सैकड़ों-हजारों बार अनेकानेक पुलों से गुजरा हूँ-कभी पदैल-पदैल, तो कभी वाहनों के जरिए, और हर बार मुझे यह अनुभव होता रहा है कि मैं पुल पर से नहीं गुजर रहा
हूँ, बल्कि पुल मेरे भीतर से गुजर रहा है -मेरे रक्त का हिस्सा बनकर, मेरी धड़कनों में धड़धड़ता-थरथराता हुआ, मेरी भाव-संधियों में कँपकँपती भरता हुआ-मेरे
पलकों में रोमांचित होता हुआ। पुल चीखता है, पुल बिसूरता है, पुल उत््तेजित होता है, पुल सपने देखता है, पुल लौटता-पलटता है, ठिठकता-बिदकता है। मेरी चेतना-नदी
पर पुल न जाने कितने रूपों, कितनी मुद्राओं में टँगा हुआ है। ठिठुरती रात के घुप्प अँधेरे में पुल पार करते ट्रैक्टर की ट्रॉली में बैठा मैं झींमते-ऊँगते
हचर-हचर होते पुल के सपनों में खो जाता हूँ। पुल कराहता हुआ डूबा है- वर्षें पहले गुजरी उन बैलगाडि़यों की स्वप्न-स्मृतियों में जहाँ बैलों की रोमंथनी चाल के
साथ उनके गले में बँधी घंटियों की ध्वनि उसे मालकौंस की लयकारी से सरोबार कर देती थी। बैलगाड़ी की नहनी में टँगी छोटी-सी लालटेन उसकी पीट पर झूलती थी, तो पुल
मानो अपनी उजली मंद हँसी में जगर-मगर हो उठता था। गाड़ीवान की अधरत्ता वाली विरह की टेर में सनसनाती हूक, अब भी उसके कलेजे को टूक-टूक कर रही है। पुल आजकल
विचित्र-विचित्र सपनों में डूबा रहता हैं, उसे लौह-लंगड़ के भारी वहन-यंत्रों से रूँदते-खुँदते याद आ जाते हैं, उन पाँवों के वे तलवे जिनके पसीने से पुल की छाती
आर्द्र हो उठती थी। उन तलवों की बिवाइयों में भरी माटी के कणों को वह चंदन रज के समान अपने माथे पर लेपित कर लेता था, और उन्हें सहलाते-सहलाते उनकी गर्माहट,
उनकी उतावली, उनकी उमंगित आकांक्षाओं से जैसे स्वयं लहालोट हो उठता था।
जड़त्व के चैतन्य के साथ लगातार रहवासी बनकर पुल स्वयं चैतन्यमय हो उठता है। प्राकृतिक जड़ भी अपनी अंतर्वर्ती चेतना में प्राणवान है। मनुष्य द्वारा
निर्मित पुरातत्व भी प्रकृति के इन्हीं प्राणों से मिलकर उसके साहचर्य के परिणाम-स्वरूप कालांतर में प्रकृति में ही तब्दील हो जाता है। प्रकृति, जो ऊपर से
जड़ दिखती है, वह अपनी गतिशील उपस्थिति में सक्रिय और जीवंत है। पहाड़, नदी, निर्झर, पेड़, गुल्म, वीरूधि सभी जड़ प्रकृति के चैतन्य अंश से लबालब हैं। इनकी
गतिमयता, इनकी परिवर्तनशीलता कभी-कभी अलक्षित रहकर भी अपनी जीवंतता को प्रमाणित करती रहती है। इसी जीवंतता को साथ मनुष्यकृत किले, पुल, मंदिर अपनी दीर्घयात्रा
में प्रकृति गतिशील अंग बन जाते हैं। नदी की गतिशील भंगिमाओं, नदी की बदलती छवियों, नदी की जीवंत हरकतों के बीच बरसों से खड़ा पुल अपनी लखौरी ईंटों में अनंत
सूर्यास्तों की लालिमा से रंजित मात्र एक दृश्य नहीं रहा जाता है।उसके व्यक्तित्व की रक्तिम आभा सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक न जाने कितने शेड्स में
बदलकर उसे प्रकृति का हिस्सा बना देती है। उसे अनंत रंग-स्पंदनों में बदल देती है। नदी के बरजोर प्रवाह से निरंतर होड़ लेती आड़ी धार में खड़ी अपना प्रतिबिंब
झाँकती पुल की मेहराबें, तिकोने अनियारे दृढ़व्रती स्तंभ और पुल के अंतराल में अनुगूँज भरती लहरों की लीला-ध्वनियाँ पुल को महज चूना, ईंट, रेत, पत्थर, लोहा
और अन्य पार्थिव वस्तुओं का संपुजिंत सायुज्य नहीं रहने देती हैं। कालांतर में पुल प्रकृति में तब्दील होकर हमारे चैतन्य में अपनी संवेदना-प्रणाली का
भाव-विस्तार बनकर विराट जीवन की स्पंदित फाँक बन जाता है। ऐसे में पुल केवल यात्राओं का साधन नहीं रहता है, वह अनेक सांस्कृतिक यात्राओं की बिंबधर्मी फ्लापी
जैसा नदी के विस्तृत मानीटर-पाट के लहरीले स्क्रीन पर अनेक दृश्य-श्रव्य इबारतें लिखता रहता है।
पुल केवल मार्ग की नदी-टूट का समीरकण ही नहीं, वह युग-संधियों के बीच संवाद का सार्थक सिलसिला भी है। मैंने जो पुल अभी-अभी पार किया है, वह अनेक पुल यात्राओं से
बिल्कुल भिन्न अनुभव हैं- एक ऐसा अनुभव जो विगत साठ वर्षों की मेरी जीवन-यात्रा की क्लांति को शांति में बदल रहा है। मेरी अपनी नदी सुनार पर यह पुल एकदम नया
है। यात्रा के लिए यह पहली बार खुला है, और मैं उन यात्रियों में सू हूँ, जो इस पुल का पुलकित स्पर्श पहली बार अनुभव कर रहे हैं। हम सब न जाने कितनी शताब्दियों
की अतृप्तियों की संतृप्ति के सुख में डूबे अतीत की दुरभिसंधियों में धँसे शल्य की नोक को निकालते हुए-एक नरक-पीड़ा मुक्ति की सहज अकथनीय प्रसन्नता से भरे उठे
हैं। यह जो नदी सुनार है-मेरे इलाके की जीवन रेखा है, और यही वह शल्य-सूचिका भी है, जो मर्मांतक-अंतर्वेयधी बनकर मेरे आस-पास को नरक-यातना में डूबाए हुए थी।
इसके परले पार है-शहर, और इस पार है, पचास गाँवों का सड़क विहीन जंगलनुमा अंचल। हाट-बाजार, सौदा-सुलुफ, हारी-बीमारी, पढ़ाई-लिखाई, कोर्ट-कचेहरी और दूरंदेशी
यात्राएँ इस नदी को पार करके ही संपन्न होने वाले कार्य-व्यापार हैं। काली-काबर मिट्टी वाले मार्ग केवल बैलगाड़ी-यात्रा की सुविधा देते हैं।
अन्यथा-प्यादे-प्यादे चलना ही यहाँ की यात्रा-नियति है। बरसात में घुटनों तक कीचड़ में डूबे हाथी-पाँवों से नौ दिन चले अढ़ाई कोस को सार्थक करने वाली बेंजड़
यात्राएँ ही इस क्षेत्र के सर्वोंच्च पुरुषर्थ की प्रतीक हैं। इन त्रासद यात्राओं का अंतिम यम-द्वार जहाँ खुलता है, वह कीचड़ सनी नदी की कगार का फिसलन भरा
विस्तार था।
हहराती, घरघराती उफनती नदी में डगमग डोलती नाव को उस पार से इस पार तक ताकते उनींदे-जम्हाते, भूखे-लाँघे वर्षा-जल में लथ्थड़-पथ्थड़, अपनी गठरी-पुटरी
साधे-सँभाले घंटो नदी को पार करने की दु:खद बेताबी में डूबे लोग! ये नदी, उस समय इन्हें महाभुजंगिनी से कम नहीं लगती थी। सुबह से बैठे इन लोगों के पार उतरने का
डी-डौल शाम तक बन गया तो इनका भाग्य समझिए। मरी आँखों में वह दृश्य आज तक अटका है जिसमें मेरे गाँव के परम चौधरी पर भादौं की बरसाती अँधियारे रात में ब्रेन
हैमरेज ने प्रहार किया था। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। धारासार पानी बरस रहा था। उन्हें चारपाई पर लिटाकर रात में ही इलाज हेतु पास के शहर तक ले जाने का
त्रिविक्रमी पराक्रम गाँव के लोगों ने किया। उलटी चारपाई मे दो आड़ी थूनियाँ बाँधी गई। आठ लोगों के कंधो पर बेहोश परम चौधरी चारपाई पर लेटे-लेटे शहर की ओर रवाना
हुए। रात्रि के पहले प्रहर में यह यात्रा प्रारंभ हुई और ठीक तीसरे पहर के अंतिम चरण में नदी की कगार पर इसने अपना पड़ाव डाला। नाव, परले पार थी। नदी ऐल-फैल कर
बह रही थी। मल्लाह को टेरते-पुकारते ग्रामवासियों के गले बैठ गए। आतुर आवाजें नदी की तालाबेली तरंगो से टकरा-टकराकर आवर्तों-विवर्तों के चक्रीकृत में
चूर्ण-चूर्ण हो अस्तित्वहीन हो गई। खटिया में पड़े परम चौधरी ने पौ फटने के साथ ही अपने प्राण त्याग दिए। न जाने कितनों ने नदी पार करने की असमर्थता में ऐसे
ही प्राण त्यागे होंगे। आड़ी पड़ी इस नदी ने न जाने ऐसी कितनी यात्राएँ बीच में ही रोक-टोक दी होंगी। और ऐसी यात्राओं की भविष्यगर्भी पूर्णता की प्रसन्नता की
जगह विषाद की विषण्णता फैल गई होगी।
मैं इस नए-नुहारे पुल को पहली बार पार कर रहा हूँ, और मेरी अनेक लंबित यात्राओं की स्मृतियों को जागृत कर रही है-नीचे बहती सुनार की ऐंठती, मरुड़ती, अडि़यल
चिलचिलाती चितकबरी-सी विशाल धारा! पुल के पायों में अटक गई है, न जाने कितनी नौकाओं की अनथक यात्राएँ, जो अब कभी नदी की छाती को चीरकर गतिशील नहीं होंगी। पुल की
ईंटों के महीन रंध्रों में छिपी हैं नौकाओं की अनेक यात्राओं की सुखद प्ररिणतियाँ, नदी के जल में तैरती मछलियाँ जैसी नौकाओं और डोंगियों में भरी हैं, नदी की
अनंत सुखानुभूतियाँ-वे अभी भी ठीक वैसी ही पुल के किसी पाये की तलहटी में अटकी हैं और अटकी है, वह अदृश्य नाव जिसमें बैठकर मेरे पिता शहर से हाट करके लौटते थे।
मैं अपने बचपन, के दिवा-सपनों में हाट की न जाने कितनी गतिविधियों, और न जाने कितनी दृश्य-श्रेणियों को अनुभव करके उद्वेगमयी प्रसन्नता से भर उठता हूँ। मेरे
पिता जब हाट जाने की तैयारी करते थे, मेरे पिता जब हाट जाने की तैयारी करते थे, तब खिलौने, फूल मिठाइयाँ, किताबें, चित्र न जाने कितनी-कितनी वस्तुएँ मरे सपनों
में तैरने लगती थीं। शाम होती थी, तो मैं बार-बार गाँव के बाहर सिवान तक उतावली भरी दैड इसलिए लगाता था कि पिता हाट करके लौट रहे होंगे-उनकी पोटली में मेरी
मन-वांछित चीजें होंगी। आँख और मन बार-बार हाट से लौटे पिता को देखने और अनुभव करने के लिए व्यग्र रहते थे। अँधेरा घिर आता था और पिता नहीं लौटते थे। माँ
तसल्ली देती थीं 'सुनार जो आड़ी पड़ी है-जब नाव मिलेगी तब तो पिता लौटेंगे।ʼ मैं तब तक नहीं जानता था कि कोई नदी कैसे किसी के लौटने में बाधक बन सकती है। मेरे
लिए तो नदी उस समय तक आनंद-रूपक थी 'नदी कहाँ से आती हो-नदी कहाँ को जाती हो। हमको तुम क्या लाती हो।ʼ पिता जब लौटते-तब मैं सोने-साने को होता। पिता बताते कैसे
देर से नाव मिली- कैसे वह खरगोश जो जीवित था- नाव से छलाँग लगाकर नदी में चला गया-वे वह खरगोश जो मेरे लिए ला रहे थे। मैंने नदी और नाव की ये स्वप्नशील
जुगलबंदी तभी पिता से सुनी थी। मेरे पिता रूपकों में बोलते थे। वे कहा करते थे, 'इस संसार रूपी नाव में राम का नाम ही नाव है-और राम का नाम ही सेतु है-इस पर जो
बैठे और जो चले सो निहाल।ʼ नाव, नदी पार करने का माध्यम होती है, यह मैंने बचपन में हाट को आते-जाते जाना था। मुझे नाव इसलिए उस समय भाती थी, क्योंकि उसमें
खिलौने-मिठाई लादकर मेरे पिता मेरे पास लाते थे। खिलौनों से लदी-फँदी नाव अब मुझे इस पुल में कहीं अटकी दिखाई दे रही है।
अब बाजार इस पुल से फटाफट दौड़ लगाएगा। किसान क्रेडिट कार्ड योजना और सरपट योजना गाँव को एक नई ऊर्जा से लैस करने वाली हैं। इस ऊर्जा के स्त्रोत होंगे-शराब और
पेट्रोल। ये दोनों मिलकर बरास्ता पुल इस पार वाले गाँवों की एक नई केमिस्ट्री बनाएँगे। जो शराब अभी तक छिपते-छिपते, गाहे-बगाहे गाँवों में पहुँचती थी-वह अब
धड़ल्ले से दिन-दहाड़े ही नहीं, रात-बिरात भी गाँवों में अपने जलवे बिखरेगी। मैं इस पुल पहली बार गुजर रहा हूँ, और पच्चीसेक वर्ष पहले सरगुजा में देखी शोले
फिल्म का एक संवाद-दृश्य मेरे चश्मे के काँच पर उतर आया है। अमिताब बच्चन मौसी के पास हेमा मालिनी के विवाह हेतु वर रूप में धर्मेंद्र का प्रस्ताव लेकर
पहुँचते हैं। जाहिर है लड़के की तारीफ ही होगी। मौसी जब पूछती है कि लड़का कैसा है? तब अमिताब बच्चन कहते हैं, "लड़का बहुत अच्छा है-बस थोड़ी बीड़ी-ऊड़ी पी
लेता है। बीड़ी पीता है तो जुआ भी खेल लेता है-जुआ खेलता है, तो शराब भी पी लेता है।"इसी तर्ज पर गाँव में सट्टा-पर्ची है, तो गाँजा भी हैं, और गाँजा-भाँग है,
तो शराब भी है, और शराब है तो देह-मर्दन के उभ्य प्रबोधी प्रसंग भी हैं। काम और क्रोध के नंगे नाच का अखाड़ा गाँव तो पहले ही बन चुका था। इस पुल पर से अब शहर
का एक घिनौना परनाला अपनी धार का दिशा-अनुसंधान करता मुझे इसकी वज्रलेपी कमठ पीठ पर इस समय दिख रहा है। पुल पर से गुजरते बाजार के परनाली रेल में जैसे मैं बहने
लगता हूँ। रेले में तैरने की हिमत तो मेरे पास नहीं है। बाजार में तैरने से काम तो चलता नहीं है। बाजार में तो डूब जाता है-वह 'तंत्री-नाद कवित्त रस सरस राग
रस-रंग' जो है इसलिए इसमें डूबकर ही पार पाया जा सकता है- 'अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग।ʼ कहता रहे कोई शायद 'आया हूँ बाजार में खरीददार नहीं हूँ।ʼ अब
बाजार में पहूँचा नहीं जाता। बाजार अपने-आप चलकर आप तक आता है। मेरा जमाना आकाश-मार्ग के स्कॉय शाप्स, ई-मार्केटिंग और जमीनी ट्रकों पर लदे-फदे माबाइल मार्केट
के रूप में अवररित न जाने कितने तरह के बाजारों की गिरफ्त में है। आपके पास नहीं है पैसा-धेला-कोई बात नहीं। बैंक बैठा है- अपना खजाना खोले-जितना चाहो लेते जाओ।
न सही बैंक माल बेचने वाले आपको किश्तों में खरीदने को तैयार हैं। महज एक रुपया देकर कार ले जाइए। ऐसो को उदार जग माँही? उदारता पसरी है- आपके चारों और-ऋण का
धन जोड़ते जाइए। भूल जाइए कर्ज, फर्ज और मर्ज़ सदा याद रखे जाने वाले लफ्ज हैं। अतृप्तियों के कुंठा-कुंड में ऊभते-चूभते मध्यम वर्ग का भीमकाय विभ्रम बाजार के
संरचनावाद का सूत्रधार है।
बाजार अपने अनेक अर्थ संप्रेषित करने की क्षमताएँ अब अर्जित कर चुका है। विचार की शंकास्पद तथाकथित मृत्यु के बाद, उसका शवोच्छेदन हो चुका है। उसके लोथड़े
सूचनाओं के जंजाल में उलझा दिए गए हैं। बाजार पहले विचार का गला घोंटता है, फिर अपने रस-लंपट चक्र पाणि से संतोष के सत्पुरूष का संहार करता है। बहुंत बारिक मार
है इसकी। बारह सौ निन्यानबे रूपए का फलाँ बेल्ट खरीदिए और अपनी कंचन काया को क्षीण-कटि बनाइए। पहले चर्वण चरित के छप्पन भोग छत्तीसऊ व्यंजन से देह को
लहलहाएँ, क्योंकि स्वाद डिब्बों में बंद होकर आपकी रसना को रसा में बदल रहा है, फिर इसी लहलहाती देह को तराशिए। फलाँ बेल्ट तीस मीनट में आपको दर्शनीय बना
देगा। आप सुदर्शन हैं तो संसार के महासंग्राम के विजेता योद्धा हैं। बेल्ट खरीदेंगे तो बारह सौ पचास रूपयों का रूद्राक्ष और नौ सौ निन्यानबे रूपयों का श्री
यंत्र एकदम मुफ्त में आपको मिलेगा और यदि बारह घंटे के अंदर आपका आर्डर मिलता है, तो रुपए पाँच सौ पचास की अँगूठी बतौर उपहार में दी जाएगी। आप यदि विचार
केंद्रित हुए तो सुदर्शन नहीं बन पाएँगे।
बाजार के जबड़ों में सोना जड़ दिया गया है। वह आपको कच्चा भी चबाएगा, तो भी आप उसके सोने की चमक में चमत्कृत होकर अपने कटने-फटने को भूल जाएँगे। पुल पर से
गुजरता बाजार खेतों-खलिहानों खपरैलों-चौगानों को लहूलुहान करने के लिए अपने नाखून पैने कर रहा है। वैसे भी गाँव पर एक अदृश्य फ्लाय ओवर न जाने कब से लटक रहा
है, इस अदृश्य फ्लाय ओवर से राजनीतिक चालबाजियों के पाठ-कुपाठ, राजनैतिक विद्वेष की अखाड़ेबाजी, और राजनीति की क्रीडा में पलने वाला भ्रष्टाचार कब का गाँव को
चकनाचूर करता हुआ अलातचक्री अल्कापिंड बनकर उतर आया था। फुसफुसे अनारदानों को फोडता हुआ। लोगों ने प्रजातांत्रिक प्रणालियों की इन उल्कापिंडी रोशनियों में
अपने घुनखाए चेहरे देखे तो वे अपनी कलई चढ़ी देदीप्यमानता से भर उठे। मिथ्या आसक्ति और आश्वासनों के फुहारों में नहाए लोगों के चेहरों पर कब राख पुत गई, और
वे कब इन लुपलुपाती रोशनियों की कटु काट से लहूलुहान हो गए, इसे न वे समझ पाए, जिन्होने अपने सपनों को किरच-किरच होते देखकर, अपनी आँखे पथरा लीं, और न समझ पाए
जो सपनों के सौदागार बनकर बिजली, पानी सड़क की मौखिक खेंपे लादे आयो घोष बड़ो व्यापारी बनकर यहाँ तक आए थे।
पुल साकार हुआ है, तो अब शोध सर्वेक्षण दल भी द्रुतगति से इधर दौड़ेंगे। बची-खुची लहलहाती खेती-पानी किसी कार्पोरेट संस्थान के भूमि-पूजन के लिए हरित दूर्वा की
तरह थाली में रख दी जाएगी। जमीनों की कीमत बढ़ेगी। जो पंजाब में, हरियाणा में हो रहा है कि ऊँचे दामों में जमीन टुकड़े बेचकर किसान कोठी-बँगला-कार वाले बन रहे
हैं- वह यहाँ भी होगा। अपनी जमीन से बेदखल होते लोग यह भी नहीं जान पाएँगे कि जमीन के बदले जो कुछ वे पा रहे हैं-वह उन्हें, न जमीन का रहने देगा-न आकाश का। वे
कटी पतंग जैसे किसी काँटेदार पेड़ में उलझ-उलझे ही क्षत-विक्षत हो जाएँगे।
मैं कहाँ की बातें ले बैठा। पुल बना है-एक साध पूरी हुई है। पुल तो एक आस्था है। एक विश्वास है। समय के चरण-चिह्रों का एक भव्य स्मारक है। दुस्तर नदी पर
मनुष्य की मेधा और मनुष्य के श्रम का यह सतत पग-विन्यास है। यह पुल राजरथ का गरिमामय पथ भी है; तो यह पिपीलिकाओं के लिए सुगम पथ भी है। सतत सांस्कृतिक
यात्राओं का पुल साक्षी है। यह पुल केवल नदी पर काबिज नहीं है, बल्कि यह जातीय-स्मृतियों की सदानीरा पर भी काबिज है। कालांतर में भी यह पुल अपने टूटते-बिखरते
शीराजा में भी एक भव्य स्मारक-सा दिपदिपाता रहेगा। मैं पुल के आखिर छोर पर था तभी एक अंधा गायक अपने तंबूरे पर धुन छेड़ता हुआ मुझे दिख गया। वह अकेला बैठा था।
मैंने उससे कहा, "बाबा आगे नही चलना है।" उस अंधे के भाराक्रांत अक्षि-कोटरों में बैठे उम्मीद के पखेरुओं ने अपने पंख फड़फड़ाए। वह बोला, "भाई, पुल बन गया इसी
के किनारे अपना रहवास होगा।" फिर उसने एक भजन छेड़ दिया। "यह दुनिया इक पुल है भाई इसमें घर-दर नहीं बनाना रुकना नहीं है साईं।" भजन दूर तक मेरा पीछा करता रहा।
मैं गाँधी के राम और गाँधी के ग्राम के बीच बने पुल को तलाश रहा था-जिसके अंजर-पंजर काल की नदी में कबके बह चुके थे। फिर भी बहने के बाद पुल अपनी पहचान नहीं
खोता। मुझे यह नया पुल एक यह आश्वस्ति दे रहा है कि इस पर से मेरे युग का कोई गाँधी पाँव-पाँव चलता मेरे गाँव तक आ सकता है। पुल के भीतर अनंत आकांक्षाओं का जो
संसार अटका हुआ है, उनमें से मेरी एक आकांक्षा यह भी है कि इसी पुल पर से मरे राम मेरे युग के दशानन से मुठभेड़ करने आएँगे।