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कविता

लैंडस्केप

सर्वेंद्र विक्रम


उसे लगता है कि वह एक लैंडस्केप है जिसमें
वे चीजें जिन्हें वह प्यार करती है और वे भी जिन्हें नहीं करती

जब वह बारिश में भीगती है उछलती कूदती
अंदर से निकलने वाली नदी भर जाती है
दूर से ही दिखता है उसका हदों से ऊपर बहना

उसमें एक पुरातन वृक्ष है
जिसकी छाँह तले बैठी रह सकती है जीवनपर्यंत
घर है जिसकी छतें धूप में शीशा चमकाती हैं

दीवारों कमरों को तब्दील कर देती है एक संपूर्ण वातावरण में
मुखौटा उतार कर छोटे छोटे फूलों पौधों से बतियाती
प्रसन्न घूमती रहती है मखमल पर
बालों में स्कार्फ की जगह बादलों को बाँधकर

पहाड़ियों, हिम ढँके पर्वतों, वनों
अनेक रंगों वाली भूमि के मध्य वह नाभि की तरह
उसी के रस से सिक्त होकर सब हो जाता है भरा पूरा
सब कुछ उसी से घटित होता है
वह सोम निचोड़ती है रुद्रों वसुओं आदित्यों के साथ विचरती है
धारण करती है वरुण, मित्र और आश्विनों को

इसमें से वह कुछ चुराना भी चाहती है
पर सोचती है, धरेगी कहाँ

वह विश्वसनीय है
जिसे पसंद करती है बना देती है सर्वश्रेष्ठ

उसमें छोटी बड़ी चढ़ाइयाँ ढलानें
चोटियों के आसपास अपनी दुनिया के पूरब में
वह हर रोज उगती है,
भर देती है आग से, उजाले से, उपहारों से
घिरते-घिरते गिर जाती है किसी अतल गहरी संध्या में
तब पता नहीं चल सकता वह कहाँ होगी इस वक्त

एक उधेड़बुन सी चलती रहती है निरंतर
वह इसी लैंडस्केप में रहना चाहेगी या
बाहर आना चाहती है इसके बहुप्रचारित विवरणों से बाहर
इस सबके पीछे

पूछना है
उसके आँसू क्यों गिरते रहते हैं ?
क्या उसका दुख पानी है ?
क्या उसका दुख नदी है ?

इधर यह बदलाव अचानक नहीं आया है :
माँ क्या खाए पिए, पहने ओढ़े कैसे बोले उठे बैठे
अपने आपको प्रस्तुत किए जाने योग्य बनाने के लिए
त्वचा और नाखूनों पर कौन सा रंगरोगन करे
दखलंदाजी इस कदर बढ़ गई है कि
वह जहाँ से चलना शुरू करती है,
हर बार वापस वहीं पहुँच जाती है

मैं कहना चाहती हूँ : जब मैं बड़ी हो जाऊँगी
एक दिन, नदी को यहीं ले आऊँगी

माँ मुझे देखती रहती है आँखों में
''बशर्ते बची रहे नदी, उसे भी कोई खरीद न ले''
और चुप हो जाती है,

सिर्फ इशारा करती है, जिधर
कपास के रेशों सी उड़ती जिंदगियाँ हैं
वीरानी है बंजर है
जिसमें न गुस्सा उपजता है न प्रतिरोध

मैं पूछना चाहती हूँ
इस सबके पीछे भी कंपनी ही तो नहीं है ?
 


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