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कविता

अंतरिक्ष से फोटो

सर्वेंद्र विक्रम


यह किसी नक्शे जैसा था और अमूर्त भी
साँपों जैसी नदियाँ शहरों के लिए कुछ निशान

दूसरे चित्र में कुछ और चीजें उभरती हैं
जिनमें गहराई और आकार का आभास होता है
जूते के डिब्बों जैसे निशान दुश्मन की बैरकें हैं
गहरी काली छोटी छोटी रेखाएँ सेना की टुकड़ियाँ हैं
जो दक्षिण की ओर से दुश्मन के ठिकाने की ओर बढ़ रहीं हैं

नक्शों में लोगों के लिए कोई चिह्न नहीं होता
इसमें भी नहीं है
थोड़ा और क्लोज अप में देखने पर
वीरान हवाई अड्डा एक ध्वस्त टैंक खाली सड़क एक मानव शरीर

कैमरा जितना नजदीक जा सकता था जा चुका है
लेकिन उससे थोड़ा आगे जा सकें तो देख सकते हैं
उस मरे हुए आदमी की आँखों में एकाकी और बेधती हुई
जिनमें न कोई स्मृति न छवि

और तभी धीरे धीरे विलीन होने लगता है चित्र

जब से लड़ाई शुरू हुई

कैमरा घूम घूम कर लोगों को यह सब दिखाता रहा है
लोग देखते रहे और मजे मजे में बातें करते रहे
इसके परिप्रेक्ष्य और मुद्दों के बारे में :
हमारा और उनका
बाज और कबूतर, दोस्त और दुश्मन, नागरिक और सैनिक,
परंपरागत हथियार और सामूहिक विनाश के हथियार
धर्मनिरपेक्ष और कट्टरपंथी, शांतिप्रिय और आतंकवादी

कितना सरल था यह वर्गीकरण
दो खानों में चीजों को बाँटकर देखने से जीवन सरल था
घटनाएँ भी दो अलग अलग खानों में फिट हो जातीं
महत्वपूर्ण खिलाड़ी वर्दी में दूर से ही पहचान में आ जाते थे

धीरे धीरे युद्ध के रंगमंच को नया अर्थ दिया जाने लगा
मिट गया दर्शक और भागीदार के बीच अंतर
जीवन और मृत्यु के बीच एक जो बोल्ड लाइन थी
वह खत्म हो रही थी

अंतरिक्ष से यह चाहे जैसा दिखता हो देवताओं और जनरलों को
जब कभी खत्म हो हमें तो जमीन पर अलग तरह से दिखेगा
पता नहीं कब तक डराता रहेगा दुःस्वप्न की तरह
इसके अर्थ बेमानी हो जाएँगे कि आप कहाँ से हैं ?
शांति के लिए युद्ध ! सुनकर हास्यास्पद लगेगा
खासकर जब इसके लिए हजारों जानों की कीमत अदा की गई हो


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