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कविता

गाँव से माँजी आई हैं

रजनी मोरवाल


छोंके की खुशबू चौके में फिर मँडराई है,
बहुत दिनों के बाद गाँव से माँजी आई हैं।

परदों कि उघड़ी सीवन पर तुरपाई होगी,
बच्चों पर बाकी ममता की भरपाई होगी,
चना-चबेना लड्डू छेना भरकर लाई हैं,
बहुत दिनों के बाद गाँव से माँजी आई हैं।

ठाकुर जी के भजन आरती नियमित गूँजेगीं
आँगन की आधुनिक हवाएँ घूँघट ओढ़ेंगीं,
मर्यादित हो चारदिवारी कुछ सकुचाई है,
बहुत दिनों के बाद गाँव से माँजी आई हैं।

पीतल की थाली काँसे का लोटा चमक उठा,
चौक-मांडनों से तुलसी का चौरा दमक उठा,
बूढ़े हाथों ने जादू की छड़ी घुमाई है,
बहुत दिनों के बाद गाँव से माँजी आई हैं।


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