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कविता

मुक्ति

सर्वेंद्र विक्रम


वे बुझी बुझी आँखों से देख रहे हैं नई नकोर किताबें
जो खास उन्हीं के लिए बनवाई गई हैं

किताब के पन्नों पर रंग बिरंगी तितलियाँ हैं
पतंगें खेल खिलौने फल और सब्जियाँ
ताजमहल लालकिला चारमीनार और बनारस के घाट
किस्सों और कहानियों वाला साफ सुथरा जीवन
जगर मगर सपने खुश रहने के नुस्खे
सब कुछ सही और संतुलित अनुपात में

वे पढ़ पाते तो कुछ जोड़ घटा सकते थे जीवन में
कैसे कुछ के पास सब कुछ है अधिकांश के पास कुछ भी नहीं,
और उनके बीच एक खास रिश्ते के बारे में
और ऐसा है तो ऐसा क्यों है, के बारे में

जान सकते थे दयालु और परोपकारियों के किस्से
साजिशों के बारे में
नेक आदमियों और बदचलन औरतों के बारे में
लिपियों को डिकोड कर शब्दों के पीछे छिपे अर्थ
समझ सकते थे घटनाओं और कारणों के बीच संबंध
चाहे उन्हें जितना भी छिपाया जाए,

वे पढ़ सकते थे इतिहास के कई पाठ
जिन्हें कक्षा में नहीं पढ़ाया जा सकता था

वे देख रहे हैं किताबें
उन्हें पढ़ना नहीं आया इसके लिए पुरखों को जिम्मेदार ठहराया गया
कि इसकी जड़ें उनके घर की आबो-हवा मिट्टी में ही है

उन्हें सिखाया नहीं गया, यह किसी साजिश का हिस्सा है
या यह किसकी साजिश है ओझल हो गया है सवाल

उनके इर्द गिर्द फैला है धूसर मटमैलापन
जैसे जीवन से निकल गए हों रंग
वे बैठे मुँह जोह रहे हैं
जटाओं में से ज्ञान की पतली धार ही सही कब उनकी ओर बहे
वे किस देवता को हवि दें तप करें प्रसन्न करें और तरें


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