भक्त की बात
1
पावन पतित पुरुषोत्तम सों पारब्रह्मा,
परम 'द्विजेश' प्रजा-पीर-हर बर हौ।।
कृष्णचंद्र केशव कृपाल करुणा के सिंधु,
गुरु-गोविंद गिरधर गरीब परबर हौ।।
धामन के धीस ईस अमित अरामन के,
कामन के तुमहीं कलप-तरुवर हौ।
करद कुकालन के, पुंज प्रतिपालन के,
मुकुति मरालन के मानसरवर हौ।।
2
गुनि गुन कौन गीध गनिकैं सुगति दीनी,
गनि का सुकीरति अजामिलैं उधारी हो।।
बस जस उनकी सो तस गति मेरी गुनो,
अबस 'द्विजेश' तातें तुमको पुकारी हो।।
अब तो सजायसहिबे की ना सकति, यातें-
बेर तें बकत राह तकत तिहारी हो।।
ह्वै चुकी बहुत, फल पापन के भोग चुके,
अब दुख काटहु गोविंद गिरधारी हो।।
3
संगति निषाद तें निषाद-गुन सीखो भलो,
अधम असाध भव-सिंधु तें उतारी हो।।
लैलै तन-ताप उताराई उनहीं ते आप,
दोष-पाप काहू को 'द्विजेश' ना विचारी हो ।।
नाबरी हमारी परी भाँवरी भरम बीच
अबनि फँसावरी तें अब है लचारी हो।।
ख्याल गुन पाल प्रतिपाल कै लगाओ पार,
तजि भ्रमजाल हे गोपाल गिरधारी हो।।
4
मैं तो अधकारी अच्छ, स्वच्छ अघहारी आप
प्रबल प्रतच्छ दोऊ आपने प्रबंध के।।
ज्ञान अक्ष हानी जो 'द्विजेश' आप जानी, तापैं-
हौंहू पहिचानी आप दानी दीठि अंध के।।
मैं तो उपहासी, उपहास के विनासी आप,
छीर-सिंधु वासी हम आसी कृपा सिंधु के।।
भलकैं विभासी समता है खूब खासी
आप दीन के तलासी हौं तलासी दीनबंधु के।।
5
जाही करतारी पै उधारी अधी केते तुम,
जाहों ते करी कृपा सु केते अपकारी पै।
जाही पै न ताकी बेर द्रुपद सुंता की बेर,
तापै कहा ताकी बेर बिपति हमारी पै।।
करन 'द्विजेश' जोरि अरजी करन आयो,
करुना करन हेतु करन तिहारी पै।।
ऐसी करतारी जो न दोऊ कर तारी, तो-
बजेगी कर तारी करतार। करतारी पै।।
6
श्रद्धा हौ सुनी है तुम्हें बिपति बिसाहिबे की,
बेचिहौं विपत्ति सत्य सत्य ही कहो, लोगे?
लेहु जो तो दैहैं हम थोरे दया दाम ही मैं,
लेहुगे कि बैठे व्यर्थ बात ही बतोलोगे।।
खोजन जो जैहो तो 'द्विजेश' सी न पैहौ कहूँ,
पैहौ नबै कोप ही कृपा को जब खोलोगे।।
लो बिपत्ति या तो या तो कीजै बंधु नातो,
अब ना तो दीन-बंधु ते अदीन बंधु बोलोगे।।
7
ठानि लई बानि जो पै विपति बिदारिबे की,
तो मोसों विपत्ति दूसरे सों कहाँ पाबैगो।।
दाहिन दयाल ह्वै द्रबोगे जो न नाथ, तो-
'द्विजेश' मोसों दीनबंधु कैसे कहबाबोगे।।
पातकी प्रचंड तो हई हैं पै करौगे कहा,
पावन पतित ऐसो नाम का मिटाबोगो।।
यातें एक बार दृढ़ ह्वै जो मोहिं दैहौ तारि,
फेरि तारिबे को तुम्हें औसर न आवैगो ।।
8
होवैगो गरज कृपा सिंधु जो कहाइबे की,
तोपै कृपा कोर मों निहोर क्यों न करिहौ।।
आपने अनुग्रह को दैहो जो न आप,
तो न कहिहौं कदापि-आप आपदा के अरि हौ।।
कहिहौ जरुर, है 'द्विजेश' मगरूर, पै, कहे पै-
कूर ही के निज बानि क्यों बिगरिहौ।।
जैसे तुम हरिहौ सो जानत हैं हरि हो,
पै दुख मो न हरिहौ तो कैसे कहैं हरि हौ।।
9
हाजिर हैं रावरे हजूर मजबूर ह्वै के,
मुक्ति-जुक्ति आपनी सु याही मन मौंजैंगे।।
चरन-सरोजैं जगदीस के धरेंगे सीस,
ऐसो ईस पाय आपदा मैं कहा ओजैंगे?
खातिरजमा हो खूब खातिर करेंगे हम,
राबरे जी खातिर अखातिरी न जोजैंगे।।
आप रोज रोजैं चहो और दीन खोजैं, पै-
'द्विजेश' दीनबंधु अब दूसरो न खोजैंगे।।
10
ए हो नाथ। हौं तो कछु रोज तें सुनी है ऐसी,
दान असनान के कितेक फल पाए हैं।।
सोई जिस जानि मानि रावरे दया को ढ़ग,
दान-पात्र सो तेहिं 'द्विजेश' ठहराए हैं।।
कुस है कुकर्म, अघ अच्छत विपत्ति वारि,
दान द्रव्य दीरघ दिनाई दरसाए हैं।।
लागो प्रन पर्व को सुनी है कृपा सिंधु बीच,
कृपा सिंधु यातें हौं अन्हान आजु आए हैं।।
11
वैद्य बनि बैठो आछे आए हौं संयोग कछू,
कीजिए प्रयोग मेरे रोग रंकता को है।
दीजिए स्वमूठी करुना की एक घूंटी, यही-
औषधि अनूठी मेरी विपति व्यथा को है।।
कुदिन एकंत मिल्यो तामैं पतिताई पंथ,
अघन अनंत सों 'द्विजेश' मन थाको है।।
तुम्हें दीन ताको भार पाय दीनता को, अहो-
दीनबंधु ताको आस दीनबंधुता को है।।
12
मधु-सी मधुर कैधों खासी खुरमा सी खूब,
ईख के सरीख कैधों बाहू तैं दुचंद की।।
आम सों मजेज कैधों अधिक अँगूर हू लौं,
केदली डली धौं किधौं वासी मकरंद की।।
मिश्री युत माखन मजा सी धौं 'द्विजेश' कहूँ,
भासी जो सुधा सी तो प्रकासी मों पसंद की।।
येहो अविनासी जू। जरा सी हूँ चखै तो सही,
कैसी मधुराई है तिहारे कृपा कंद की।।
13
जग जगदीस दीनों जब तें हमारों जन्म,
कीनो न प्रयत्न कछु आपने तरन के।।
एक इन्हीं दोउन में जीवनी बिताई वृथा,
नेम सों 'द्विजेश' प्रति-पालन करन के।।
अब बल थाक्यो शक्ति पालनी न बाकी बची,
तातें नाथ आए हौं सिपारसी सरन के।।
पाप पति पतिनी विपत्ति जो संपतनीक,
पास में रहें ये परे राबरे चरन के।।
14
हे गरीब परबर। सलामत रहो जू सदा,
अरज 'द्विजेश' आप ऐसे दया दाता सों।।
मैं हूँ दीन दीरघ दिखात है न आरापार,
एक ही अधार दीनबंधुता के नाता सों।।
देखो धम शास्त्रन के दुख अधहारी धार,
गीध गनिकादिक अनेक अपघाता सों।।
आसा है अवश्य ये नजीरन पै मेरो नाम,
खारिज करोगे खतावारन के खाता सों।।
15
जैहों वहि देस ज्ञान मारग मिलैगो जहाँ,
सोच यों कि संग में समान सफरी रहै।।
मेरे पास वित है विपत्ति, यातें चाहौं यहै,
काहू सत्य संजमी कि सेवा में परी रहै।।
देखत जहाँ लौ तहाँ तुम सो न सत्य, यातें-
अरज 'द्विजेश' जिय राबरे भरी रहै।।
मुक्ति पद पाय जौलों पलटि न आबौं नाथ,
तौ लों मेरी आपदा अमानत धरी रहै।।
16
आए कै करार काज कीनो ना तिहारो कछू,
भए है 'द्विजेश' यातें रावरे सों करजी।।
ह्वै के विज्ञ तू हूँ अज्ञताई में विलोकि मोहिं,
करत बुराई बार एक हू न बरजी।।
तारिबो तिहारो ताकि ताकि तरसत जीव,
कीजिए मों फिकिर न फेरिबो है फरजी।।
गरजी कृपा के अरजी तो है हमारी यही,
फेरि अब जैसी हो गोविंद तेरी मरजी।।
17
तारिहौ या कि दुराइहौ द्वार तें,
जो जिय हो, सो विचारि कहो तो।।
होती प्रभति हमैं तुम सी तौ,
अनेकन पाप छिनेक मैं खोतौं।।
दास तिहारोई है तो 'द्विजेश',
चहै जिय जो प्रभु सोई करौ तौ।।
चाखते तो भला याको मजा,
तुमहूँ पै कहूँ कछु पातक होतौ।।
18.
मों सम न पातकी 'द्विजेश' पुहुमी के बीच,
तो सम न पातक हरैया पतितान को।।
पायकैं न लायक पै हूजिए सहासक, यदि-
हूँ मैं नहीं लायकै तौ सेवा सनमान को।।
भौंर सो भुलानो फिरै मन मति मंद मेरो,
जो चाहै सुगंध पंकजैं तो चरनान को।।
एहो दीनबंधु! तुम्हैं देखि कैं दया को सिंधु,
मेरी दीनताई आज चाहत अन्हान को।।
19
एक एक घर में न होते दीन एकै एक,
दीनन प्रत्येक बंधु भ्रात बहुतेरे हैं।।
सो तामैं 'द्विजेश' बंधु आपै प्रभू एक,
जो अनेक महा दीनन के दुरदिन फेरे हैं।।
हौहूँ दीन तीखे चहैं राबरे सरीखे,
कछु सीखे हो दयालुता सो यातें तुम्हें टेरे हैं।।
वैसे तो तिहारी सौंह, कहिबे कहाइबे कों,
एक बंधु को कहै अनेक बंधु मेरे हैं।।
20
कस ही कृपालु जू कहाँ हो कौन कारज मैं,
काहे न सुनत मोंहि बेर भई रसते।।
जो पै जानते कि तुम तारक नहीं हो तोपै,
तरिबे अरु तारिबे की बात ही न करते।।
येई तुम तारक तिहारे इन्हीं हाथन तें,
आनि आनि अधम यहाँई पै उधरते।।
ऐसे कछफ कान ही की सुनी ना 'द्विजेश',
इन्हीं आँखिन तें देख्यों हाँ हजारन को तरते।।
21
एकै जग एकै आप अघ के हरन हारे,
अघ के करन हारे कोटिन लखाते हैं।।
जब जब देखों तबै तारिबै की बकवाद,
या विवाद आप आपही तें दरसाते हैं।।
काहे नहीं पाप ही को जर तें जराय देते,
तो 'द्विजेश' झगरे सगर मिट जाते हैं।।
नातौ पुनि मोंहिं कहा बैठि ही सुनौ तो,
अरु देखो अबै पातकी कितेक द्वार आते हैं।।
22
जो पै है परन तेरो अधम उधारिके को,
तो पै छाड़ि तेरे और कछू ना विवेकैंगे।।
सोनो औ सुगंध तोमैं पाइ गुन दोनों प्रभू,
बार-बार पाप की कसौटी लै परेखैंगे।।
लेखोगे कहूँ जो तू 'द्विजेश' मेरे पापन कों,
जेते तुम तारे तेते हौंहूँ तब लेखेंगे।।
जानि पापी तापी जम जाँचन करैगे जबैं,
तेरी तबै दीन-बंधुताई हम देखेंगे।।
23
चीर द्रोपदी मैं वीर आपी थे न और कोऊ,
आपी सेवरी के तीर खाई बेर कै अनिंद।।
आपी गिरि धारि, ब्रज बूड़़त उबारि आपी
खंभ फारि सिंह सों सँवारिकै मुखारविंद।।
चेति चेति आपके चरित्र येहो चत्रुभुजी,
चूमिबो 'द्विजेश' चाहै तातें चरनारविंद।।
आप-आपदा के बीच ग्राह सों गुनाह चाहै-
ग्रसिबो गयंद सों, गोहार लागों हे गोविंद।।
24
सेबरी निबेर पै जो बेर बेर खाई बेर,
थी न वही बेर बेरी आपदा की आरी थी।।
भाजी पै बिदुर के जो भा जी न भाजी वह,
भाजी मिस भाजिवे विपत्ति की बियारी थी।।
चाउर सुदामाके 'द्विजेश' थे न चाउर बे,
चाउर के चित्र सों सचाउर की यारी थी।।
सारी द्रौपदी की जो दुसासनैं निसारी,
वह सारी थी न सारी तौ दयादि सारी सारी थी।।
25
अब को सुनै, कासों कहौं अपनी,
दसा जैसी 'द्विजेश' की बाबरी है।
अरु का कहैं आपहू जानते हैं,
दुख दंभ की जैसी जोराबरी है।।
सुनि आए कि आप बड़े हौ दयालु,
है सत्य धौं झूठी बनाबरी है।।
हमहूँ हैं जुरे यही देखिबे कों,
प्रभु कैसी दयालुता राबरी है।।
26
या दुख दंभ दुराइबे कों,
विनती मैं करी जेहि देवनि ही की।।
ते दुखी दीरघ देखि कैं मोहिं,
सबै प्रति उत्तर दीनी नहीं की।।
राबरे पौर परे हूँ 'द्विजेश',
जो आस न पूरी भई मन ही की।।
तौ जिय जानि कै जैहौं यही,
मनो आपह सीखी नहीं उनहीं की।।
27
करनी ना करी कछफ रीझिबे की,
बरु खीझिबे को दरसावनो है।।
अब तें जो करैं कछु कोल तऊ,
झँठकी बतियाँ बतरावनो है।।
विधि पावनैं की जो बतावैं कछू,
हक नाहक आपै रिसावनो है।।
इक नाते 'द्विजेश' दयानिधि के,
दुख आपनो गाय सुनावनो है।।
28
मेरो बेरो लेन देन होतो यदि ऐसो कहूँ,
हानि लाभ यासैं ना 'द्विजेश' कछु हेरे हैं।।
देबैं हम पाप तबै देवो ज छमा को आप,
देबैं हम ताप तौ दया मैं कौन देरे हैं।।
देबैं तुम्हें मदचार देबो हमैं पदचार,
करो जो विचार तो विचार चारू मेरे हैं।।
काम, क्रोध, मोह, लोभ येई चार मेरे, और
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष येई चार तेरे हैं।।
29
और कौ ठिकानो तो ठिकानो तुमहीं नें सदा,
मों हित ठिकानो कछू ठीक ना ठबत हौ।।
दीन - गृह गामी ह्वै दया के निधि नामी कछू
है यहू न स्वामी आप स्वामी सठबत हौ।।
हारे हो जु हिम्मत 'द्विजेश' मों अधम्मति पै,
तौ कछू सुसम्मति पै काहे हठबत हौ।।
मों सम अनाथ के नहीं जो तुम नाथ तो हे
नाथ द्वारिका के द्वार काकें पठवत हौ।।
30
प्रभु जो प्रतिज्ञा है तिहारी हमैं तारिवे की,
इच्छा होय जैसी तैसी हौं 'द्विजेश' करिहौ।।
पै है एक अरज कितेक अब मेरे मित्र,
कैसे उन्हें छोड़ि एक आएही उधरिहौं।।
सत्य ही कहत लगी लिपटी न आवै सोहिं,
भावै या न भावै यों अवश्य अनुसरिहौं।।
छुथित छमा तें छोड़ि मेरे उक्त मित्रन को,
तारिहो जो आप तो कदापि मैं न तरिहौं।।
31
तुमही इसाइन के गाड अरु ईसामसी,
तू ही मौलबीन के खुदा हो और काबा हो।।
बौद्ध जन तुमहीं को जानत हैं बुद्ध रूप,
तुमहीं यहूदि के अनलआफताबा हो।।
ज्ञानिन के ब्रह्मा तुम्हीं, वैष्णव के विष्णु कृष्ण,
जानत 'द्विजेश' जिय जाके जौन फाबा हो।।
मों सम अनाथन के नाथ तुमहीं ह्वै साथ,
करते सनाथ काशी विश्वनाथ बाबा हो।।
32
नृग निषाद बलि गनिका ,की गुनि बात,
रीझि खीझि यह तेरी , अलख लखात।।
33
दौनन के प्रभु तुमहीं , तुमरेहि दीन।
हौं अति दीन सो यातें अस कहि दौन।।
34
तारिहौ न संभु! तौ हौं अंब की अदालत मैं,
भक्ति को वकील करि नालिस सुनाबैंगे।।
कीनी है करार पापी तारिबे की त्रिपुरारि,
मोपै इनकार यही अरजी लिखाबैंगो।।
दैहो जो जवाब बड़ो पातकी 'द्विजेश',
तो अनेक पातकीन की नजीर दिखलाबैंगे।।
डिगरी इजरांई मैं न तारिहौ दिगंबर, तौ-
कोष करुना को हम कुरक करावैंगे।।
35
हौं सुनी संभु ने तारिबे की,
जगदंब जू मोपै दई प्रन ठानी।।
भाजिहौं जो उनते मैं 'द्विजेश',
तो व्यर्थ ही याकी भई जिंदगानी।।
अन्य अघी सो न जानिहौ मोहिं,
सु थोरही यों कहि दीनी कहानी।।
मेरोई पाप-तरग की वास तें,
गंग जू जाय जटा मैं लुकानी।।
36
चंद्र जो न होतो चंद्रभाल क्यों कहाते संभु,
प्रेत जो न होतों पौरैं पापी कौन पाटतो।।
त्र्यंबक न होतो तिहूँ ताप हरि लेते कहा,
शक्ति जो न होती कैसे बैठे मुक्ति बाँटतो।।
भंग जो न पीते काके मौज मैं मचाते धूम,
कैसेहूँ 'द्विजेश' चूक चित सों उचाटतो।।
गंग जो न होती रंग रंकता को धोतो, संग-
होते ना भुजंग कहो पापैं कौन काटतो।।
37
या जग झोली रची भली, संभु।
नटी भली मुक्ति तुहूँ भले नट्टे।।
तारक मंत्र सों पापी बटान को,
खेलि के देत नटी केहूँ तट्टे।।
खेल्यौ सबै बच्यौ एक द्विजेश
भला अब क्यों रद ह्वे रहे खट्टे।।
खेले बिना बचि जैही कहा,
हमहूँ जो उसी जग झोलि के बट्टे।।
38
कोष करुना लै तापै तनिक न दीनो तोप,
याही तें तो मेरे जिस संका अति ही लयो।
कैधों भए कृपिन कपाली कछु रोज ही तें,
कोषाध्यक्ष कैधों मुक्ति कोष को अथै गए।।
पीके भंग अधिक भए हैं मति भंग कैधों,
कैधों संभु जी की ही 'द्विजेश' गति यों भयो
भंग की नसा मैं पाय पातकी चतुर कोऊ,
आय चुपचाप ही चोराय चाभी लै गयो।।
39
जैसे आप संभु जग जाहिर कृपा के खंभ
सो मैं एक मुख तें सराहौं कहों काह काह।।
पुन्य तें विहीन अहौं पातकी प्रवीन दीन,
छीनिए 'द्विजेश' अघ चीन्हि चित चाहचाह।।
बाढ़े सिन्धु दुख के दिखत अति गाढ़े गूढ़,
ह्वै अरुढ़ ठाढ़े ही बताओ मोहिं थाह थाह।
सुख के निमित्त हम रानी दोऊ भाँति,
भलें दीजैं तऊ बाहवा न दीजै तऊ वाह वाह।।
40
मन कि 'द्विजेश' वल्द ब्रह्म, जाति दीन द्विज,
जिला जग वासी पंचतत्वपुर धाम के।।
आपनी गरज कृपा कर्ज लै गिरीस जू तें,
खर्च जाइबे को मुक्ति भंजिल मुकाम के।।
याहू मजमून लिख दीनो तो जबून कहा,
ब्याज दीनताहूँ जो न देबैं दाम दाम के।।
तौ न पुनि मोसों काम पाप ताप मेरो सबैं,
होवैगो निलाम लाकलाम संभु नाम के।।
नील कंठ
जाके आधे कंठ ही में आधो गिरजा को कंठ,
तौ दुहून कंठ कै एकंठै किन धरिये।।
कंठ ही मैं मुंडसाल, सोऊ कटे कंठन को,
ब्याल माल कंठ विष कन्ठैं क्यों विसरिये।।
पंचमुख एकै कंठ, पंचहू एकंठ जापै,
तौ 'द्विजेश' जी वो जीह कंठै किन ररिये।।
एती विधि की राखिवे की जिन्हें उतकंठ,
ऐसे नीलकंठ को प्रनाम क्यों न करिये।।
पपित पावन
1
पतितहिं पावल को पावनैं सुहावन है,
पावनैं हूँ पावन पतित ही को चहिहै।।
पतित औ पावन दुहूँ के संग पावन तें,
पावन पतित नाम नेम तो निबहिहै।।
मेरो शब्द पतित तिहारे शब्द पावन को,
पै है ना तो पूरो नाम क्यों 'द्विजेश' कहि है।।
कैहै भी तो आधो जो निरर्थ असमर्थ-
जामैं, पावन ही पावन कहावन कौ रहिहै।।
2
आपी आप आपनो कै पावन पतित नाम,
कोऊ ना कह्यो कि तुम्हें नाम ऐसे चहिहै।।
ना तो भक्त पावन, न जक्त व्यक्त पावन-
न पावन विरक्त हूँ जो वेद शास्त्र कहि है।।
केवल पतिन ही के पावन कहाते आप,
सोई गुन गुनिकै 'द्विजेश' तुम्हें गहिहै।।
मेरे सों पतित नहिं पाड है जो पावन,
तो पावल ही पावन कहावन कों रहिहैं।
दीनानाथ
1
दीन अरु नाथ ये दुहूँ ते होत दीन नाथ,
दीनानाथ अर्थ के न ज्ञापी ये कदापी है।।
दीन को जो नाथ, या दया तें दीन नाथ ही जो,
तो ये दुहूँ दीन नाथ अर्थके यो ज्ञापी हैं।।
हाँ जो दीन औ अनाथ, या हो दीन आनाथ,
तो 'द्विजेश' दोऊ संधि के मिलापी है ।।
यातें नाथ जौलौं हम दन औ अनाथ,
तौलों हौंहूँ दीनानाथ हैं न दीनानाथ आपी हैं।।
2
दीना और दीन ये दुहूँतें हौ जो नाथ लीन,
तौ दुहूँ तें दीनानाथ कैसे औ कबैसे हौ।
दीना सौहैं नाथ या कै दीन सौहैं आनाथ,
या दीनैं न नाथ सो अनाथ अर्थ ऐसे हौ।।
दीना के जो नाथ हौ तो दीना जीवनी है मेरी,
या अनाथ दीन हौ तो जीवनैसे हौ।
हाँ जो नहीं ऐसे तो हमारे दुहूँ दीना दीन,
कैसे तुम्हें जानैं तुम दीनानाथ कैसे हौ।।
3
हम हैं जो दीन तो तिहारी दया से ह्वै हीन,
तूहूँ दीन मोंपै दया हीन जो खुदैसे हो।।
हम जो अनाथ नाथ आछत तिहारे, बो-
तिहारे कोऊ नाथ ही ना, तू अनाथ तैसे हो।।
अब हम दोऊ दीन औ दोऊ अनाथन मैं,
सन्धि सों दिखाते हैं कि यामैं अर्थ ऐसे हो।।
जातें हम दोय दीनानाथ यों दिखाते,
तुम एक ही दिखाओ तुम दीनानाथ कैसे हो।।
4
यह सुनते हैं आप हौ जू नाथ दीनन के,
होते हैं सनाथ वेई निरालम्ब अनाधीन।।
पै 'द्विजेश' आवै न समक्ष जौलौं सत्यासत्य,
जाके बिन देखे आज कैसे हमें हो यकीन।
अब इन दोउन मैं कै दिखाओ कोऊ एक,
हौं मलीन पातकी प्रबीन की बल हीन।
प्रथमैं तो दीनानाथ ह्वै हमैं न देखो दीन,
हाँ, देखो जो दीन तो सुदामा सम देखो दीन।।
निवेदन
1
आज अति वेदन सों नाथ मों निवेदन यों,
वेदन प्रसिद्ध या तिहारी दीननाथी सों।
लाई जु मों दुर्गती तिहारी सरनागती मैं,
सो यों चहै स्वागती द्रुपदजा औ हाथी सों।
ऐसी नीठि ईठि दुखी चाहै तौ दया की दीठि,
पीठि पानि फेरौ मों 'द्विजेश' पै सनाथी सों।
नाथी सों तिहारी नहिं जौलौं मों सनाथी,
तौलौं मेरी हू अनाथी रहै नाथी तौं अनाथी सों।।
2
जैसे एक चित्र में चरित्र केते चित्रन कों,
ज्यों दिखाये आप सोई चित्र त्यों दिखैहों मैं।
गात ही सों गीध, मिल्यो मनहिं अजामिल सों,
साध सेवरी सों,गति गनिकैं लखैहौं मैं।
सारी दृश्य द्रौपदी दुसासन सों दुख सौंह,
गज सों प्रमोद, ग्राह सोग दरसैहों मैं।
लक्ष सों सुदामा के समक्ष नाथ सों 'द्विजेश'
दक्ष दया दीठि ही की दक्षिणा सुलैहौं मैं।
जीवन ब्रह्मा निरूपण
1
जीव ही तो जन्म नींव जन्म को शरीर सीव,
मन-चित-बुद्धि इस इंद्री के निवाहे को।।
जीव ही तो ब्रह्म अरु ब्रह्म तुमहीं सों कोऊ,
सब कुछ होत जीव ही के चित चाहे को।।
देखो बिन जीव भला मृतक करै तो कछू,
जातै है 'द्विजेश' यही नीति के निबाहे को।।
पापी तो वही है बसि काया जो करावै कर्म,
बीच व्यर्थ ही मैं हम पापी भए काहे को।।
2
जनमत जीव जब भूलि प्रकृती को पीव,
सोई पीब जीव जीवनी यों विरचावै हैं।।
गूदरी सों पेन्हि अंग झंझट की झोली संग,
बोली सों 'द्विजेश' डींग डमरू बजावै है।।
मन-बुद्धि बाँधे हाथ, माया के बरत साथ,
जाके अंग संग योनि योनिइमि जावै है।।
अन्दर मैं काया के कलन्दर विराजि मानों,
बन्दरी के संग बाँधि बन्दर नचावै है।।
कृष्ण जन्म
1
अलख निरंजन मुनीन मन रंजन वे,
भंजन विपक्षि के 'द्विजेश' है न यामैं संस।।
आई ब्रजबीच यों प्रतच्छ परखाई सबै,
बरखाई आँनदकहाई कान्ह जदुबंस।।
काई कस गोद जसुदा की यों निकाई करी,
निज लरिकाई तें तकाई अस पूरो अंस।।
परकाई पूतनैं कुछीर कंठ सरकाई,
दंत गज दरकाई करकाई छाती कंस।।
2
जातें जन्म जग को सो जग तें जनम लैके,
जो ह्वै वसुदेव नंद के अनंद मति के।।
चित्रसों विचित्र अद्भुत ही चरित्र से जो,
भादों कृष्ण जन्म अष्टमी के अनुमति के।।
गुनि जन जूमि जहाँ मुनिगन झूमि जहाँ,
चूभि ब्रज भूमि जाकी झांकी वसुमति के।।
धन्य ऐसे सजे कृष्ण रचे देवकी के जिन,
जो ह्वै रहे बच्चे आज जच्चे जसुमति के।।
3
अमित अनन्य अद्भुत जो सुधन्य मन्य,
सो ह्वै जदुजन्य जोऽभिमन्य ऐसे मति के।।
जन्म तै जु रोये खूब कृष्ण ह्वै जो सोये सूप,
पीके पय पूतनै भए जो यों कुमति के।।
ऐसी अब तिनकी अनैसी कौन देखै-सुनै,
देखैं अब वेई जु है ऐसे अनुमति के।।
जाएँ वसुदेव देवकी के ते लजाएँ किन,
जिन बिन जाँए कहे जाएँ जसुमति के।।
4
आप ब्रज भूमि सी जो कैके जगती की भूमि,
घर घर घूमि ह्वै रही जो विरमैया सी।।
सम्वत की संख्यार हू असंख्य जाकी जो 'द्विजेश'
ताको प्रति वर्ष फेरि फेरि जनमैया सी।।
जग जन जाको जोय, कामना के बीच बोय,
जाको जानि जामिनी मैं सुखद समैया सी।।
धन्य ऐसे भादों कृष्ण जन्म अष्टमी के प्रति,
ह्वै रही जयन्ती जासु जसुमति मैया सी।।
5
जन्म जुग जाको द्वापरै सों जो न देखि इतै,
कलिजुग ही सों सो अभाव इमि ख्बै रहे।।
सम्बत की संख्या हूँ असंख्य ताहू को न पेखि,
वर्तमान ही को प्रतिनिधि रूप ज्वै रहे।।
अंब र अवनि वसुदेव देवकी सों जानि,
दिन-रैन नंद जसुदा सों सुख स्वै रहे।।
धन्य ऐसे कृष्ण जिन भादों कृष्ण के,
मिस सों जयन्ती के करोरों कृष्ण ह्वै रहे।।
कृष्ण चरित्र
1
पास ही कपास रखे चरखे चरित्र ही के,
काते सूत्र कीर्ति ही के ताही मैं सम्बै रहे।।
करगह कीनो कर गहिवो दुसासन को,
नैन ढरकीलौं ढरकी लौं संग द्वै रहे।।
कूल मैं दुकूल के 'द्विजेश' ती के अनुकूल,
कीनी यों बिनाई जो बिनाई मैं न ज्वै रहे।।
गहत अरिंद के बहत आँसू बिन्दू देखि,
हे गोविंद कहत कुबिन्द हरि ह्वै रहे।।
गजेंद्र मोक्ष
1
व्यथित बेचैन जब आए करुना के ऐन,
नैन भरे गज के सुनेजो बैन सुण्ड को।।
ह्वै के जले नन सों जलीतनैं तिलांजुली दै,
खींचि पग कै थलीतनैं के तले कुण्ड को।।
अंग गज के अँगोछि, अंगज सों आँसू पोंछि,
पोंछि दिरदैहूँ रेख रेखे यों भुशुण्ड को।।
मानो रुएड जली झुंड सौहैं राखि मोंछ तुंड,
दीनी बिजै पुण्ड पुण्डरीकी यों वितुण्ड को।।
2
आह सुनि गज कि गुनाह गुनि ग्राहके जू,
श्रुति द्रुति राह की सराह लै यों सज तैं।।
ग्राहैं नीति निग्रह तें गजहिं अनुग्रह तें,
विग्रह तें उग्र उग्रही कै यों उपज तें।।
कै 'द्विजेश' हरि जल बीच कीच नीच ही तै,
कै ह्वै मीच प्रान खींचि धायैं ग्राह धज तें।।
गज धज तें रहे खड़े कै गज भरि दूरि,
कै दृगज ह्वैके कढ़े गज के मगज तें।।
3
धुनि सुनि टेर या अहेर कैसो ग्राहैं हेरि,
चेर गज या अहेरि ह्वै चले सनाथी तें।।
टेरैं दिए श्रुति हाथ श्रुति हाथ दीनी दया,
दया हाथ द्रति हाथ पद साथी तें।।
देखि यों 'द्विजेश' हाथों हाथ पद हाथी, लजि-
पूँछी ग्राह मीचि द्रुति तब द्रति नाथी तें।।
हाथी तें रहे कै चार हाथी दूर एकै हाथ,
या कै कढ़े चारों हाथ पद चार हाथी तें।।
4
गज की इकाई पै दोहाई की दहाई, श्रुति-
सै, करै हजार, जी हजार दस, पाए थे।।
लक्ष ही, घी दस लक्ष, कोटि बी पी दस कोटि,
अर्ब मोही, द्रोही दस अर्ब लौं सुहाये थे।।
खर्ब ससि राहु के ग्रहन, दस खर्ब पर्व,
नील नैन कासी, दस नील गंग जाये थे।।
पद्म पद्मनाभी, दस पद्म पदें, संख पंख,
द्रुति दामिनी के दस संख मानों लाये थे।।
राम-रमा
धनि हैं अस राम रमा दोऊ रम्य,
नहीं इनतें अस नामैं कोऊ।।
जिनमेंइक के बिच दीर्घ अकार-
अरु एक के अंतिमाकारै सोऊ।।
धनि जाते दुहूँ के रकार मकार,
'द्विजेश' मुखैं यों सुहाते तऊ।।
रसनैं ज्यों रकार मकार सों त्यों,
अधरामधु पीवत साथैं दोऊ।।