संपादक जी, नमोनमः।
आपका आदेश है कि आपकी पत्रिका के लिए बसंत-पर्व पर एक निबंध भेजूँ। आप आज के पत्रिका-संपादकों से भिन्न राह के राही लग रहे हैं। कहाँ तो सबके सब पागल हैं क्रिकेट विशेषांक, फिल्म विशेषांक और इसी जाति के दूसरे विषयों पर विशेषांक निकालने के लिए और कहाँ आप झोली में अबीर लिए होली की अगुआनी में थिरक रहे हैं! बीसवीं शताब्दी की सांध्य-वेला में आप साँस ले रहे हैं, मगर समय की नब्ज नहीं पहचानते, पुरातन को ढोए जा रहे हैं। आपको शायद पता नहीं है, भारतीय तीज-त्यौहार पर सोचना-लिखना आधुनिकता के खिलाफ समझा जाने लगा है। इसलिए आधुनिकतावादी पड़े परहेजी हो गए हैं। खैर इतनी है कि मेरे जैसे गँवई संस्कार के आदमी से आपने होली का रंग माँगा है। महानगर में रहता हूँ, देहाती हूँ तो क्या हुआ, आधुनिक चेतना को कुछ-कुछ समझता हूँ। औदार्य-स्फूर्त चेहरा मुझे आधुनिकता का सही चेहरा लगता है। फगुआ की तरह विकुंठ मन और मुखर व्यक्तित्व में ही मुझे आधुनिक संवेदना मिलती है। अपने मन की कमजोरी कहूँ आपसे, नई जिंदगी की भारी भीड़ में वह चेहरा कहीं दिखाई नहीं पड़ता कहीं कुछ रेखाएँ दिख जाती हैं आँखें पूरा व्यक्तित्व खोजती हैं। जो उपलब्ध होता है, उससे मन तृप्त कैसे हो! महज रस्म अदायगी से फगुआ का रस नहीं मिलता। कृत्रिमता से फाग-छंद लँगड़ाने लगता है। फगुआ तो सहज उल्लास की ठेठ अभिव्यक्ति है। विश्वास मानिए, जहाँ औदार्य का अभाव है वहाँ आधुनिक संवेदना का अभाव है और वहाँ कुंठा और अनुदारता टिक नहीं सकती। आधुनिकता का दंभ लादे चलने वाले से कौन बहस करे कि बसंत पर्व आधुनिकता का मुद्दई नहीं है, हमसफर है, मित्र है? आधुनिकता के बारे में मेरा अतिवादी दृष्टिकोण नहीं है, इसलिए सपाट शैली में आपसे कहूँ कि बसंत-बयार का स्पर्श मेरे भीतर थिरकन पैदा करता है। आदमी तो आदमी, बसंत मुद्रा देखकर काठ भी अँखुआने लगता है। आधुनिकतावादियों के उस हठ का इलाज नहीं है कि कोई पुरा-व्यवस्था और प्रकृति-उल्लास उन्हें कहीं से स्पर्श नहीं करता। सरासर झूठ है। छोड़िए झूठ-सच की बात। यह सीधे नैतिकता से जुड़ी बात है। वैसे नैतिकता का प्रश्न भी आज एक हद तक अप्रसंगिक हो गया है।
इतना तो आप स्वीकार करेंगे कि प्रकृति के अभाव को सहज रूप में महसूस न करनेवाला मन बीमार मन है। यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि आज के आदमी का एक भाग बीमार मन के लोगों का है। जी आधुनिकता का प्रभाव बीमारी के रूप में लोगों के मन में घुस गया है। इस बीमारी का पहला दुष्परिणाम यह है कि आदमी जो जीता है, उससे भिन्नरूप दिखाता है। बहुत सारे पुराने मूल्यों के साथ साँस लेते हुए और अपने-अपने आचरण से उनकी साँस को पोषण देते हुए उनके विरुद्ध हाथ भाँजता रहता है। इसे ही पाखंड कहते हैं। क्षमा करें, फिर आज की नैतिकता के निकट मेरी बात पहुँच गई।
मैं अपनी बात आपसे कह रहा था कि हर तीज-त्योहार से मेरे देहाती मन का ऐसा घनिष्ठ संबंध है कि उसके आगमन का आभास पाते ही उछाह की लहरें उठने लगती हैं, एकरसता की जकड़न शिथिल होने लगती है। लगता है, किसी विशेष का जीवन में प्रवेश होने वाला है। और उस विशेष के स्वागत में मैं भीतर से प्रस्तुत होने लगता हूँ कि मन में जागरण-भाव औदास्य-प्रदूषण को तोड़ने की भूमिका रचने लगता है। मगर पिछले कुछ वर्षों से जाने किस हवा का स्पर्श लग गया है मेरे मन को कि मेरा चिरपरिचित उल्लास मुझे अपने सही रूप में उपलब्ध नहीं हो पाता। बड़ी आतुरतापूर्वक उसे जोहता रहता हूँ। कभी-कभी शंका होती है कि मेरे मन में आधुनिकता का प्रदूषण तो नहीं घुस गया है! अचरज क्या! वर्षों से महानगर में रहता हूँ। जिस अंचल में रहता हूँ, उसे शहरतली कहा जा सकता है। शहर से जुड़ा हुआ लेकिन कुछ-कुछ गाँवनुमा। छोटे-छोटे घरों की बस्ती है मेरा मुहल्ला। मेरे घर से सटा एक तो पूरा गाँव जैसा खपड़ैल का घर है। सुबह-शाम इस घर से जो धुआँ उठता है, वह मेरी पुस्तकों के पन्ने-पन्ने पर बस गया है। अपनी प्यारी पुस्तकों के रूप को पिराते देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। खपड़ैल घर से केवल धुआँ ही नहीं उठता, एक करुण रुदन-सुर हर तीज-त्योहार को उठता है और पर्व का सारा उल्लास-आस्वाद विषाद में बदल जाता है। एक विधवा है। साधारण मजूरी करने वाली अधेड़ महिला है। पति तरकारी बेचता था। तीज-त्योहार पर अपनी बहुरिया को कायदे से सजाता-बजाता था। चार वर्ष हुए, जलोदर रोग से मर गया। और उस औरत की खुशी सदा के लिए बुझ गई। उम्र ज्यादा नहीं थी। चाहती तो दूसरा मिल सकता था। मगर वह राह उसे नहीं रुची। मजूरी करके अपने बेटे को पोसती है। तीज-त्यौहार का आभास पाते ही उसका रुदन-सुर गूँजने लगता है। उसकी ओर खुली मेरे कमरे की दो खिड़कियाँ मेरे मानस कक्ष को उदासी से भर देती हैं। पहले पर्व की बात सोचकर मन अगरा उठता था, अब आतंकित हो उठता है। पिछली दीवारी में कई वर्षों बाद गाँव गया था। वहाँ भी मन लगा नहीं। मन में अपने पड़ोसिन की उदासी बसी हुई थी। और गाँव का परिवर्तित चेहरा अलग मुँह बिरा रहा था। भारी मन लिए लौट आया।
होली सामने है। होली-नर्तन में भाग लेने का आपका नेवता आया है। मगर मेरे सामने वह अभागिन औरत है, रुदन जिसकी अस्थायी नियति बन गई है। और जिसका विषाद-सुर मुझे आंदेलित करता रहता है। मैं समझता हूँ, मेरे बसंत पर लाठी चलना उसका कतई उद्देश्य नहीं है। अभागिन का बसंत-छंद टूट गया है और वह अपनी रिक्तता से दहकती-कलपती रहती है। यह तो मेरे मन की कमजोरी है कि जरा-सी उदास बयार बही नहीं कि मेरा मन मेहरा जाता है। कठोर दुनिया में कोई कैसे जीये ऐसे कमजोर मन को लेकर। परसों एक घटना घटी मेरे मुहल्ले में। साधारण औकात के एक अध्यापक मानुष सियालदह-बऊ बाजार के नुक्कड़ पर ट्रक से दुर्घटनाग्रस्त हो गए। बच्चे को स्कूल पहुँचाकर घर लौट रहे थे कि बाएँ पैर पर ट्रक का चक्का चढ़ गया।
प्राण तो बच गया, मगर पूरा पैर काट देना पड़ा। उनकी पत्नी दो छोटे बच्चों की माँ है। देहात की औरत, महानगर में पति की नौकरी के सहारे टिकी है। उसकी दशा देख-सुनकर मुझे रात-भर नींद नहीं आई। उसकी होली ही लँगड़ी हो गई। रात-भर सोचता रहा। मन को समझाने की कोशिश करता हूँ, इतना नाजुक होने से काम नहीं चलेगा बाबा, संसार में दुख की कोई सीमा है, उसे लेकर माथा पीटते रहें, तो हो चुकी संसार यात्रा। मन मानता नहीं। बात की बात में उदास हो जाता है। ज्यादा भावुक है, इसलिए गैरआधुनिक लगता है। भावुकता है, शायद कभी तीज-त्योहार को अँकवार में भर लेने को मन अकुलाया रहता है। मन पर्व-संस्पर्श से निहाल हो जाता है।
उल्लसित फगुआ का ठाठ देखकर मैं बराबर सोचता हूँ, राजपुरुषों, सामंतों, श्रीमंतों के कब्जे में रहा होगा किसी दिन बसंत-पर्व, मगर प्रकृतितः है यह मैदानी पर्व। अपने अर्थ-बल से विलास-नद की रचना कर उसमें डुबकी लगाने वाले फगुआ का मौलिक आस्वाद नहीं पा सकते। वे तो अहंकार की रचना करते हैं और समझते हैं कि पर्व मना रहे हैं। लाखों की आतिशबाजी और पटाके फोड़ने-फूँकने से पर्व का श्रृंगार नहीं हो जाता। पर्व पर्व नहीं होता यदि उसके स्पर्श से मन की गाँठ नहीं खुलती, मैल नहीं धुलती। मन के स्तर-स्तर पर मैल जमी हो और पर्व का आयोजन करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा हो तो पर्व ऐसे आयोजन से मुँह फेर लेता है। लाख निहोरा करें, कृत्रिमता से पर्व का समझौता नहीं होता। कहते हैं, होली ब्रज में उल्लसित होती है। कहते हैं, होली शूद्रों का त्योहार है। ब्रज के हवा-पानी में ही वह रस है जो घूँघट का पट विदीर्ण कर देता है। फागुनी हवा का परस लोक को उत्तेजना देता है और सभ्यता का ओढ़ना लोग उतार फेंकते हैं। मेरे ग्रामांचल का फगुआ-राग सुनकर शहर के नफीस मिजाजवाले बाबू लोग कान मूँद लें। सचमुच मनुष्य के वास्तविक रूप की अकुंठ अभिव्यक्ति सबके लिए सह्य नहीं होती। मगर मन में जो गुदगुदी अनायस पैदा होती है, उसे अस्वीकार करना सबके लिए कठिन होता है। मैं सोचता हूँ, जो दूसरे के उन्मुक्त उल्लास से अगरा नहीं उठता, उसे दूसरे की पीड़ा परेशान कैसे करेगी? मुझे परेशान करती है। मुझे फगुआ-आवेग खींचता है। आप चाहें तो मुझे निहायत पुराणपंथी मान लें, बज्र देहाती। मुझे बुरा नहीं लगेगा। आधुनिकता यदि धरती की धूल से विलग करती हो, आत्मलीन बनाती हो, उसके स्पर्श से यदि आदमी समाज के साथ हँसना-रोना भूल जाता हो तो मुझे नहीं चाहिए आधुनिकता की ऐसी दुम। अपना भोजपुरी देहाती रंग-रूप ही भला है, जो लोक-कंठ में गूँजता है, फाग-राग में छलकता है, चैता की मादकता बिखेरता है, धरती के नेह-छोह की कीमत उजागर करता है, आदमी को सामाजिक राग-रंग में बोरता है। फगुआ है। कहने वाले कहते रहें, यह शूद्रों का, असभ्यों का फूहड़ आयोजन है। यह उन्मुक्त मन का सहज उल्लास है। मेरे गाँव चलिए, एक जोगीरा सुनकर आप चित हो जाएँगे। कबीर हो या फगुआ, एक उत्तान राग सुनिए, तबीयत लहालोट न हो जाए तो कहिए। कहा न, मन बड़ा कमजोर है। गाँव-प्रेम के आवेग में आपको गाँव चलने का नेवता दे बैठा। मगर चिंता हो रही है, क्या दिखाऊँगा आपको? कहाँ से सुनाऊँगा आपको फाग-राग?
अपने गाँव का दुर्भाग्य बताऊँ आपको, शहर का पाप लग गया है मेरे गाँव को। पूरे गाँव के उल्लास को व्यंजित करनेवाला, एक समूह-कंठ से गूँजनेवाला फाग-राग अब सुनाई नहीं पड़ता। शहराती शैली में अपने-अपने ढोल पर अपना-अपना राग पीटकर लोग फगुआ का रस्म पूरी करने लगे हैं। ग्रामीण सहज आत्मीयता बिला गई है। रंग-अबीर पहले से महँगे दाम में अधिक परिमाण में खरीदा जाता है। पुआ-पकवान भी बनता है। मगर वह उल्लास मर गया है जो तीज-त्योहार की जीवंतता का प्रमाण है। मेरे अंचल में लोक-कंठ से फागुन में एक आवाज गूँजती थी, 'भरि फागुन बुढ़वा देवर लागे।' अब जवान देवर भी खूसट की तरह मुँह लटकाए रहता है। फगुआ का रंग खेल-खुल नहीं रहा है। लाचार पड़ा है कि अपनी-अपनी घेरान में लोग सिमट गए हैं। गाँव की वास्तविक पहचान को, समूह-संस्कृति और लोक-कंठ की दीप्ति को आधुनिकता का बाहरी स्पर्श, आधुनिक संवेदना की प्रतीति नहीं, शहर की कृत्रिम अनुकृति यानी एक वर्णसंकर लहर लीलती जा रही है। और गाँव का चेहरा-चरित्र अपरिचित होता जा रहा है। मेरा गाँव फगुआ नहीं जी रहा है, फगुआ का शव ढो रहा है। ना महाराज, आप मेरे गाँव न चलें। आपको मेरा वह गाँव मेरे भूगोल में नहीं मिलेगा, जो मेरे मन में रसा-बसा है।
लोक-पर्व फगुआ जितना मैदानी था, उतना ही घरघुस, खेत-खलिहान, सिवान-बथान पर जिस जोम में नाचता था, उतना ही ढीठ था आँगन-घर में घुसने में। आज वह घर से बाहर निकलता ही नहीं, जैसे उसकी मर्दानगी बिला गई, मेहरा बन गया! दुखी है कि लोक-श्रृंगार से कट गया, आप ही सोचिए, कहाँ वह लोक-कंठ में ढोल-झाल पर थिरकता था, कहाँ अब अलग-अलग घर में कैद हो गया है! यह भी कोई बात हुई कि अपना उल्लास और अपनी पीड़ा समाज से कटकर अकेले भोगना पड़े। क्या आप महसूस नहीं करते कि लोग अकेले होते जा रहे हैं? मेरा मन पीड़ित है कि लोक-मन टूट-बिखर रहा है। मेरे गाँव के लोगों के रिश्ते टेढ़े और कमजोर होते जा रहे हैं। उदास मन से सोचता हूँ, मेरे ग्रामांचल का सामाजिक सौख्य एकाएक कहाँ बिला गया? मुझे लगता है, स्वाधीन देश की राजनीतिक बयार ने अपनी धरती से, अपनी विरासत से हमें एक हद तक उदासीन बना दिया है। विदेशी शासकों ने भी हमें अपनी विरासत से काटने की कोशिश की थी। स्वत्व-सचेत अभीप्सा के बल पर तब के लोकनायकों ने हमें ढहने से बचा लिया था। आज अपने तीज-त्यौहार को हम अन्यथा दृष्टि से देखने लगे हैं। अपना पुरातन, पूरा का पूरा हमें फूहड़ लगने लगा है। इस संस्कार को पैदा करने के पीछे बहुत बड़े राजनीतिक अज्ञान-अंधड़ का घिनौना हाथ मुझे दिखाई पड़ रहा है। अन्यथा क्या कारण है कि हमारी जातीय संस्कृति की पहचान पर देश के बुद्धिजीवी ढीठ प्रहार करें! मेरे एक कवि-मित्र ने तो कुछेक वर्ष पूर्व पर्वों की भीड़ से ऊबकर अपनी पत्रिका के माध्यम से पर्वों के राष्ट्रीयकरण और सीमा-बंदी का प्रस्ताव रखा था। उस प्रस्ताव का और तो कुछ नहीं हुआ, देश के बुद्धिजीवियों की मानसिकता का भयावह संकेत जरूर मिला। और विश्वास मानिए, मेरा देहाती मन उस प्रस्ताव को देखकर गहरी उदासी में डूब गया था। राष्ट्रीयकरण की सीधा अर्थ सरकारीकरण हो गया है। डर रहा था, कहीं भारतीय पर्वों को प्रतिबंधित करने का कोई प्रस्ताव न ला दे। सामान्य गतिविधियों पर आज प्रतिबंध लगते ही रहते हैं, इसलिए मेरा डर निराधार नहीं है। मगर चिंता की बात सरकारी प्रतिबंध नहीं हैं, क्योंकि प्रतिबंध लोक-चेतना को दबाने में हमेशा विफल साबित हुए हैं। चिंता की बात है, लोगों का अपनी विरासत से उदासीन होना, गाँववालों का फगुआ के सहज रूप से मुँह फेर लेना। फाग-राग से रिक्त गाँव भारतीय गाँव नहीं रह जाएँगे।
मेरा देहाती मन फगुआ को तलाश रहा है। आधुनिकता की सही संवेदना खोज रहा हूँ। उदास फगुआ को नर्तित करने का कोई उपचार ढूँढ़िए बंधु! फगुआ मर जाएगा तो हम जीकर क्या करेंगे! फगुआ के उल्लास में ही जीने की सार्थकता है। संक्राति को संस्कृति में फगुआ ही बदल सकता है। इसलिए बड़ी बेसब्री से उसकी बाट जोह रहा हूँ। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि महँगे विदेशी खेल पर झूमना विलास-पंक में प्रवृत्त होना है? मुझे तो लगता है और डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे तेजस्वी विचारक की भी धारणा थी कि क्रिकेट भारत जैसे गरीब देश के लिए हर दृष्टि से अनुपयुक्त है। मगर समाज का संस्कार करनेवाले पत्रिका-संपादकों को देखिए, क्रिकेट को लेकर अपनी पत्रिका के विशेषांक पर विशेषांक निकाले जा रहे हैं। पाठक के रुचि-संवर्द्धन से इन्हें जैसे कोई मतलब नहीं है। अपराध को सजा-बजाकर पेश करना पत्रकारिता की आधुनिक भंगिमा नहीं मानी जानी चाहिए, फिल्मों की नंगी टाँगों का प्रकाशन आधुनिक सौंदर्यबोध का परिचायक नहीं बन सकता। आपसे साफ कहूँ, मुझे यह शैली आधुनिकता की अवमानना की शैली लगती है। मुझे तो आप अधिक आधुनिक लगते हैं कि व्यावसायिक प्रलोभन में पड़कर और पत्रिका-संपादकों की तरह आधुनिकता के नाम पर आप फूहड़ आयोजन में नहीं लगे हैं। आप मेरी तरह फगुआ की प्रतिक्षा में हैं। होली मनाने की तैयारी में आपको देखकर मन प्रीत है। अपनी ओर से मुट्ठी भर अबीर आपको भेज रहा हूँ। अपने अबीर में मिलाकर औरों को भी बाँटें ताकि बसंत-संस्पर्श का आस्वाद लोगों को मिल सके, प्रदूषण-धूमायित चेहरे पर गुलाल की लाली दमक उठे। आज की जिंदगी की डरावनी चुप्पी को होली अपने उल्लास-मुखर प्रभाव से तोड़े, यही मनःकामना है।
[ समाज विकास - संपादक के नाम 11-3-81 को लिखा गया पत्र।]