोड़ी।
केतनो केहु रोके चाही पर बानि न आपन छोड़ी॥
वाहन का ऊ बनी बहाना वाहन के बनि जाई।
एको पाँव से भीरि परत में ऊ तुरन्त चिपराई॥
बल रहले बलवान कृष्ण जी उनके रोकि न पवले।
रातो दिन पी करके घर के सम्पति सब सँपरौले॥
बहिन कुँवारि परल बा घर में चिंता उपजल भारी।
हाथे माथ पकडि़ के सोचे लगले कृष्ण मुरारी॥
भारी खर्चा लागी बियाह में धन कहवाँ से आयी।
छपन कोटि यदुबंशी भाई भात कहाँ से खायी॥
बाँचे बदे खर्च से एगो नयी युक्ति अपनौले।
कानों कान न जानल , केहू अर्जुन के समुझौले॥
आपन रथ दे अर्जुन और सुभद्रा के बइठौले।
दम्पति रूप दुओ के दे के मथुरा शीघ्र पठौले॥
बर्फ देखि के हिमिगिरि पर के रवि बहुते हरषालें।
ताप मिटावे खातिर ग्रीषम में उत्तर चलि जालें॥
कुण्डलिया :-
झंगा अपना किरन के रवि नित लेत बनाइ।
उडु रोड़ा आकास के देत बहारि गिराइ।
देत बहारि गिराइ कि हचका तनिक न लागे।
साफ भूमि पर चलत रहे रथ सुख से आगे।
दुर्घटना ना होय मचे ना कतहीं दंगा।
अत: बहारल जात सड़क नित ले के झंगा ߽ ॥
दोहा :- बुलबुल के चर्चा न जब हिंदी कवि केहु कैल।
तब चर्चित होखे बदे उर्दू में चलि गैल॥
आठ मास खटमल करें मानव रक्त अहार।
अनशन पाप मिटे बदे करे मास तब चार॥
पद कन्दुक पद परसि के पुण्य कमात अपार।
कि ओके लोके बदे सिर सब रखत तेयार॥
जुगनूँ चमके पेड़ पर ऊँचा देखि अथान।
ताकी ओकरा चमक के दुनियाँ करे बखान॥
सेवत शिव के साँप सब अंग अंग लपटाइ।
ताकी शिव निज कण्ठ के विष दे दे हरषाइ॥
शिव का गर में परल बा विष बिल्कुल बेकार।
मिलित पुलिस का तब चलित तेजी से कुछ कार॥
ब्याल बसें शिव शरण में गतर-गतर लपटाइ।
वाहन कहीं कुमार के धरि के जनि खा जाइ॥
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मेहरारून के मन स्वभावत: झगरा कइला में अधिकांश रमेला।
लेकिन सासु पतोहू वाला झगरा प्राय: अधिक जमेला॥
कुन्ती सोचली द्रुपदी से जब होई गारा गारी।
तहिया हमरा के चरि भतरी कहि के ताना मारी॥
एसे द्रुपदी के पाँच पुरुष से शादी स्वयं रचौली।
गारी से बचि जायेके अगताहे राह बनौली॥
कवित्त :- बायाँ अंग पर निज माने अधिकार सदा
अत: बायाँ पहुँचा पर आसन जमावेले।
बड़े-बड़े आस्तिक आ नास्तिक दुओ के
नित्य साइते का हेतु मुँह आपन तकावेले।
साइकिल सवति पर आज्ञा चले एही के
तेज चाहें धीमी चालि ईहे चलवावेले।
घर में मिटावे के डाह सवति वाला मनो
पत्नियों का पहुँचा पै जा के छवि छावेले॥
सवैया :-
तरया तरकूलवा आ पटहेरवा में जहवाँ बसें थानाधिकारी।
शिव मंदिर तीनूँ का पास हवे सब थाना हवे शिवजी के पुजारी।
शिव कण्ठ में बा विष जेकर चाह पुलीस रखे मन में अतिभारी।
कि पुलीस निकालि सके निज कण्ठ से नित्य हलाहल सानल गारी॥
दाग मिटावे के मानल जात बा तीनि गो एक सँगे जे दवाई।
पावक पानी आ राख सजी शिव का सिर पै सहजे मिलि जाई।
शंकर का मथवा पर चंद्रमा जा बसले इहे आस लगाई।
ताकी उहाँ करियापन आपन के करि लें सहजे में सफाई॥
(ब) गम्योत्प्रेक्षा अलंकार
(प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा)
लक्षण (सार) :-
उत्प्रेक्षा वाचक शब्द न एको जहवाँ कहीं धराला।
ऊ प्रतीयमाना नामक उत्प्रेक्षा मानल जाला॥
दोहा :-
जे प्रतीयमाना हवे ऊपर इहाँ कहात।
गम्य गूढ़ आ ललित भी ऊहे मानल जात॥
उदाहरण (दोहा) :- गर्मी पा कर के बढ़त बस्तुन के आकार।
ग्रीषम ऋतु में दिवस के बढ़त बहुत बिस्तार॥
पद कन्दुक पद परसि के पुण्य कमात अपार।
कि ओके लोके बदे सिर सब रखत तेयार॥
सार :- छोटे राति ग्रीष्म में प्राणी पूरा सूति न पावें।
दिन में ईश्वर सूते खातिर लमहर दिवस बनावें।