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कविता

स्रोत की परवाह करने वालों का समय

सर्वेंद्र विक्रम


बीच बाजार अचानक दिखा छाजन से ढँका कुआँ
लोगों की स्मृति में कई और भी थे मसलन
'ब्रह्मचारी कुआँ'', 'पिसनहारी का कुआँ', 'कसेरवा का इनारा'
हो सकता है और भी होंगे, रहे होंगे, जुड़ी रही होंगी कहानियाँ
धीरे-धीरे भठ गए होंगे बेहिसाब फूलते शहर में
पाटकर निकाल ली गई होगी कीमती जगह

कुओं की भी जरूर रही होगी बहुस्तरीय समाज-व्यवस्था
पक्के चबूतरों खंभों छतरियोंवाले कुएँ, निजी कुएँ,

कुओं पर पड़ी होगी बुरी नजर
जब सूँ सूँ करता नल घुसा होगा घर में पहली बार
टोंटी घुमाने भर से गिरने लगा होगा पानी
धीरे-धीरे लोगों ने कर लिया होगा कुओं से किनारा
क्या पता फिर से याद आई हो किसी दिन जब नल रूठें हों

जो भी हो, कुओं में कहाँ वह संभावना
कितना हाड़ तोड़ना पड़ता है
खुद खोदना पड़ता है लगानी पड़ती है घिर्रियाँ गड़ारियाँ
बटनी पड़ती हैं लंबी-लंबी उबहनें
कहारों सी जिंदगी गुजर जाती है
बाल्टी बाल्टी गगरा गगरा काढ़ते भरते भर जाते हैं हाथ
नहाने के लिए ठिल्ला भर पानी के लिए
औरतों को करनी पड़ती हैं कितनी चिरौरी
ज्यादातर को तो रोज खोदना और रोज पीना है

नलों के साथ टंकियाँ आईं
क्योंकि सिर्फ 'कुटुम समाय' भर से काम नहीं चलता था
हर किसी को चाहिए थी एक न एक आसान टोंटी
जिससे जब चाहें झरने लगे मनचाहा
बच्चों ने कल्पना की हो टोंटी खोलें तो झरने लगे कोक पेप्सी,

पर्दे पर देखकर बड़ों ने सोचा हो बीयर के बारे में
जिसे पीकर समुद्र की रेत पर जवान जोड़े
थिरकते हुए प्यार करते हैं या प्यार में थिरकते हैं
इक्का दुक्का साबुत दाँतों को टटोलते बुड्ढों ने क्या सोचा होगा ?
कुओं की तरावट और मिठास अपना जमाना, समय का बदलना,

कुओं को लेकर थी कथा कहानियों की संभावना
कुओं में खो गई थी डोर से छुटी कई बाल्टियाँ
कभी घने दुख में प्रेम में डूबी जिंदगानियाँ
कुछ आवाजें बाहर से गई कुओं में देर तक हिलता रहा पानी
चीखें जो बाहर आई पर सुनी नहीं गई

कुएँ में भाँग पड़नेवाले मुहावरा पुराना पड़ गया था
सबको चाहिए था बिना मशक्कत
महज एक टोंटी घुमाने भर से और इफरात,
स्रोत की परवाह करनेवालों का नहीं रहा समय


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