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कविता

लिखता हूँ

सर्वेंद्र विक्रम


मैं एक कविता लिखता हूँ सोचता हूँ कि इसे कोई पढ़ेगा ?
शहर में रहने वाला एक समझदार पाठक, बहुत पढ़ा लिखा
देहात में रहने वाला एक मामूली पाठक जिसे कविता की बहुत गहरी समझ नहीं हैं
जो कविता का आस्वाद लेने के लिए प्रशिक्षित भी नहीं है।

फिर मुझे याद आ जाती है कविता की वाचिक परंपरा
लोगों का हर बात पर एक चौपाई सुना देना
घाघ भड्डरी की मसल

दुविधा है कि मैं किन लोगों तक पहुँचना चाहता हूँ ?
मन में कोई संभावित पाठक है जिसे मैं ठीक ठीक देख नहीं पाता
और शुरुआती घोषणा के बाद पता नहीं कहाँ से कहाँ चला जाता हूँ

दो दुनियाएँ हैं साफ तौर पर उनमें अंतर दिख रहा है
दोनों के लिए अलग इंतजाम हैं
अलग सुविधाएँ
अलग सपने दिखाए जा रहे हैं
समझ विकसित की जा रही है
कहें तो अलग तरह से ढाला जा रहा है

मैं उन चीजों की फेहरिश्त बनाने लगता हूँ
जो दोनों के लिए समान रूप से हों
फिर हैरान हो जाता हूँ कि दोनों वृत्तों के बीच कोई स्पर्श-बिंदु नहीं है
मैं वापस अपने काम की ओर मुड़ना चाहता हूँ

मेरे सामने एक सवाल है

जो अपनी बनावट में नैतिक किस्म का दिखता है
क्या मैं सिर्फ यही कर सकता हूँ
या ऐसी मेरी धारणा है


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