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कविता

योनि हो तो माँ हो

सुभाष राय


तुमने जब-जब मुझे छुआ है
मैं धंस गया हूँ अपने ही भीतर
तुम्हारी ऊँगलियों को अपने
हृदय पर महसूस करते हुए

तुम्हारे पास आते ही मैं
मुक्त हो जाता हूँ नसों में
दौड़ते हुए सारे विष बवंडर से
तुमने जब भी मेरे सिर पर हाथ फेरा

मेरे रोम-रोम में उग आई हो
सहस्त्र योनियों की तरह
मुझे हर तरफ से निगलती हुई

तुम्हारे भीतर होकर
बहुत सुरक्षित महसूस करता हूँ मैं
अपने होने को तुम्हारे होने में
विलीन होते देखता हुआ

तुम्हारा स्पर्श तत्क्षण
बदल कर रख देता है मुझे
स्त्री ही हो जाता हूँ
तुम्हारे पास होकर मैं
बहने लगती हो मेरे भीतर
पिघलने लगता हूँ मैं
तुम्हारे साथ बहने के लिए

पुरुष की अपेक्षा से परे
योनि हो तो माँ हो
योनि हो तो सर्जना हो
योनि हो तो वात्सल्य हो
योनि हो तो धारयित्री हो
ब्रह्मांड में बिखरे समस्त बीजों की

मैं पाना चाहता हूँ तुम्हें
तुम्हारी अनाहत ऊष्मा के साथ
न होकर भी होना चाहता हूँ

तुम्हारे अजस्र विस्तार में
और इस तरह समस्त संसार में


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