कहने लगा, इस नदी को क्या हो गया है ?
बदलती रहती है अपनी धारा दिशा और पाट,
ले लेती है कभी घर, बीज, पौधे
बहा ले जाती है इतिहास
कैसी आजादी ? अब सबसे ज्यादा कैदी हैं यहाँ
पहले से तनिक बेहतर महसूस नहीं कर रहा हूँ
हर वक्त कुछ फँसा हुआ सा है भीतर
पता नहीं चलता सुबह है कि आधी रात
बस, बताया जाता है कि मिलेगा
आगे कोई नहीं बताता कि कब, क्या सबको ?
अपनी जमीन पर मेरा तो दूसरा पाँव तक नहीं है
फिर जोतने बोने का क्या सवाल
सिर में टिप-टिप होती रहती है
चीजें ओले की तरह बरसती रहती हैं
न्याय महज एक दृष्टिकोण भर रह गया है
बारी बारी सबको देख परख चुका फर्क नहीं पड़ा
कितने तो देवता हैं क्या जतन करूँ
मुझे शर्म आती है कहीं इस सब की जड़ में मैं तो नहीं हूँ