वर्तमान भारत में भाषा के माध्यम से अपनी जातीय दावेदारी को सिद्ध करने की वृत्ति चरम पर है। दावेदारी के इस रूप की आक्रामकता एक ओर यदि हिंदी बनाम अन्य भारतीय
भाषाओं के रूप में सामने आ रही है तो दूसरी ओर हिंदी बनाम उसकी अन्य जनपदीय भाषाओं - बोलियों के टकराव के रूप में दिखाई पड़ रही है। इस टकराव का एक व्यापक
राजनीतिक पाठ है। भाषाएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी क्षेत्र या अंचल विशेष की अस्मिता को एक ऐसा राजनीतिक रूप दे देती है कि अन्य भाषाई क्षेत्र घृणा या
फिर विरोध की प्रतीकात्मक छवियों में सीमाबद्ध होने लगते हैं।
आजाद भारत में साम्राज्यवादी अनुभवों से सहमति और असहमति के अंतर्संघर्ष ने भारत को भयंकर रूप से भाषाई पर-निर्भरता की ओर ढकेला है। यही कारण है कि हम एक सुदृढ़
भाषाई नीति को बनाने की अपेक्षा उसके विभेदक स्वरूप को तलाशने और पाने में लगे हैं। प्रारंभ में यदि अभिजात्य राजनीति ने अँग्रेजी भाषा की सत्ता को स्वीकारने
में अधिक रुचि दिखाई तो बाद में क्षेत्रीय राजनीति के उभार ने भाषाई दाँव-पेंच को केवल भावनात्मक आधार तक सीमित कर दिया। प्रशासन के निचले स्तर में यद्यपि
राजभाषाएँ उपयोग में लाई जाती रहीं लेकिन जहाँ तक ज्ञान, सम्मान और प्रशासन का मामला है, राजभाषाएँ अपने औचित्य को प्रमाणित नहीं कर पाई है। इसका अर्थ यह कतई
नहीं है कि भारतीय भाषाएँ उक्त दृष्टि से कमजोर हैं। कोई भी भाषा अपने संरचनात्मक रूप में कमजोर अथवा मजबूत नहीं होती। वह नई परिस्थितियों, नई चुनौतियों के
अनुरूप नए सिरे से गढ़ी जाकर अपने औचित्य को प्रमाणित करती है। इसके लिए शासक वर्ग के भीतर भाषाई दूरदर्शिता का होना निहायत जरूरी है।
भारत के संविधान के निर्माण में जिन विषयों पर सबसे ज्यादा बहस हुई उनमें से एक भाषावार प्रांतों का निर्माण था। इसकी मुख्य वजह आजादी के आंदोलन के दौरान भाषाई
चेतना का विकास था। कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में बाकायदा यह वादा किया था कि आजादी के पश्चात प्रांतों का पुनर्गठन किया जाएगा। लेकिन समस्या की गंभीरता को
देखते हुए वह लगातार इससे बचती रही, जब तक कि पृथक आंध्र के लिए श्रीरामुलु ने अपने प्राणों की आहुति नहीं दे दी। लेकिन तब तक भाषाई विवाद बहुत विस्फोटक रूप ले
चुका था। स्वतंत्र भारत का पहला दशक भारत के पुननिर्माण के साथ-साथ भाषाई विवाद के दशक के रूप में भी जाना जाता है। इस दशक में भाषाई विवाद के दो पक्ष थे : एक,
भाषावार प्रांतों का गठन और दूसरा, राजभाषा के रूप में हिंदी पर विचार।
वस्तुतः उक्त दोनों पक्ष एक ही मुद्दे को दो पहलू हैं जो ऊपरी तौर पर दो भिन्न मुद्दे लगते हैं। जिन लोगों ने भाषावार प्रांत-रचना की दिशा में बढ़-चढ़कर हिस्सा
लिया, वे लोग समूचे देश की राजभाषा के रूप में हिंदी अपनाने के पक्ष में नहीं थे। राष्ट्रीय राजनीति आजादी के बाद उत्पन्न समस्याओं के निपटारे में इतनी उलझी हुई
थी कि उसने भाषाई अलगाववाद को महत्व न देने का फैसला किया। स्वयं महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू तक भाषाई मुद्दे को टालना चाहते थे। लेकिन समूचे राष्ट्रीय
आंदोलन के दौरान भाषाई राष्ट्र इतने प्रबल और ताकतवर हो चुके थे कि वे आजादी के बाद किसी भी रूप में इस मुद्दे का निपटारा चाहते थे। इसका एक कारण यह भी था कि
ऐसा न करने पर उनकी क्षेत्रीय विश्वसनीयता संदेह के दायरे में आ जाती। भाषाई विवाद के निपटारे की दिशा में गठित जे.वी.पी. समिति, जिसके सदस्य जवाहरलाल नेहरू,
वल्लभभाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैया थे, ने पुनर्गठन संबंधी अपना मत कुछ इस प्रकार दिया - ''भाषा महज एक जोड़ने वाली शक्ति नहीं बल्कि एक दूसरे से अलग करने वाली
ताकत भी है।'' 1
इस परिस्थिति में यदि डॉ. अंबेडकर के भाषा-संबंधी विचारों को देखें तो पता चलता है कि वे अपने समकालीन राजनीतिज्ञों से विचार, संवेदना और दूरदृष्टि के लिहाज से
कहीं आगे थे।
आजादी के बाद राजनीतिक स्तर पर भाषाई विवाद का मसला संविधान सभा की बहस से शुरू हुआ। संविधान के निर्माण के लिए गठित प्रारूप समिति, जिसके अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर
थे, ने जब अथक परिश्रम के बाद अपना संविधान, संविधान सभा के सामने रखा, तब बहस से पूर्व ही सेठ गोविंद दास, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', अलगूराय शास्त्री, आर.वी.
धुलेकर, सुरेशचंद्र मजूमदार ने विधान की भाषा पर सवाल उठाया। और विशेषकर उक्त में से प्रथम तीन ने भाषा यानी राष्ट्रभाषा के सवाल पर सबसे पहले बहस करने की माँग
की। यद्यपि राजभाषा पर बहस पहले से ही 99 क्रम में निर्धारित था। इस माँग को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने यह कहकर खारिज कर दिया कि इससे भाषाई
कटुता में वृद्धि होगी और महत्वपूर्ण मुद्दों का उचित तरीके से निपटारा नहीं हो सकेगा। अलगू राय शास्त्री ने संविधान की भाषा की तीखी आलोचना करते हुए कहा -''एक
ऐसा देश जिसकी अपनी भाषा है, वह एक विदेशी भाषा में अपना पहला, स्वतंत्रता का, विधान बनाए, यह एक बहुत ही लज्जाजनक बात होगी।'' 2 यह बहस 4
नवंबर 1948 को संविधान सभा में हुई थी।
डॉ. अंबेडकर राजभाषा विवाद के मसले पर सीधे हिंदी का पक्ष लेने वालों के साथ नहीं थे। उन्होंने भाषावार रूप से प्रांतों के गठन के संदर्भ में आनुषांगिक रूप से
राजभाषा हिंदी पर अपने विचार रखे। 1948 में उन्होंने भाषावार प्रांत आयोग के समक्ष महाराष्ट्र के संबंध में अपना वक्तव्य दिया। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा -
''भाषावार प्रांतों के पुनर्गठन के सिद्धांत को स्वीकार कर लेने के बाद भी ऐसी व्यवस्था करनी होगी, ताकि भारत की एकता खंडित न होने पाए। इसलिए इस समस्या के
समाधान हेतु मेरा सुझाव है कि भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन की माँग को स्वीकार कर लेने पर भी ऐसी संवैधानिक व्यवस्था हो कि केंद्र सरकार की जो राजभाषा
हो, वही भाषा सभी प्रांतों की राजभाषा मानी जाए। केवल इसी आधार पर मैं भाषावार प्रांतों की माँग को मानने के लिए तैयार हूँ।'' 3 यहाँ स्पष्ट है
कि डॉ. अंबेडकर राजभाषा के मसले को राष्ट्रीय अखंडता से जोड़कर देख रहे थे। समूचे आजादी के आंदोलन के दौरान यद्यपि जनता को एकजुट करने के लिए हिंदी का प्रचार
बहुत किया गया लेकिन आजादी के बाद उसे अमल में नहीं लाया गया बल्कि भाषावार प्रांत रचना की नीति ने भाषाई अलगाव को अत्यंत तीखा कर दिया था। डॉ. अंबेडकर इस आसन्न
खतरे को देख रहे थे इसलिए उन्होंने आगे कहा - ''भाषावार प्रांतों की योजना में वहाँ की भाषा की भूमिका अनिवार्यतः महत्वपूर्ण है। किंतु यह भूमिका प्रांत के
निर्माण तक ही सीमित रखी जा सकती है अर्थात इसका उपयोग उस प्रांत की सीमाओं के रेखांकन तक ही किया जाना चाहिए। भाषावार प्रांतों की योजना में ऐसी कोई दो-टूक
अनिवार्यता नहीं है, जो हमारे लिए उस प्रांतीय भाषा को वहाँ की राजभाषा भी बनाने के लिए बाध्यकारी हो।''4 प्रांतों की भाषाओं को वहाँ की
राजभाषा के रूप में स्वीकृत करने का सीधा अर्थ उनकी नजर में 'प्रांतों को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में विकसित होने का न्योता देने' 5 जैसा था।
आयोग के समक्ष प्रस्तुत वक्तव्य में यह स्पष्टतः दिखाई पड़ता है कि डॉ. अंबेडकर भाषावाद के घोर विरोधी थे और भाषा को समूचे राष्ट्र को जोड़ने के एक महत्वपूर्ण
सूत्र के रूप में देखते थे। इस संबंध में उनकी राय लोकप्रिय राजनीति से सर्वथा भिन्न थी। अपनी राय को और अधिक स्पष्टता से लोगों के सामने रखने के लिए उन्होंने
'द टाइम्स ऑफ इंडिया' में 23 अप्रैल 1953 को लेख लिख कर अपनी राय रखी। उक्त लेख में भी उन्होंने कहा कि 'भाषावार प्रांत रचना का कारण और इतिहास चाहे जो रहा हो,
उसका निपटारा वर्तमान और भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।' 6
यहाँ तक के विश्लेषण से यह साफ दिखाई पड़ता है कि डॉ. अंबेडकर त्रिभाषी सूत्र के समर्थक नहीं थे। राजभाषा के संबंध में हिंदी का समर्थन उन्होंने 1955 में
प्रकाशित अपनी पुस्तिका में किया। यह पुस्तक भी वस्तुतः भाषावार प्रांतों के गठन में उपजी समस्याओं पर केंद्रित थी लेकिन इसमें उन्होंने दो बातें स्पष्ट तौर पर
कहीं। पहला, भारत जैसे बहुभाषी राज्य को 'एक राज्य एक भाषा' के सूत्र पर विश्वास करना चाहिए। और दूसरा, यह भाषा हिंदी के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा हो ही नहीं
सकती। उन्होंने उन्नत देशों का हवाला देते हुए कहा कि 'एक राज्य एक भाषा' विकास का सूत्र है। बहुभाषी राष्ट्र की संकल्पना अंततः विघटन की ओर ले जाती है। 7 मिश्रित भाषावार राज्यों के खतरों का जिक्र करते हुए उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि 'इस खतरे से तभी निपटा जा सकता है, जब संविधान में
क्षेत्रीय भाषा किसी भी राज्य की राजभाषा नहीं होगी। राज्य की राजभाषा हिंदी रहेगी और जब तक भारत इस प्रयोजन के योग्य नहीं हो जाता, अँग्रेजी बनी रहेगी।' 8
यहाँ यह ध्यान में रखा जाना आवश्यक है कि सन 1952 में आंध्र प्रदेश को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग को लेकर श्रीरामुलु के आत्मदाह के पश्चात्
राजभाषा और प्रांतों के गठन का मुद्दा अत्यंत संवेदनशील बन चुका था। ऐसे में लोकप्रिय राजनीति के दबाव में आकर जहाँ बड़े-बड़े राजनेता समर्पण करते हुए-से दिखाई
पड़ते हैं वहीं राजभाषा के मुद्दे पर डॉ. अंबेडकर अत्यंत साहस के साथ अपना पक्ष रखते हैं और क्षेत्रीयता के आगे समर्पण नहीं करते। वे भाषाई मुद्दे को भावनात्मक
अधिकार की तरह नहीं बल्कि राष्ट्रीय चरित्र और कर्तव्य के रूप में परिभाषित करते हैं - ''भाषा संस्कृति की संजीवनी होती है। चूँकि भारतवासी एकता चाहते हैं और एक
समान संस्कृति विकसित करने के इच्छुक हैं इसलिए सभी भारतीयों का यह भारी कर्तव्य है कि वे हिंदी को अपनी भाषा के रूप में अपनाएँ। कोई भी भारतीय, जो इस प्रस्ताव
को भाषावार राज्य के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार नहीं करता, भारतीय कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।'' 9
आजादी के बाद के पहले दशक में ही जिस प्रतिस्पर्धामूलक और अलगाववादी भाषाई राजनीति का आरंभ हो रहा था, डॉ. अंबेडकर उसके भविष्य को ठीक-ठीक समझ रहे थे। इसलिए
उन्होंने एक 'एक भाषा एक राज्य' के स्थान पर 'एक राज्य एक भाषा' का समर्थन किया। वे किसी भी रूप में ऐसे प्रांतवाद का समर्थन नहीं करते, जो राष्ट्रीयता के समक्ष
अपनी स्वतंत्र और अलहदा पहचान की दावेदारी पेश करे। कह सकते हैं कि राष्ट्रीय एकता उनके लिए कोई भावनात्मक मामला नहीं था बल्कि विशुद्ध व्यावहारिक मामला था। इसे
वे किसी भी लोकतंत्र की सफलता का अनिवार्य पक्ष मानते थे। इसलिए उन्होंने कहा - ''यदि राज्य में रहने वाले लोगों में भ्रातृत्व भावना का अभाव हो तो लोकतंत्र
बिना संघर्ष के चल ही नहीं सकता। नेतृत्व के लिए दो दलों में लड़ाई-झगड़े और प्रशासन में भेदभाव का व्यवहार, ये दो तत्व किसी भी मिश्रित भाषावार (द्विभाषी) में
सदा बने रहते हैं और उनका लोकतंत्र के साथ निर्वाह नहीं हो सकता।'' 10
राजभाषा के मुद्दे पर भारतीय राजनीति यदि लोकप्रिय राजनीति के समक्ष न झुकते हुए हिंदी के पक्ष में डॉ. अंबेडकर की मान्यताओं को स्वीकार करती तो न केवल भारत की
संघात्मकता और मजबूत होती बल्कि कालांतर में भाषावाद के नाम पर जो दंगे हुए और सामान्य लोगों को जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा उससे बचा जा सकता था।
संदर्भ :
1.
रामचंद्र गुहा - भारत गांधी के बाद (पृष्ठ-229)
2.
संविधान सभा और भाषा विमर्श - राजीव रंजन गिरि (संवेद - नवंबर 2012, संपादक - किशन कालजयी, पृष्ठ-15)
3.
बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड - 1, पृष्ठ : 130-131
4.
उप. पृष्ठ-131
5.
उप. पृष्ठ-132
6.
उप. पृष्ठ-163-167
7.
उप. पृष्ठ-176
8.
उप. पृष्ठ-178
9.
उप. पृष्ठ-178-179
10
.
उप. पृष्ठ-177