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कविता

स्वाद

सर्वेंद्र विक्रम


उस स्वाद की गूँज पानी में पकते हुए भात में
बसंत की पुरवा में जब एक अधेड़ पेड़ फुरफुराया,

अँधेरे से निकलकर एक बूढ़ी औरत
अपनी तीसरी चौथी पीढ़ी को समझाने लगी
देशकाल अकिल और गियान के बारे में,
उसके ध्यान में बना रहा हर आघात का स्वाद

कुछ लोग किसी परिचित स्वाद की याद में
बड़बड़ाने बुदबुदाने लगते
रात बिरात अचानक उठकर गाने लगते
उन्हें थपकी देकर सुलाने की कोशिश होती

वे जहाँ जहाँ गए हैं स्वाद अपने साथ ले गए
गाने में खाने में तीज त्योहार में
चौखट के भीतर से उछलकर
निकल आता बोली का कोई शब्द
मसालों की महक में वह स्वाद उछाल मारता
झनझनाने लगती कनपटी धाड़ धाड़ दौड़ने लगता रक्त में

स्वाद जीभ पर ही नहीं था
कहीं भी कभी भी जग जाता और जगा देता,
यह मिट्टी का स्वाद था


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