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कविता

फोन पर

सर्वेंद्र विक्रम


क्या तुम ठीक हो? हाँ अब सब ठीक है
तुम कब आ रहे हो? पता नहीं, कोशिश करूँगा
कब तक? पता नहीं
हैलो? हैलो? आवाज आ रही है? हैलो? सुनाई दे रहा है?

जैसे अचानक कुछ कहने के लिए नहीं रहा
वे एक गहरे खालीपन में घिर गए बीच की उस दूरी के दरम्यान
हैलो? हैलो? हैलो? हैलो?
उसने चाहा कम से कम औपचारिक विदा का शब्द कह सके

उसे उम्मीद थी कि फोन फिर से आएगा,

उसने फोन फिर से मिलाया
अगले कई दिनों तक फोन फिर से मिलाने की कोशिश की
फिर अगले दिन अगले दिन अगले दिन

जैसे फोन नहीं, उनके अंतराल में कुछ और मर गया हो
शायद वे एक दूसरे के जीवन में प्रासंगिक नहीं रह गए थे
इसी तरह चलता रहा तो हो सकता है
वे कभी न देख सकें एक दूसरे को
या अगर लौटें तो पता चले जीवन का अधिकांश उनसे छूट गया

पहले स्पर्श, इतने नरम, कुछ समय निरंतर
फिर न मिलें, अनुपस्थिति और अभाव की आदत पड़ जाए
क्या लगाव भी एक आदत भर नहीं है ?
उसने सोचा,
दुनिया में किसी के बारे में वह इतना कैसे सोच सकती है,
उसने जितना ज्यादा सोचा, उतना ज्यादा

कहीं चले जाने की वजह से उनका हदय कहीं और,
दिमाग कहीं और रहने वालों के बारे में निरंतर सोचते हुए
उन्हें याद नहीं रहता कि वे दरअसल कहाँ थे
शायद वे किसी एक जगह के नहीं रह गए थे

जो पत्र आते थे, इतने दिनों,
उसकी आशाएँ थीं जो उसे लिखती रहीं थीं
शायद वह सिर्फ उसके विचारों में ही था
वजूद नहीं था, वह कहीं था ही नहीं शायद
क्या वह कहीं थी ?

छोटी छोटी खुशियों से आसपास रचा हुआ जरा सा घेरा
जहाँ वह रहती थी रह सकती थी,
जब बातें करने की इच्छा थी इमोशन था
तब बातचीत नहीं थी


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