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निबंध

ग्रीष्मु की दोपहरी और मेरा मृग-अनुभव

श्‍यामसुंदर दुबे


दिन-भर गरम हवा के थपेड़े खिड़की के परदे को झँझोड़ते रहे-दरवाजे पर दस्‍तक देते रहे; मानो सूर्य के ताप से डरकर हवा कहीं भीतर किसी शीतल कोने में दुबककर बैठ जाना चाहती है। मीलों लंबे छतनार वनों में ठौर-ठौर बिलमती हुई भी वह प्‍यासी की प्‍यासी रह जाती है। गढ़े-पोखरों का जल वाष्‍पीकृत हो ऊर्ध्‍वगामी हो गया है। सूर्य ने अपनी सहस्र-सहस्र किरणों से उसे सोख लिया है। किंतु सूर्य शोषक नहीं, क्रूर नहीं, स्‍वार्थी नहीं। जितना लेता है, उतना देता भी है; और ऐन मौके पर देता है। खूब देता है। चौमासे-भर देता है। विदीर्ण हृदय गढ़े-पोखर पुन: सराबोर हो उठते है। उनकी तपन, उनकी जलन समाप्‍त हो जाती है। यह हवा, जो साँय-साँय करती, वृक्षों को हिलाती, हकड़ती, गात सुलगाती बह रही है। झुंड-के-झुंड बादलों को हाँककर ले आएगी-कभी पूरब से तो कभी पश्चिम से। क्षितिजों से उठकर ये बादल फिर धारासार रूप से धरा पर वर्षण करेंगे। यह हवा, यह सूर्य सचमुच मेरे चिरसंगी हैं। मुझे जलाते-सताते हैं तो पुलकाते-हर्षाते भी हैं।

मैं कालांतर से यह अनुभव करता आ रहा हूँ कि मैं आदिम मृग हूँ। मेरे भीतर सदैव मृग-वृत्तियाँ उदित होती रहती हैं। जंगल-जंगल हवा में उछलता, चौकड़ी भरता-अपनी प्‍यारी मृगी के साथ घंटों अनुभाव प्रसंगों में रमता, विलसता! बड़ी अपरूप किस्‍म की प्रणय चेष्‍टाएँ हैं मेरे मृग-मन की। वह रस-भोग का सच्‍चा पारखी है। विभाव, अनुभाव और संचारियों की इतनी सूक्ष्‍म हलचल मृग-मन की मादक चेष्‍टाओं में है कि वह कवि लगता है-श्रृंगार और करुण रस का कवि-कालिदास और भवभूति की जाति का कवि! मृग होने का यह अनुभव मुझे पूर्व ग्रीष्‍म में ही अधिक होता है। और सच्‍ची बात कहूँ, तो पीड़ित‍ करता है। सूर्य तेज ही दिन का विस्‍तार बढ़ाता है। हवा खिसियाती है, मेरे भीतर का हिरण हुमकने लगता है। एक-से-एक सघन वनों में विहरने की कामना बलवती हो उठती है - कभी गंगा-कछारी कजरी वन में, कभी पदृमातीरी कदली वन में, कभी विंध्‍याटवी के आम्रकूटों में और कभी हिमवान के उपकंठ में स्थित चीड़ वन में डोलने को तड़फड़ाने लगता है।

गाँव में उन दिनों खूब वृक्ष थे। ऐसा आभास होता थ जैसे किसी छोटे-मोटे जंगल में ही हम घुस आए हैं। वसंत के बाद अधिकांश वृक्षों में नए पत्‍ते लहलहाने लगते हैं। इ‍सलिए ग्रीष्‍म आते-आते जंगलों का नया रूप बिहँस उठता है। उनके फूलों की मादक गंध चारों कोने फैली रहती है। कुछ इसी प्रकार के वानस्‍पतिक परिवेश में मेरे बचपन के दिन व्‍यतीत हुए हैं। अकसर काँच-सी चिलकती और तवे-सी दहकती दोपहरी मैं ऐसे कह जंगलों में कटाता था। झुंड-के-झुंड हिरन इधर से उधर दौड़ते- छलाँगते थे। उनकी चेष्‍टाएँ, उनकी गति-भंगिमाएँ हमे रमाती थी। बहेलियों का एक दल गाँव में डेरा डाले हुए था। सुबह से शाम तक वे हिरनों का आखेट करते थे। हम भी उनके साथ उनकी आखेट टेक्‍नीक देखते थे। दिन-भर एक नशा-सा छाया रहता था। भूख-प्‍यास भूल जाते थे। चेहरे पहले लाल होते, फिर काले पड़ जाते थे। घर वापास होते तो पिताजी खूब डाँट पिलाते; लेकिन बचपन ऐसी झि‍ड़कियों पर कब ध्‍यान देता है। उसका कौतूहल कब गंभीर दृष्‍टांतों से मिट पाता है। बहेलिया किसी पनवा के किनारे जाल फैलाकर बैठ जाता। हिरनों का प्‍यासा दल पनवा का पानी पीने आता और कुछ हिरन अनजाने ही इस जाल में फँस जाते-खूब तड़फाड़ते, आँसू बहाते, कातर होते; किंतु बहेलिया कोई कवि तो था नहीं, जो उन्‍हें छोड़ देता। उन्‍हें भरी दोपहरी में ही तड़प-तड़पकर प्राण त्‍याग पड़ते थे।

ऐसे एक बार नहीं, उनके बार मैंने आखेट दृश्‍य देखे हैं। वे दृश्‍य मेरे भीतर बहुत गहरे तक टँग गए हैं। कभी-कभी भरी दोपहरी में लगने लगता है जैसे मैं ही जाल में फँसा हिरन हूँ। जो भीतर पूरी तरह से रूप, रस, गंध, स्‍पर्श और ध्‍वनि को भोगने की अदम्‍य लालसा है - वह मानती ही नहीं। ग्रीष्‍म की प्‍यास की नाईं बढ़ती रहती है। नए-नए पनवा तलाशती रहती है और हर पनवा के किनारे एक शिकारी जाल फैलाए बैठा रहता है। पानी में मुँह डाला कि जाल में फँसा; फिर बिसूर-बिसूर कर रोना ही शेष रह जाता है। लेकिन मेरा यह कृष्‍णसार मन कभी हिम्‍मत नहीं हारता। जाल में फँसा-फँसा भी एक दो घूँट पी लेता है। यह अलग बात है कि प्‍यास नहीं बुझाती। शायद जन्‍मांतर से ही प्‍यासे रहने का यह क्रम चल रहा है यह प्‍यास ही मुझे बार-बार मानव-तन धारण करने के लिए प्रेरित करती है और इसी प्‍यास के कारण मृत्‍यु मुझे समय-बेसमय चपेटती रहती है। यही तो 'काल अहेर' है। कभी छिपता हूँ, लुकता हूँ, कभी प्‍यास साधता हूँ; किंतु एक भय बाराबर बना रहता है। कोई पारधी जाल फैलाए, धनुष- बाण लिये बैठा है और मौका पाते ही वह फाँस लेगा-बेध देगा! जब-जब धूप चिलचिलाती है, मृग-मरीचिका निर्मित होती है। मृग बेतहाशा दौड़ता है। एक भ्रम उसे बार-बार पछाड़ता है, बार-बार तोड़ता है। मेरा यह मन मरीचिकाओं में उलझ-पुलझ कितना टूटता है, कितना हूकता है- कहने की बात नहीं!

अब न वे जंगल रहे, न वे मृग रहे और न रहे व्‍याध। अब कुछ शेष है तो मेरे भीतर का मृग-अनुभव ही! यह अनुभव ही बार-बार मुझे कवि बनाता है; कल्‍पना में छलाँग लगाने को बाध्‍य करता है। एक अज्ञात सुरभि के पीछे दौड़ाता है। चतुर्दिक व्‍यापिनी एक सुरभि फैली हुई है। वसंत जाते-जाते महक का दबाव बढ़ जाता है। गंधभार से डाली-डाली झुक जाती है। इस मौसम में मैं इसी तीखी मादक गंध का अन्‍वेषक बन जाता हूँ। भूर्जपत्र की वनराजि से लेकर मलयगिरि का कोना-कोना छान डालता हूँ। गंध-तरंग कहाँ से फूट रही है - पता नहीं चलता। मैं भूल जाता हूँ अपने को, अपने साथि चले रहे विवेक-व्‍यवहार को। एक बार जग-प्रपंच रमणीक लगने लगता है। वृक्षों के पत्‍ते आँखों में बदल जाते है; जैसे हजार-हजार नेत्रों से वे कौतूहलपूर्वक मेरी गंधलीला निहार रहे हैं। नदी-निर्झर मेरे इस पागलपन पर हँस देते हैं।एक तरल पतली-सी मुसकान उनके अधरों के बीच लहर रही है। वे जानते हैं, यह ग्रीष्‍म वेला बड़ी भरमानेवाली है। कभी उन्‍हें जल के मिथ्‍यात्‍व के बहाने दौड़ाएगी, कभी गंधवती संध्‍याओं के आमंत्रण में उन्‍हें फँसाएगी! मैं भी इस चक्‍कर में आ गया हूँ। अपने मित्र से पूछ बैठता हूँ-'गुरू! आजकल जो अनामा गंध मुझे चारों ओर से घेरे रहती है, उसका उत्‍स क्‍या है?' दोपहरी-भर सो नहीं पाता। बड़ी तीखी गंध है। इस जलते माहौल में बहती इस गंध-नदी का स्‍त्रोत क्‍या है? मित्र पहले तो हँसता है, फिर गंभीर हो जाता है। कौन जोन,उसने मुझे पागल समझ लिया हो। कस्‍तूरी मृग सचमुच पागल ही होता है। कस्‍तूरी-गंध की खोज में दिशाएँ लाँघता है। हाँफ-हाँफकर कितनी दोपहरियाँ बिता देता हैं। अंत में उस गंध की खोज में मरण को ही वरण करता है। यह तो दूसरे लोग ही जानते हैं कि उसी म़ग की नाभि में कस्‍तूरी थी। कवि नहीं जानता अपने भीतर की कस्‍तूरी को। मैं ही कहाँ जान पाया हूँ कि कस्‍तूरी की गाँठ मेरी ही नाभि में है - बाहर कहीं नही! अब पूरे वैशाख - भर इस कस्‍तूरी-खोज में विहरूँगा। कोई विशाखा, कोई ज्‍येष्‍ठा, कोई अनुराधा, कोई मृगी कभी शायद आत्‍मसाक्षात्‍कार करा ही देगी। आजकल एक मीठा-मीठा राग जंगलों में बजता रहता है। कल ही मेरा मित्र दौरे से वापस हुआ है। बतला रहा था - 'सरई के जंगल में गजब का पियानो बजता है, बंधु!' पहले तो मैं चौंका कि सत्‍यकथा के भूत-प्रेतों की तलाश के पचडे में तो नहीं पड गया है वह, लेकिन आश्‍वस्‍त तब हुआ जब पता चला‍ कि उसका कवि ही बोल रहा है। इधर सरगुजा में सरई के घने जंगल हैं। कहते हैं, इस सरई के जंगलों में इंद्र के गज स्‍वर्ग छोडकर विहार करते आते थे, तभी से यह स्‍वर्ग-गजा (सरगुजा) है। इन जंगलों में स्‍वर गूँजता रहता था - बड़ा मादक और मनोहारी-इसीलिए यह सुरगुंजा है। पतझर में झडे पत्‍ते पर्त-दर-पर्त बिछ गए हैं। जब हवा बहती है तब सरई के फुल इन सुखे पत्‍तों पर मालकौश के सुरों में गिरते है। गंध, स्‍वर और रूप की ऐसी त्रिवेणी बड़े पुण्‍यों से मिलती है। मेरे भीतर जो रागदारी अनुगूँज भरती है तो यह मन - ऐसा छलबंधन छोड-छोडकर सरई के वनों में चौकडी भरने लगता है। यद्यापि यह नाद प्राणलेवा है। काल आखेटक कुछ समय तक इस नाद में रमाए रहता है, फिर लपलपाता तीक्ष्‍ण शर छोड देता है - निशाना साधकर! स्‍वर-लोभी मृग शरीर त्‍याग देता है; किंतु आत्‍मा फिर वापस आती है, फिर स्‍वर में रमती है - बार-बार जनमती है। यह ग्रीष्‍म मुझे मृग-चिंतन में डुबाए रहता है। रूप, रस, स्‍पर्श,गंध और ध्‍वनि में रमण करके ही तो इस ताप से मुक्ति मिल सकती है, जो आकाश अंगारे फेंककर उत्‍पन्‍न कर रहा है। हवाएँ उन्‍मादिनी होकर जब गरम श्‍वासें छोडती हैं, जब धरती विदीर्ण होती हुई भी आँच देती है, जब बूँद-बूँद जल के लिए चिडिया तड़फड़ाती है, तब मुझे मृग-अनुभव ही क्‍लांतिमुक्‍त करता है। ग्रीष्‍म के जलते प्रसंगों को मैं चौकड़ी भरता हुआ पार कर जाता हूँ।


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