hindisamay head


अ+ अ-

कविता

गजल

डा. बलराम शुक्ल

अनुक्रम हुस्ने आगाह पीछे    

बहुत हसीं है वो और हुस्न से आगाह भी है

उसे पता है कि वो चौधवीं का माह भी है

नज़र नज़र में मुसद्दद[1] है उसकी, उसको मगर

पता है उसकी तरफ़ ही सभी निगाह भी है

न देखें जो तो कहे जायें ज़ाहिदे बद-मग़्ज़[2]

जो देखिये तो वो आँखों का इश्तिबाह[3] भी है

हम आजिज़ों[4] को कोई उससे पूछकर बतलाय

कि मुल्के हुस्न में कोई पनाहगाह[5] भी है?

घिरा है चार तरफ़ ऐसे उसके हुस्न से ख़िज़्र[6]

कि पूछता है सभी से कि कोई राह भी है?



[1] बँधी हुई

[2] बद-दिमाग़

[3] ग़लती

[4] असमर्थ

[5] शरणस्थली

[6] इस्लामी विश्वास के अनुसार ख़िज़्र वह पैग़म्बर हैं जो भूले भटकों को राह दिखाते हैं।


>>पीछे>>

End Text  End Text  End Text