लो फिर चौंक गई मैं
भोर का तारा डूबा ही था
गहरी नींद का आगोश
कौन था वह?
जो सोया पड़ा है
पीठ दिये
यकीनन वो नहीं था
यह है साथ
रेत-सी ज़िंदगी
हथेली से
झर रही है
तारों भरी रात-सा
अंतस मेरा
निरे बियावान तुम
कहाँ से करूँ शुरू
उलझन मथती थी
झरबेरी-सी झर गई उमंगें
वे कुलाचें कहाँ खो गईं
नहीं मालूम
अच्छा होता
उमंगों के पर
कतर दिये जाते
फैली बाँहों को
घुटनों के माफिक
सिकोड़ना सिखाया जाता
सख्ती से
काश, कि ऐसा होता