1857 के विद्रोह को शीघ्र ही 150 वर्ष पूरे हो जायेंगे .2007 में इस अवसर पर पूरे देश भर में बडे पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारियां चल रहीं हैं .फिल्म उद्योग, टेलीविजन और पत्र पत्रिकायें इसके लिये अभी से जुट गयीं हैं आरेन् केतन मेहता की फिल्म मंगल पाण्डे इस विशाल आयोजन के लिये एक ट्रेलर के तौर पर देखी जा सकती है .पर इस पूरे ताम झाम और राष्ट्र प्रेम से लबरेज उत्सवधर्मिता के बीच कुछ ऐसे प्रश्न उठाये जा रहें हैं जो शायद 1857 को भारत राष्ट्र का पहला स्वतंत्रता संग्राम मानने वालों को बहुत अच्छे न लगें . ऐसा नहीं है कि ये सवाल 1907 में जब इस संघर्ष को 50 वर्ष हुये थे या 100 वर्ष होने पर 1957 में नहीं उठाये गये थे पर उस समय इन प्रश्नों के उठने पर इतनी बेचैनी नहीं पैदा हुयी थी .उस समय इन प्रश्नों को पूछने वाली दलित दृष्टि बहुत गंभीरता से नहीं ली जाती थी.उसे बडी आसानी से साम्राज्यवाद की पिट्ठू और मुख्यधारा से अलग थलग किसी व्यक्तिवादी सोच के खाते में डालकर उपेक्षित किया जा सकता था. चाहे कितनी भी कमजोर मुखालिफत रही हो पर यह सच है कि 1859 के बाद से लगातार एक ऐसा शूद्र पक्ष रहा है जिसने 1857 को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम मानने का विरोध किया है और इस बात पर खुशी जाहिर की है कि इस संग्राम को कुचल दिया गया और इसके परिणाम स्वरूप अंग्रेजों को भारत छोडने की नौबत नहीं आयी .इसमें सबसे पहला और महत्वपूर्ण स्वर ज्योतिबा फुले का था जिन्होंने उन महार सैनिकों का अभिनन्दन किया था जिन्होंने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की थी. फुले ने वायसराय को एक पत्र भी लिखा और इस बात पर खुशी जाहिर की कि अंग्रेज देश से नहीं गए और उन्होंने करोडॉं पिछडों और दलितों को ब्राह्यणों की घृणित और अमानवीय सामाजिक व्यवस्था की दया पर नहीं छोड दिया.
ज्योतिबा फुले के बाद की दलित परम्परा ने भी समय समय पर अंग्रेजी राज के बारे में ऐसे विचार व्यक्त किये हैं जिनमें उनकी पक्षधरता बहुत स्पस्ष्ट है .उन्हें अगर अंग्रेजों की गुलामी, जिसने पहली बार शिक्षा, सैनिक तथा असैनिक नौकरियों और कानून के सामने बराबरी के द्वार उनके उनके लिये खोले थे ,और एक ऐसी आजादी जिसमें शास्त्रों तथा स्मृतियों पर आधारित वर्णाश्रमी राज्य स्थापित होता, के बीच चुनना था तो वे बेहिचक अंग्रेजों की गुलामी चुनते. इस गुलामी ने पहली बार उन्हें मनुष्य के रूप में जीने का अधिकार दिया था.डा. अम्बेदकर के इन्हीं विचारों को कई बार सही और कई बार गलत परिप्रेक्ष्य में उध्दृत कर अरूण शौरी ने 'वरशिपिंग फाल्स गाड्स' में उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू सिद्ध करने की कोशिश की है. डा. अम्बेदकर के ज्यादातर दलित भक्तों में भी इतना साहस नहीं था कि वे शौरी का मुकाबला सैद्धान्तिक धरातल पर करते इसलिये उन्होंने कभी शौरी के मुंह पर कालिख पोतने की कोशिश की आरेन् कभी यह सिद्ध करने के लिये अम्बेदकर के उद्धरण पेश करते रहे कि वे भी उसी अर्थ में देश भक्त थे जिस अर्थ में तिलक, श्रद्धानन्द या गांधी जैसे सवर्ण . बहरहाल एक बात तो स्पष्ट रूप से कही ही जा सकती है कि आज जब 1857 की 150वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी की जा रही है , दलित विमर्श इतना प्रौढ हो चुका है कि वह इस घोषित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपना स्पेस तलाशने लगा है और अब गैर दलित विमर्श के लिये उसकी उपेक्षा उस तरह संभव नहीं है जैसी 1907 या 1957 में थी.
1857 को लेकर कई तरह के मिथक हैं जिन्हें समझना आवश्यक है.आम तौर से स्वीकृत दो धारणायें इस प्रकार हैंः_
1. यह एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम था जिसके पीछे देशी राजाओं और सैनिकों की अंग्रेजी दासता से मुक्ति की अदम्य लालसा छिपी हुयी थी.
2. 1857 को भारतीय खास तौर से हिन्दी क्षेत्रों के नवजागरण काल के रूप में देखना चाहिए.
इन सभी धारणाओं को दलित खाने में खडे होकर जाँचने की जरूरत है तभी हम किसी तर्कसंगत विमर्श का निर्माण कर सकतें हैं .
सबसे पहले देखें कि यह पूरा विद्रोह किस हद तक राष्ट्रीय था? इसे समझने के पहले यह भी समझने की जरूरत है कि क्या 1857 में भारत एक राष्ट्र था? यहाँ राष्ट्र का मतलब सिर्फ एक नेशन स्टेट या राष्ट्र राज्य से नहीं है . आज जिस भूभाग को काश्मीर से कन्याकुमारी कहतें हैं और जिसमें 1947 के पहले वे हिस्से भी सम्मिलित थे जिन्हें अब पाकिस्तान और बांग्लादेश कहतें हैं , उसे एक राजनैतिक इकाई के रूप में राष्ट् राज्य बनाने की सही शुरूआत तो अँग्रेजों ने ही की थी , भले ही उसके पीछे उनकी विस्तारवादी नीति और दोहन की लिप्सा रही हो .आधुनिक अर्थों में राष्ट्र राज्य की अवधारणा और उससे उत्पन्न राष्ट्रीयता की भावना 17-18 वीं शताब्दी में योरोप में हुयी औद्योगिक क्रांति और उसके फलस्वरूप पैदा हुये उत्पादों को दुनियां में खपाने के लिये नये नये उपनिवेश तलाशने के लिये चली जद्दोजहद के चलते फली फूली और परवान चढी .भारत में ऐसी औद्योगिक क्रान्ति हुयी ही नहीं जिसमें अतिरिक्त उत्पाद बाहर खपानें की जरूरत पडी हो.
ईस्ट इन्डिया कम्पनी के भारत आगमन और 1857 में उनके खिलाफ विद्रोह तक स्थिति यह थी कि जिस भूभाग को आज भारत कहतें हैं वह असंख्यों छोटे बडे स्वतंत्र, प्रभुता सम्पन्न, राज्यों का समूह था.इनके शासक राजे महाराजे आपस में लडते रहते थे , बाहरी हमलों में एक दूसरे की न सिर्फ मदद नहीं करते थे बल्कि बाहरी हमलावरों की अपनी जरूरत और स्वार्थ के मुताबिक मदद करते थे .सबकी अपनी मुद्रा थी , अपने झण्डे थे और अपनी कर पद्धति थी .ऐसा नहीं था कि इस विशाल भूखण्ड में ऐसे तत्व नहीं थे जो इसे एक राष्ट्र राज्य बना सकते .पृथ्वी का यह टुकडा चारों तरफ से समुद्र और पहाडों से घिरा था और ये रूकावटें इसमें रहने वालों को शेष विश्व से अधिक आपस में घुलने मिलने में मदद करती थी . इस भौगोलिक चौहद्दी ने यहां रहने वालों को एक ढीला ढाला सा धर्म विकसित करने में मदद की जिसे बाहर से आने वालों ने हिन्दू नाम से पुकारा .इस धर्म में एक पैगम्बर और एक आसमानी किताब की बाध्यता नहीं थी.इस संज्ञा के तले एकेश्वरवादी थे, बहुदेववादी थे, वनस्पतियों और शिलाओं को पूजने वाले थे तो संशयवादी और नास्तिक भी थे .इसकी आस्था के केन्द्र उस पूरे भूभाग में फैले थे जिसे 1947 तक अंग्रेजों ने एक राष्ट्र राज्य में तब्दील कर दिया. धार्मिक और व्यापारिक मेलों , तीर्थों और साझी जातीय स्मृतियों में यह क्षमता थी कि वे अंग्रेजों की सहायता के बिना भी एक राष्ट्र राज्य का निर्माण कर सकते थे .पर वे ऐसा नहीं कर पाये? अंग्रेजों के पहले कभी भी यह स्थिति नहीं आ पायी कि यह विशाल भूभाग एक केन्द्रीय सत्ता जिसके पास एक केन्द्रीय सेना और एक केन्द्रीय मुद्रा हो, के अन्तर्गत एक राष्ट्र राज्य बन सका हो .
स्टालिन ने राष्ट्रीयता के प्रश्न पर विचार करते हुये लिखा था कि , '' एक राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से समान भाषा, भौगोलिक क्ष्रेत्र, आर्थिक जीवन और समान संस्कृति में अभिव्यक्त मनोवैज्ञानिक निर्मिति के रूप में लोगों के समूह द्वारा बनता है.''
गैर मार्क्सवादी विचारकों ने भी राष्ट्र के निर्माण के लिये एक भौगोलिक क्षेत्र के अतिरिक्त धर्म , भाषा,संस्कृति और आर्थिक हितों की समानता को उस भूभाग में रहने वाली जनता के लिये आवश्यक माना है .
सावरकर ने भारत राष्ट्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि ''आर्य पुरूष इतिहास के अरूणोदय में ही भारत में बस गये थे और तभी एक राष्ट्र का जन्म हुआ था जो अब मात्र हिन्दुओं में ही निहित है.'' एक दूसरे जगह उन्होंने लिखा -'' हिन्दुस्तान में हिन्दू स्वयं ही एक राष्ट्र है.''
सावरकर यह भूल गये थे कि राष्ट्र सिर्फ एक भूगोल का टुकडा नहीं होता .राष्ट्र उसमें रहने वाले लाखों करोडों लोगों के साझे सपने , साझी स्मृतियों और साझे भूत और भविष्य से निर्मित होता है .यहां तो कुछ भी साझा नहीं था.वे यह भी भूल गये थे कि धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण तो हो सकता है पर हिन्दू धर्म में निहित अन्तर्विरोध उसे एक राष्ट्र बनने के लिये आवश्यक भूमिका निभाने से रोकतें हैं . यह तो संभव है कि अलग अलग वेश भूषा, खान पान, भाषा और धार्मिक परम्परा वाले मिलकर एक राष्ट्र बना लें और दुनियाँ में इसके उदाहरण मौजूद हैं लकिन एक ऐसे जीवन दर्शन में जीने वाले, जिसमें एक अल्पसंख्यक समुदाय सत्ता पर काबिज हो और बहुसंख्यकों को जानवर से भी जलील समझता हो और जिस राष्ट्र राज्य में पशुवत् जीने वाले बहुसंख्यकों का कोई स्टेक न हो एक राष्ट्र नहीं बना सकते.भारत में शिक्षा और सैनिक कर्तव्यों जैसे क्षेत्र तो नब्बे प्रतिशत के लिये वर्जित थे . राज्य में शूद्रों के स्टेक के इस अभाव की तुलना सिर्फ गुलामों की किसी राज्य में स्थिति से की जा सकती है पर उनकी हैसियत शूद्रों से कई अर्थों में भिन्न थी .प्रथम तो दुनियां के इतिहास में कोई ऐसा राष्ट्र राज्य नहीं हुआ जिसमें गुलाम अपने मालिकों से कई गुना ज्यादा हो. दूसरे गुलामी प्रथा में मुक्ति के द्वार पूरी तरह बंद नहीं थे .एक निश्चित धनराशि चुका कर या युद्ध के मैदान में अपनी बहादुरी से मालिक को प्रभावित कर एक गुलाम अपनी बेडियों से छुटकारा पा सकता था पर शूद्र के लिये छुटकारे का कोई रास्ता नहीं था. एक बार शूद्र के रूप में पैदा होने के बाद फिर उसे जीवन भर सिर्फ वंचना ही मिल सकती है .यह वंचना उसे राज्य से पूरी तरह निस्पृह बना देती है .इस राज्य का कोई भी राजा हो उसे फर्क नहीं पडता .यही निस्पृहता उसे अपने शोषकों के साथ मिलकर एक राष्ट्र बनने से रोकती है . गुलामों के मालिक उन्हें सैनिक के तौर पर भी इस्तेमाल करते थे .कई युद्ध गुलामों ने अपनी बहादुरी से जीते हैं और यह भी बहुत बार हुआ है कि कोई गुलाम अपनी सेना का ऊंचा ओहदेदार बना हो .भारत में शूद्र भी गुलाम ही थे पर उनके मालिक युद्ध के मैदान में हारने के लिये तैयार थे लेकिन उन्हें युद्ध में लडने की इजाजत देने के लिये तैयार नहीं थे . उनके मन में डर समाया हुआ था कि यदि एक बार शूद्रों के हाथ में हथियार उठाने की ताकत आ गयी तो फिर उन्हें गुलाम बनाये रखना मुश्किल हो जायेगा .भारत को अगर अंग्रेजों के आने के पहले एक राष्ट्र मान लिया जाय तो सम्भवतः यह दुनियां का अकेला राष्ट्र होगा जिसने विदेशी आक्रांताओं के विरूद्ध एक भी उल्लेखनीय विजय नहीं हासिल की .कुछ सौ मुसलमान या योरोपीय हमलावर आते थे और अपने से कई गुना बडी राजपूत सेना को बुरी तरह पराजित कर देते थे . यदि राजपूतों की जगह चमारों , दुसाधों, महारों, मजहबी सिखों या दूसरी शूद्र जातियों को लडने का अधिकार मिला होता तो शायद हमारी हार का इतिहास दूसरा होता और हमें एक राष्ट्र बनने में मदद मिलती. भारतीय उपमहाद्वीप में सिर्फ 1971 की लडाई ऐसी है जिसे एक राष्ट्र के रूप में हमने जीता है पर यह तब सम्भव हुआ जब सैनिकों में बडी संख्या में दलित और पिछडे शरीक थे.युद्ध के मैदान में दलितों को अपने बगल में खडे होकर लडने का अधिकार देने से एक दूसरा संकट भी खडा हो सकता था. यह संकट पावर शेयरिंग यानि सत्ता में भागीदारी का था. अगर दलित राजपूत के साथ लडता तो अपने बहाये हुये खून की कीमत भी मांगता .गुलाम के मालिक के मुकाबले वर्णाश्रमी यहाँ ज्यादा अनुदार था.गुलाम का मालिक उसे उसकी बहादुरी की एवज में सेना में ओहदे और कई मौकों पर उसको नेतृत्व सौंपने के लिये भी तैयार था लेकिन हिन्दू सामंत के लिये हार स्वीकार करना मंजूर था किन्तु शूद्र को युद्ध के मैदान में बराबरी का दर्जा देने के लिये वह कत्तई तैयार नहीं था.हाल के दिनो में दलितों की एक धारा ने अंग्रेजों के खिलाफ लडाई में अपने लिये स्पेस तलाशने के लिये ऐसे नायकों को तलाशना शुरू कर दिया है जिन्होंने साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष में छोटी बडी भूमिकायें निभायीं हैं .यह कुछ उसी तरह का दयनीय प्रयास है जो पिछडी और दलित जातियों ने 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी की शुरूआता में गोरक्षा आंदोलनो के माध्यम से किया था. इस आंदोलन और इसके जैसे दूसरे आंदोलनो के माध्यम से दलित जातियों ने सवर्णों की पाँत में बैठने की कोशिश की थी .अपनी एक खास राष्ट्रीय पहचान निर्मित करने के लिये इन जातियों ने जनेऊ पहन कर और अपने नाम के साथ उच्च वर्ण की जाति सूचक संज्ञायें लगाकर सोचा था कि वे अपने को कुछ सीढियां ऊँची कर लेंगे .ऐसा हुआ नहीं .कुछ दूर तक तो ऊँची जातियों ने इन्हें अपने साथ चलने दिया पर जैसे ही उनका मकसद पूरा हुआ उन्होंने दलितों को उनकी सामाजिक हैसियत का एहसास कराना शुरू कर दिया.
ब्राह्यणीकरण के इस पूरे प्रयास का एक मजेदार रूप हाल के वर्षों में देखने को मिला है .दलित उभार की प्रतिनिधि बहुजन समाज पार्टी ने कुछ वर्षों पूर्व तय किया कि शूद्र और अतिशूद्र जातियों को उनके नायक मिलने चाहिये.ऊदा देवी, बिजली पासी और अवंती बाई जैसे नायक झाड पोंछ कर निकाले गये. ये सभी सामान्यजन थे .किसी चारण कवि ने उनकी विरूदावलियां नहीं रचीं थीं, कोई दरबारी चित्रकार नहीं था जो उनके चित्र छोड ज़ाता , केवल लोक मे एक श्रुति की परम्परा थी जो उनके कारनामे बखान करती थी पर यह किसी मूर्त कल्पना के लिये अपर्याप्त थी . पिछले दशक में जब दलित उभार की इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में हाशिये पर स्थित जातियों को उनके नायक प्रदान करने और इन नायकों की गौरव गाथायें सुनाकर उन्हें अपने पीछे गोलबन्द करने की योजना बनाई तो एक बडी समस्या उनके सामने यह थी कि कैसे उनकी मूर्तियां कैसे तैयार की जायं? हल निकाला इस पार्टी के पंजाबी सुप्रीमों ने. उसने दसों गुरूओं का कैलेण्डर अपने सामने रखा और मूर्तिकारों को बताया कि किस मूर्ति में किस गुरू की नाक, किसकी आँख , किसका माथा या किसका वक्ष फिट किया जाय. इस प्रकार तैयार हो गये दलित जातियों के नायक. कुछ कुछ राजा रवि वर्मा वाला मामला था.उनके कैलेण्डरों ने पहली बार बीसवीं शताब्दी में हिन्दू देवी देवताओं के मूर्त स्वरूप हमारी कल्पना के अंग बनाये थे .या फिर जैसे आँख मूँद कर अकबर के चेहरे को याद करने पर मुगले आजम की पृथ्वी राज कपूर का चेहरा हमारी स्मृति में कौंधता है उसी तरह इन मूतियों को चौराहे पर देखकर हम उन दलित नायकों की छवि अपने दिलोदिमाग में बैठाने की कोशिश करतें हैं जिन्हें उनकी जातियों के लोग अँग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी के रूप में याद करना चाहतें हैं. ये अति उत्साही लोग भूल जातें हैं कि वर्ण व्यवस्था से ग्रस्त एक सामंती समाज में इनकी भूमिका किसी टहलुये लठैत से अधिक कुछ नहीं हो सकती थी.यदि विद्रोह सफल हुआ होता तो ब्राह्यण इतिहासकार उन्हें छोटा सा स्पेस भी नहीं देते और लडाई खत्म होने के बाद राजपूत उनसे हथियार वापस रखवा लेते.विद्रोह में सफलता प्राप्त होते ही मनुवादी वर्णव्यवस्था उनसे शिक्षा और सैनिक सेवाओं में भर्ती के वे सारे अधिकार छीन लेती जो छोटे से अँग्रेजी राज नें उन्हें दी थी.
यह आश्चर्यजनक लग सकता है पर सच यही है कि राजनैतिक रूप से राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया भारत में पहले शुरू हुयी और फिर वृहत्तर अर्थों में यह एक राष्ट्र बना.जैसे जैसे वर्णव्यवस्था की चूलें हिल रहीं हैं राष्ट्र निर्माण तेज हो रहा है.अलग अलग त्यौहारों रीति रिवाजों ,वेश भूषा, खानपान और भाषा में बंटा देश जिस तेजी से एक हो रहा है वह चमत्कृत करता है.अगर वर्णव्यवस्था न होती तो शायद यह प्रक्रिया बहुत पहले ही पूरी हो गयी होती .
अब देंखें कि इस स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले किस हद तक राष्ट्रीयता की भावना से ओत प्रोत थे .पूरा संघर्ष मुख्य रूप से दो खम्बों पर टिका था.एक तो देशी राजे महराजे थे और दूसरे स्तंभ के रूप में कम्पनी की सेना के सिपाही थे.
यह कोई रहस्योद्धाटन नहीं है कि जिन राजाओं ने विद्रोह में भाग लिया वे सभी अपने अपने राज्यों को कम्पनी द्वारा हडपे जाने के विरूद्ध लड रहे थे .उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसे छल छद्म से कम्पनी ने अपने राज्य से च्युत न किया हो. जिन जिन को कम्पनी ने बक्श दिया वे विद्रोह में शरीक नहीं हुये और जिन्हें कोई वजह दिखाकर कम्पनी ने गद्दी से हटाया उन्होंने विद्रोह के पहले अंग्रेजों से सारे संभव उपायों से मिन्नतें की कि उन्हें उनका राज पाट वापस दे दिया जाय. यह अलग बात है कि किसी की गद्दी वापस नहीं हुयी .इस संदर्भ में रानी लक्ष्मी बाई का यह कथन बडा महत्वपूर्ण है जो उन्होंने अंग्रेज रेजिडेन्ट के सामने कहा था _''मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी.''अगर झांसी नहीं देनी पडती तो किसे पता है रानी लक्ष्मी बाई इस महासंग्राम में कहां होती? बगल में सिंधिया का उदाहरण मौजूद है जिसके सामने ऐसा कोई संकट नहीं था और वह अंग्रेजों के पक्ष में खडा था.
यहां भी एक बात बहुत स्पष्ट है कि अंग्रेजों से पीडित ज्यादातर राजाओं ने भी शुरू में विद्रोह में भाग लेने में हिचक दिखायी और उन्हें विद्रोही सिपाहियों नें विद्रोह में भाग लेने के लिये मजबूर कर दिया .जिस बादशाह को ढीला ढाला ही सही पर विद्रोह सफल होने पर दिल्ली पर हुकूमत करनी थी उस बहादुर शाह जफ़र को भी सिपाहियों ने ही मजबूर किया कि वे उनका नेतृत्व करें .उनके समय पहाडग़ंज थाने के दारोगा मोईनुद्दीन हसन ने उन दिनों का आंखों देखा हाल लिखा है कि किस तरह मेरठ से विद्रोही सिपाहियों के दिल्ली पहुंचने के दो दिन बाद तक बहादुर शाह जफर के मन में हिचक बनी रही और उनके द्वारा मजबूर किये जाने के बाद ही आधे अधूरे मन से बहादुरशाह जफर नें अंग्रेंजों के खिलाफ बगावत में भाग लेना स्वीकार किया . यह सही है कि दारोगा मोईनुद्दीन हसन अंग्रेजों का नमक हलाल सेवक था और उसका वर्णन बिना किसी सपोर्टिंग साक्ष्य के स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि बहादुर शाह जफर के किसी दरबारी लेखक ने भी ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि बादशाह ने अपनी तरफ से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया हो .वह सिर्फ मलका विक्टोरिया के दरबार में अर्जियां ही भेजता रहा.यही दृश्य झांसी का भी था जहां रानी को विद्रोही सिपाहियों नें एक तरह से मजबूर कर दिया कि वे उनका नेतृत्व करें.
1857 के विद्रोह में भाग लेने वाले राजाओं का लगभग हर जगह यही हाल था.सफल होने और अंग्रेजों को भगाने के बाद अपने अपने छोटे छोटे राज्यों के लिये लडने वाले ये राजे किस हद तक बहादुर शाह जफर या किसी केन्द्रीय नेतृत्व के अधीन एक राष्ट्र राज्य बनाते, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है .
इस विद्रोह में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी कम्पनी के सिपाहियों ने .ये वे सिपाही थे जिन्होंने भारत में पहली बार सही अर्थों में पेशेवर सैनिकों के युग की शुरूआत की थी .आधुनिक अर्थों में पेशेवर इस रूप में कि उन्हें कुल के आधार पर नहीं बल्कि अपनी कद काठी के आधार पर चुना गया था,उन्हें पलटन के सदस्य के रूप में एक साथ रहना पडता था, वे सम्मिलित रूप से फौजी ट्रेनिंग पाते थे ,उन्हें नियमित वेतन मिलता था, यह वेतन किसी की व्यक्तिगत कृपा या दया पर निर्भर न होकर एक निर्धारित वेतनमान के रूप में था और वे लौकिक लक्ष्यों के लिये युद्ध लडते थे .यद्यपि अँग्रेजों के नेतृत्व वाली फौज में वे बहुत ऊपर नहीं जा सकते थे पर सूबेदार तक के ओहदे वे अपनी वरिष्ठता और बहादुरी से हासिल कर सकते थे .उनके सरदार भी अपनी काबिलियत के बल पर सेना में आये थे . यह सच है कि ब्रितानी समाज की सामन्त प्रियता के कारण उनमें से बहुत से सामंतों के बेटे थे पर एक बडी संख्या उन वर्गों से भी आती थी जिन्हें कामनर्स कहतें हैं .इस तरह के सिपाही अँग्रेजों के ठीक पहले न मुसलमान शासकों के पास थे और न ही उनके पहले हिन्दू राजाओं के पास.संगठित, प्रशिक्षित और अनुशासित सिपाहियों का ही बूता था कि क्लाइव नें पलासी में 3000 (2200 देशी और 800 योरोपियन) सिपाही लेकर सिराजुद्दौला की 30,000 की पलटन को पीट डाला.सिराजुद्दौला के सिपाहियों को नियमित वेतन नहीं मिलता था और वे युद्ध के समय विभिन्न सामंतों से माँग जाँच कर इकट्ठी की गयी फौज के अंग थे.
इस तरह की संगठित और एक कैन्टोनमेंट में रहने वाली फौज के कुछ खतरे भी थे .एक साथ रहने के कारण उनमें असंतोष भडक़ाना आसान था और एक बार बागी हो जाने के बाद कुचलना बहुत मुश्किल.मई 1857 में अँग्रेजों ने ऐसी ही एक स्थिति का सामना किया जब एक के बाद एक छावनियों में विद्रोह की ज्वाला भडक़ी और उसे कुचलने में अँग्रेजों को एक वर्ष से अधिक का समय लग गया.
सिपाहियों के विद्रोह को समझने के पहले हमें कम्पनी की फौज के आंतरिक चरित्र को समझना होगा. ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज मुख्य रूप से उनके भारतीय साम्राज्य के तीन प्रमुख भौगोलिक विभाजनों के आधार पर संगठित की गयी थी .ये विभाजन थे कलकत्ता, बम्बई और मद्रास प्रेसिडेन्सी .कम्पनी के पूर्वी,पश्चिमी और दक्षिणी भूभागों में रहने वाले लोगों से भर्ती की गयी ये पलटने एक दूसरे से भाषा, खानपान, पहनावा या सामाजिक मान्यताओं में उसी तरह भिन्न थीं जिस तरह भारत के इन हिस्सों में रहने वाले लोग.इनके वेतनमान और सिखलाई के तरीकों में भी कई बार भिन्नता नजर आती है .प्रदीप सक्सेना ने अपनी किताब '1857 और नवजागरण के प्रश्न' में यह स्थापित करने की कोशिश की है कि कम्पनी की फौज सिर्फ तीन पलटनों में नहीं बंटी थी बल्कि इन तीन के अतिरिक्त हैदराबाद और पंजाब की पलटने भी थी .उन्होंने अपनी किताब काफी मेहनत से लिखी है और दुर्लभ मौलिकता का परिचय दिया है जो हिन्दी में समाज शास्त्रीय लेखन में कम दिखायाी देता है पर यहाँ अतिरिक्त उत्साह में उनके लेखन में कुछ अन्तर्विरोध भी दिखायी देतें हैं .वे जिन दो पलटनों का जिक्र यह सिद्ध करने के लिये करतें हैं कि भारतीय इतिहासकारों नें 1857 तक सिर्फ तीन पलटनों की बात करके इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज कर दिया है , उन्हीं के बारे में उन्हें स्वीकार करना पडता है कि 1857 में हैदराबाद और पंजाब की पलटने न सिर्फ बहुत नयी थी बल्कि काफी हद तक अप्रशिक्षित और अनियमित भी. इसलिये 1857 में उनके लिये किसी बडे रोल की कल्पना करना मुश्किल है.
1857 मुख्य रूप से बंगाल आर्मी या जिसे कलकतिया पलटन कहा जा सकता है , का विद्रोह था.मद्रास और बम्बई की पलटनों ने न सिर्फ विद्रोह में भाग नहीं लिया बल्कि इसे कुचलने में योगदान दिया. सिक्खों , जाटों ,गूजरों और गोरखों ने भी काफी हद तक अँग्रेजों की मदद की .बंगाल आर्मी ने विद्रोह क्यों किया इसे समझना जरूरी है .यही वह प्रस्थान बिन्दु है जिससे 1857 के दलित विमर्श की शुरूआत हो सकती है .
विद्रोह कुचलने के बाद कम्पनी का राज्य समाप्त कर भारत की सीधे ब्रिटिश ताज के अन्तर्गत लाने के बाद अँग्रेजो ने विद्रोह को समझने और भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति रोकने के लिये कई अध्ययन कराये.इनमें से एक हेनरी मीड नामक पत्रकार का है जो 1858_59 में भारत भर की छावनियों में घूमा और जिसने 'द सिपाय रिवोल्ट' नामक पुस्तक में सिपाहियों की मनःस्थिति , व्यवहार ,अनुशासन , सिखलाई तथा वेतन भत्ते जैसे कारकों का अध्ययन किया .बंगाल आर्मी के बारे में उसका अध्ययन बडा दिलचस्प है.
बंगाल आर्मी की एक छावनी में दोपहर तीन -चार बजे जाने पर मीड को लगा कि वह आग से घिरे किसी भू-प्रांतर में पहुंच गया है. बडे से मैदान में सैकडों जगह आग सुलग रही थी और धुयें से पूरा आकाश भरा हुआ था.यह समझने में उसे थोडा समय लगा कि ये अलग अलग चूल्हे थे जिनपर सिपाही खाना पका रहे थे . ये सिपाही मुख्य रूप से बंगाल, आज के बिहार ,उडीसा और उत्तर प्रदेश के थे . बुरी तरह जातियों और उपजातियों में विभक्त इन सिपाहियों के लिये किसी एक लंगर में खाना बनाने और साथ बैठकर खाने की कल्पना भी असंभव थी .वे एक बैरक में रह भी नहीं सकते थे .इसलिये छावनी के उस हिस्से में जहां सिपाही रहते थे ,सैकडों झोपडियां बनी हुयीं थीं .उनमे ये अपनी अपनी जातियों के अनुसार रहते थे .ये वे सिपाही थे जिनकी 1757 से 1825 के बीच में अंग्रेजों ने 74 रेजिमेंटें खडीं क़ी थीं.मुख्य रूप से ये अवध और बिहार जिसमें उ.प्र. के भोजपुरी प्रांत को भी जोडा जा सकता है ,से भर्ती की गयी थी और इनमें बडी संख्या में ब्राह्यण शरीक थे. भर्ती करने के कुछ सालों में ही अंग्रेजों को अपनी गलती का अहसास हो गया.1850 में बंगाल आर्मी के कमाण्डर सर चार्ल्स नेपियर ने लिखा था कि ''यदि उच्चवर्ण के हिन्दू को फौजी अनुशासन और अपनी जाति में से चुनना हो तो वे जाति को चुनेंगे.'' इसके पहले 1826 में ही लार्ड विलियम बेन्टिक ने बंगाल पलटन को एकदम नाकारा और लडाई के लिये अयोग्य घोषित कर दिया था. अपनी जाति से च्युत होने के भय से ये सिपाही विदेश यात्राओं के लिये तैयार नहीं थे, वे रणभूमि में मरे अपने साथियों को गाड नहीं सकते थे और नीची जाति के लांगरियों द्वारा बनाया खाना नहीं खा सकते थे .कम्पनी की फौज में ज्यादातर लांगरी नीची जातियों के थे क्यों उन्हें गोमांस या सूअर पकाने में कोई एतराज नहीं था.रीड क़ो यह देखकर बडा आश्चर्य हुआ था .बंगाल पलटन के सिपाही प्रशिक्षण के लिये तैयार होने में बहुत समय लगाते थे.उनकी दिनचर्या का एक बडा समय नहाने धोने, पूजा पाठ और कर्मकाण्डों में बीतता था.उनकी सारी आदतें एक पेशेवर और दक्ष सैनिक बनने से उन्हें रोकती थी .
अंग्रेजों को जैसे ही अपनी गलती का अहसास हुआ उन्होंने पंजाबियों की कुछ इन्फ्रन्टरी पलटने खडीं क़रने का फैसला किया और 1846 से 1857 के बीच 24 इन्फ्रन्टरी रेजीमेंटें खडीं भी कर लीं .यही वह पंजाबी फौज है जिसका जिक्र प्रदीप सक्सेना ने किया है .इस फौज में दो ही प्रमुख तत्व थे_ जट सिक्ख और मजहबी सिक्ख.दलित होने के कारण यह स्वाभाविक था कि मजहबी सिक्खों के मन में देशी राज्यों के महाराजाओं के लिये लडने का कोई उत्साह नहीं था. जट सिक्ख भी एक शताब्दी से अधिक पुराने खालसा पन्थ के उदय के कारण ब्राह्यण कर्मकाण्डों से काफी हद मुक्त हो चुके थे.इन पंजाबी पलटनों ने न सिर्फ 1857 के विद्रोह में भाग नहीं लिया बल्कि उसे कुचलने में कम्पनी के सिपाहियों के कन्धे से कन्धा मिलाकर लडे भी .
बंगाल पलटन के विपरीत बम्बई और मद्रास पलटनें मुख्य रूप से शूद्रों और अतिशूद्रों की फौजें थीं. बम्बई आर्मी में महार और मद्रास आर्मी में परिया तथा माला जैसी जैसी शूद्र जातियों का बोलबाला था. अम्बेदकर के पिता खुद एक महार पलटन में थे .हाल में टाइम्स आफ इन्डिया में एक दलित नौकरशाह राजा शेखर वुन्दरूं ने 1930 में डा. अम्बेदकर का वह प्रसिद्ध वक्तव्य उध्दृत किया है जिसमें उन्होने कहा था कि भारत में अंग्रेज सत्ता दलित सैनिकों के बल पर स्थापित हुयी है .पलासी की लडाई अंग्रेजों के लिये दुसाध सैनिकों ने जीती थी .पश्चिमी भारत में अंग्रेजों का पैर जमाने के लिये आंग्ल मराठा युद्ध, मुख्यतः बम्बई आर्मी के महार सैनिकों की मदद से जीता गया. टीपू सुल्तान को हराने वाली मद्रास आर्मी भी अछूत परिया और माला सैनिकों से भरी थी.
एक बार सिपाहियों का वर्णीय चरित्र समझने के बाद उनके विद्रोह में कूदने या अंग्रेजों का साथ देने की परिघटना को समझना आसान हो जाता है . अगर एनफील्ड राइफलों में गाय और सूअर की चर्बी कारतूसों के साथ इस्तेमाल हो रही थी तो यह कम्पनी की सभी पलटनों में विद्रोह का कारण क्यों नहीं बनी? विद्रोह के तीन महीने पहले 11 फरवरी 1857 को बंगाल आर्मी के कमाण्डर मेजर जनरल जे. बी. हियरसे ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मिलिट्री सेक्रेटरी कर्नल बिर्च को बैरकपुर छावनी की एक घटना के बारे में लिखा कि कैसे जब एक ब्राह्यण सिपाही को फौज के एक अछूत खलासी ने रोककर पीने के लिये पानी माँगा तो ब्राह्यण ने अपने लोटे से उसे इस डर से पानी पिलाने से मना कर दिया कि इससे उसका लोटा अपवित्र हो जाएगा. इसपर अछूत खलासी ने ताना कसा कि वह अपनी जात पर इतरा रहा है पर जल्दी ही साहब लोग उससे गाय और सूअर की चर्बी अपने दाँतों से काटने के लिये कहेंगे तब उसकी जाति कहाँ जायेगी? शीघ्र ही यह अफवाह दूसरी छावनियों में भी फैल गयी और यह अस्वाभाविक नहीं था कि अपनी जाति या धर्म को सैनिक अनुशासन के ऊपर तरजीह देने वाले सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया.
यह एक विचारणीय मुद्दा है कि वर्णाश्रमी व्यवस्था में गहरी आस्था रखने वाले इन सिपाहियों और अपने अपने राज्यों को छिनने से बचाने के लिये लड रहे उनके नायक उनके राजाओं की यह टीम अगर अँग्रेजों को देश से भगाने में समर्थ हो गयी होती तो 1857-58 में भारत का कैसा चेहरा होता? क्या ये राजे महाराजे एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन होकर सही अर्थों में भारत को एक राष्ट्र राज्य बनाते या फिर आपस में छोटे मोटे स्वार्थों के लिये लडते कटते और फिर किसी बाहरी ताकत के लिये आकर्षण का केन्द्र बनते? वर्णाश्रमी अहंकार में डूबे ये सिपाही क्या देश की विशाल दलित जनता को एक बार फिर से शिक्षा और सैनिक-असैनिक सेवाओं से वंचित करने के औजार नहीं बनते?
क्या 1857 को हिन्दी प्रदेश में नवजागरण के रूप में देखा जा सकता हैO? नवजागरण किसी भी क्षेत्र में वैज्ञानिक और विवेक चेतना के प्रसार से ही आ सकता है . हिन्दी भाषी क्षेत्रों की जडता अगर 1857 में टूटती दिखायी दे रही थी तो क्या उसके लिये विद्रोह और विद्रोही जिम्मेदार थे? कहीं ये विद्रोही उन सब मूल्यों को नष्ट करने पर तो नहीं तुले थे जो हिन्दी समाज में विवेक और तर्क की प्रतिष्ठा कर सकते थे ? हमें यह याद रखना चाहिये कि इस महासंग्राम के दो शताब्दियों पहले हिन्दी प्रदेश से भक्ति आंदोलन के रूप में एक बडा झंझावात गुजरा था जिसने वर्ण व्यवस्था , सामाजिक असमानता, भाग्यवाद और कर्मकाण्ड जैसे ब्राह्यण मूल्यों को बुरी तरह झिंझोड दिया था. इस आंदोलन की दो प्रमुख विशेषतायें थीं. यह पूरा आंदोलन मुख्य रूप से दलित और पिछडे वर्गों से आने वाले कवियों की अभिव्यक्ति थी और इसने अभिजात्य की भाषा संस्कृत को लोक भाषाओं के माध्यम से चुनौती दी .छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के बाद यह ब्राह्यण विश्व दृष्टि को सबसे बडी चुनौती थी .ब्राह्यण जीवन दर्शन का सबसे बडा स्तम्भ वर्णव्यवस्था है .जन्म के आधार पर जातियाँ और जातियों के आधार पर मनुष्यों का वर्गीकरण और इस पूरी व्यवस्था की धर्मग्रन्थों द्वारा प्रमाणित ईश्वरीय स्वीकृति - यही तर्क हैं जो ब्राह्यण विश्व दृष्टि को विश्व के सबसे अवैज्ञानिक , मनुष्य विरोधी और पिछडे दर्शन के रूप स्थापित करतें हैं . इस मूर्खतापूर्ण दर्शन को छठीं शताब्दी ईसा पूर्व में गंभीर चुनौती मिली.बुद्ध ने लगभग इसे नष्ट ही कर डाला था पर यह शीघ्र ही फिर से पुराने स्वरूप में लौट आया, बल्कि ज्यादा क्रूर और अनुदार रूप में. इसके अंदर जो आत्मरक्षा की अद्भुत क्षमता है उसने इसे न सिर्फ अपना अस्तित्व बचाने में मदद की बल्कि इसे बौद्ध प्रतीकों , जिनमें गौतम बुद्व भी सम्मिलित हैं, को आत्मसात् करने में भी कोई कठिनाई नहीं हुयी.इस दर्शन की सबसे बडी शक्ति है इसका लचीलापन . यह लचीलापन इसे अपनी एक खास विशिष्टता से हासिल होता है .यह अकेला धार्मिक दर्शन है जिसके पास कोई आसमानी किताब नहीं है और न ही यहाँ अंतिम पैगम्बर की अवधारणा है. यह बहुत बडी ताकत है .कुछ भी जो ईश्वर सम्बिन्धित है, इसका अंग बन सकता है. हाल के सालों में साईं बाबा , संतोषी माता और यहाँ तक कि अमिताभ बच्चन के भी मंदिर बनें हैं और किसी हिन्दू धर्म गुरू ने इन मन्दिरों के निर्माताओं को धर्म से बाहर नहीं किया और न ही उनके मौत के फरमान निकाले . सिर्फ आस्तिक ही नहीं नास्तिक दर्शन भी आसानी से हिन्दू धर्म का अंग बन सकतें हैं .इसी शक्ति के बल पर इस परम्परा ने कम से कम भारत में तो बौद्ध धर्म को निगल ही लिया. भारत के बाहर भले ही बौद्ध धर्म किसी रूप में फला फूला पर भारत में जो कुछ स्वरूप बचा है वह भी जात -पात , भाग्यवाद और कर्मकाण्डों से मुक्त नहीं है .
भक्ति आंदोलन ने भी वर्णव्यवस्था और ब्राह्यण कर्मकाण्डों पर जबरदस्त प्रहार किया था. लोक-भाषाओं में देवचरित गाते ही वे सारे तिलिस्म नष्ट हो गये जो संस्कृत ने देवताओं के इर्द-गिर्द बुन रखे थे . लोक ने अपनी भाषा में जिन देवताओं के गीत गाये वे काफी हद तक हाड-मांस के पुतले मनुष्यों जैसे हो गये . उसी तरह अच्छाइयों और बुराइयों के घालमेल.भक्ति आंदोलन ने श्रम को भी प्रतिष्ठित किया और बिना काम किये सामाजिक सम्मान हासिल करने वाले ब्राह्यणों का मजाक उडाया. कर्मकाण्ड भी इस आन्दोलन में उपहास के पात्र बन गये. भक्ति आन्दोलन एक आंधी की तरह था जिसने काफी हद तक ब्राह्यण परम्पराओं की जडें हिला दीं.ब्राह्यण अभी इस आघात से उबरे ही थे कि इस्लाम और उसके बाद अंग्रेजों ने उसकी बुनियाद पर आघात करना शुरू कर दिया. इस्लाम ने जन्मांधारित स्तरीकरण को नकारते हुये समानता का विकल्प दलितों के सामने रखा तो अंग्रेजों ने एक ऐसा काम किया जो इस्लाम भी भारत में नहीं कर सका . उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा का ऐसा मॉडल भारत में रखा जिससे अभी तक भारतीय समाज अपरिचित था. पहली बार शिक्षा के दरवाजे सभी वर्गों के लिये खुले, शिक्षा की परिधि में धार्मिक स्पेस लौकिक विषयों को मिला और शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का निवेश निर्णायक बना.मुहावरे की भाषा में यह ऊंट की पीठ पर अन्तिम प्रहार था. शूद्रों को शिक्षा का अधिकार मिलने से यह संभव नहीं रहा कि उन्हें जन्माधारित श्रेष्ठता और इसके फलस्वरूप उत्पन्न असमानता के बारे में प्रश्न पूछने से रोका जा सके .
भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनों का धर्मों में आस्था रखने वाले भद्रलोक के लिर शूद्रों को शिक्षा को पचाना सम्भव नहीं था. राजा राममोहन राय और सर सैयद अहमद खां के अलग अलग समयों पर वायसराय को लिखे गये पत्र इस बारे में बडे दिलचस्प उदाहरण हैं. राजा राममोहन राय ने अंग्रेज सरकार द्वारा बजट में दलितों के लिए शिक्षा हेतु अलग से प्राविधान करने पर आपत्ति जतायी और लिखा था कि यह हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप है. दूसरी तरफ सर सैयद अहमद खां ने लाट साहब से यह शिकायत की थी कि सरकार असराफ को जुलाहों के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए मजबूर कर रही थी.
शिक्षा के अतिरिक्त सैनिक सेवाओं के द्वार दलितों के लिए खोलना भी कम्पनी को वर्णाश्रमी तबकों में अलोकप्रिय बनाने के लिए काफी बडा कारण था. शिक्षा और सैन्य सेवाओं में प्रवेश का मतलब दलितों को पूरे सामाजिक ढांचे में पावर शेयरिंग का मौका देना था और ब्राह्यण कभी इसके लिए तैयार नहीं हो सकते थे.1857 के विद्रोह के कारणों को खोजते समय हमें इस पहलू को भी ध्यान में रखना चाहिए.
1857 को हिन्दी प्रदेश में नवजागरण की शुरूआत इसलिए भी नहीं कहा जा सकता कि यह इस प्रदेश की समूची जनता की मुक्ति का संग्राम नहीं था. यदि यह सफल हो गया होता तो भक्ति आन्दोलन के दौरान जिस वर्ण व्यवस्था की चूलें हिलीं थीं, वह और मजबूत होकर उभरतीं .दलितों की जो कुछ थोडा बहुत हासिल हुआ था वह भी नष्ट हो जाता और एक बार फिर वही अन्धकार युग अवतरित होता जो बौद्ध आन्दोलन के कमजोर पड ज़ाने के बाद इस महाद्वीप पर छा गया था.
भारतीय समाज का गहाराई से अध्ययन करने वालों में बहुतों का मानना है कि अंग्रेज न भी होते तो भी प्रगति का चक्र इसी तरह चलता और दुनियां के दूसरे भागों की तरह यहां भी मुक्ति गाथायें लिखी जातीं , फर्क सिर्फ यह होता कि उत्प्रेरक शक्तियां दूसरी होतीं. मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है .निश्चित है कि वर्ण व्यवस्था जैसी गलीज संस्था समय के साथ नष्ट अवश्य हो गई होती पर इसमें न जाने कितना और समय लगता . हो सकता है हम आज भी उस लडाई को लड रहे होते . इस मान्यता के पीछे दो प्रमुख कारण हैं.
अंग्रेजों के आने के पहले भारत मुख्य रूप से कृषि और दस्तकारी आधारित समाज था.इस समाज के बारे में कार्ल मार्क्स ने 1853 में लिखा था कि यह समाज चुनौती न देने वाला समाज था.इसके साथ ही यह काफी हद तक आत्म निर्भर था. एक गाँव अपने आप में सम्पूर्ण इकाई थी. अपनी जरूरत का कपडा, अनाज, छोटे मोटे औजार और रोजमर्रा की चीजें यह खुद पैदा करता था.इसका असर यह हुआ कि दूसरे गाँवों या कस्बों से इसका संवाद कम से कम था. यही कारण था कि तकनीक के स्तर पर कोई परिवर्तन बहुत देरी से या धीमी गति से होता था. ग्रामीण स्वावलम्बन के यूटोपिया को चुनौती देते हुये मर्ाक्स ने इसे जड या स्थिर (स्टैग्नेन्ट) समाज कहा .बाद में अम्बेदकर ने भी गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को चुनौती देते हुये लिखा कि यह स्थिति उत्पादन बढाने में सहायक नहीं हो सकती और इससे वर्णव्यवस्था को बल मिलता है. यह समाज अपने में संतुष्ट था और वर्णव्यवस्था इसे और जड तथा गतिहीन बनाने में मदद करती थी . बिना औद्योगीकरण के इस समाज की किसी बुनियादी परिवर्तन के लिये तैयार करना लगभग असंभव था.अँग्रेजों के साथ आई तकनीक ने इस समाज में बडी अौद्योगिक क्रान्ति को संभव बनाया और तभी यह हो सका कि गांवों से बाहर निकलकर आबादी का बडा हिस्सा कस्बों और शहरों में बसा. शहरीकरण की प्रक्रिया ने वर्णव्यवस्था पर सबसे निर्णायक चोट पहुंचाई .आज भी गांवों में वर्णव्यवस्था काफी हद तक अपने पुराने घृणित स्वरूप में मौजूद है. उसमें बहुत कम परिवर्तन हुआ है.जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था कि महात्मा गांधी के सारे अछूतोध्दार कार्यक्रमों के मुकाबले भारतीय रेलों ने अस्पृश्यता निवारण में ज्यादा बडा योगदान किया है.औद्योगीकरण, शहरीकरण और रेलवे संभव है अंग्रेजों के सहयोग के बिना भी भारतीय परिदृश्य में आते पर निश्चित ही इसमें और भी समय लगता. वर्णव्यवस्था अपनी ताकत भर इसका विरोध करती.
हममें से बहुत से लोग यह मानतें हैं कि वर्णव्यवस्था जैसे हिन्दू समाज के अन्तर्विरोध उस उदार और शिक्षित नेतृत्व के जरिये, अंग्रेजों की उपस्थिति के बिना भी हल किये जा सकते थे , जो स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय जनता का नेतृत्व कर रहा था.1857 खत्म होने के बाद अंग्रेजी शिक्षा संस्थानों से पढ क़र निकले इस नेतृत्व का ऊपरी चेहरा तो निश्चित रूप से काफी लुभावना था. यह साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में ग्राम स्वराज, सुराज और स्वराज्य जैसे मुहावरों के जरिये भारतीय जनता के एक बहुत बडे तबके में स्वाधीनता की चेतना पैदा करने में सफल हुआ.काँग्रेस के रूप में एक ढीला ढाला प्लेटफार्म था जिसमें हिन्दू महासभाई थे , कट्टर और अनुदार मुस्लिम थे, मार्क्सवादी और समाजवादी थे और इन सबसे अलग सिर्फ आजादी की चाह मन में दबाये बहुत सारे ऐसे लोग थे जिन के मन में यह विश्वास था कि सिर्फ आजादी मिलते ही भविष्य में भारतीय समाज की सारी समस्यायें हल हो जायेंगीं .कांग्रेस का नेतृत्व स्त्रियों और शूद्रों के प्रश्न पर किस तरह से सोचता था इसे समझने के लिये कांग्रेस के दो महत्वपूर्ण नेताओं से जुडी घटनाओं को दोहराना दिलचस्प होगा.ये दो नेता थे -तिलक और गांधी .
तिलक अपनी सारी सीमाओं और संभावनाओं के अंदर गांधी के मुकाबले ज्यादा पिछडे और दकियानूस दिखायी देतें हैं. वालपार्ट ने तिलक पर लिखी अपनी किताब में बहुत सी उन घटनाओं का उल्लेख किया है जिनसे तिलक की जीवन दृष्टि स्पष्ट होती है. तिलक के समय अंग्रेज सरकार ने लडक़ियों के विवाह की न्यूनतम उम्र निर्धारित करने का प्रयास किया.आज यह सुनकर भी हंसी आयेगी कि यह न्यूनतम उम्र आठ वर्ष थी. तिलक ने सरकार के इस प्रयास का भरपूर विरोध किया , अखबारों में टिप्पणियां लिखीं, सभायें कीं और इसे हिन्दू धर्म में सरकार का सीधा हस्तक्षेप किया.
23-24 मार्च 1918 को बम्बई में पहला अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ और इसमें बडी संख्या में न सिर्फ दलितों ने भाग लिया बल्कि उस समय कांग्रेस के मंच पर एकत्रित होने वाले सवर्ण हिन्दुओं के भी बडे नेता इसमें शरीक हुये . इनमें विपिन चन्द्र पाल, रवीन्द्र नाथ टैगोर, पटेल और तिलक भी थे .कार्यक्रम के दौरान तिलक ने कहा कि यदि अस्पृश्यता समाप्त नहीं होती तो उनका ईश्वर से विश्वास उठ जायेगा .कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जब अश्पृश्यता के खिलाफ एक प्रस्ताव रखा गया तो तिलक ने उस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया.
ऊपर जिन दो घटनाओं का उल्लेख किया गया है उनसे मिलती जुलती बहुत सी घटनायें तिलक के जीवनचरित में भरीं हुयीं हैं.स्थानाभाव के कारण यहां उनका उल्लेख नहीं किया जा सकता किन्तु एक और घटना का उल्लेख मैं करना चाहूंगा जिससे वर्ण व्यवस्था के बरक्स तिलक की सोच स्पष्ट हो सकेगी .यह बहुत परिचित तथ्य है कि उन्नींसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में पूना और उसके आस-पास के इलाकों में प्लेग की महामारी कई बार फैली.अंग्रेज कमिश्नर नें प्रयास किया कि इसे रोकने के लिये लोगों के घरों में घुसकर सफाई की जाय.स्वाभाविक था कि सफाई का काम दलित जातियों के लोग करते. सवणों के लिये यह असह्य था कि वे दलितों को अपने घरों के अंदर घुसने देते.उनके लिये अपने परिवार के सदस्यों या पडोसियों की जीवन हानि से ज्यादा महत्वपूर्ण था उस मूर्खतापूर्ण शुचिता की रक्षा जिसे वर्णव्यवस्था ने उत्पन्न किया था.तिलक जो पूना और उसके आसपास के इलाकों के महत्वपूर्ण नेता थे, जनता को शिक्षित कर सकते थे और सफाई के अभियान में प्रशासन की मदद कर सकते थे .उन्होंने न सिर्फ सवर्ण तर्कों का समर्थन किया बल्कि जब सफाई पर तुले एक अंग्रेज प्रशासक की हत्या कर दी गई तो हत्या में शामिल युवकों का अभिनन्दन भी किया.तिलक की इस तर्क से मदद नहीं की जा सकती कि वे अपने समय के मूल्यों के शिकार थे.उन्हीं के समय गोखले भी थे जिन्होंने समाज से जुडे मुद्दों पर तिलक के मुकाबले काफी क्रान्तिकारी पोजीशन ली जबकि तिलक को उग्रपन्थी और गोखले को नरमपन्थी माना जाता है.
स्त्रियों को लेकर गांधी का दृष्टिकोण थोडा ही बेहतर था .उनके ऊपर लिखे गये गुजराती उपन्यास में और उनके जीवन पर उपलब्ध दूसरी सामग्री में ऐसी बहुत सी घटनायें उल्लिखित हैं जो स्त्रियों को लेकर गांधी के सोच को हमारे सामने रखतीं हैं और यह कहा जा सकता है कि गांधी अपने समय के ही बहुत सारे उदार राजनेताओं के मुकाबले ज्यादा दकियानूस थे .यहां हम उनकी दलितों के सम्बन्ध में सोच तक सीमित रखेंगे .
गांधी के सम्बन्ध में थोडा विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि काफी हद तक कांग्रेस पार्टी की सोच, उसके कार्यक्रम और दलितों से उसके रिश्तों को गांधी ने ही दिशा दी थी. 1930 में गांधी ने दलितों को हरिजन कहना शुरू किया. हरिजन शब्द अपमानजनक था , न सिर्फ इसलिये कि दक्षिण भारत में मन्दिरों की देवदासियों के पुजारियों से उत्पन्न सामाजिक रूप से अवैध सन्तानो को हरिजन कहा जाता था, बल्कि इसलिये भी इस शब्द से दलितों को एक भिन्न पहचान मिलती थी और वे हिन्दू समाज की मुख्य धारा से अलग थलग दिखायी पडते थे .अम्बेदकर जैसे दलित विचारक ने हमेशा हरिजन शब्द से परहेज किया.आजादी के बाद कांग्रेसी सरकारों ने पाठय पुस्तकों में यही शब्द इस्तेमाल किया और जब उत्तर भारत में दलित उभार आया तथा राजनीति में दलितों ने पावर शेयरिंग शुरू की तभी उन्हें इस शब्द से मुक्ति मिली .अम्बेदकर और उनके अनुयायी इससे कितना चिढते थे इसका पता सिर्फ इस बात से चलता है कि कई बार जल भुनकर उन्होंने कहा कि यदि दलित हरिजन अर्थात ईश्वर की संतान हैं तो क्या सवर्ण हिन्दू शैतान की औलाद हैं ? बी. के. रॉय बर्मन नें सेमिनार(अंक 177 ,मई 1974 ) में सही कहा है कि हरिजन शब्द का इस्तेमाल असमानता को बढावा देने वाली व्यवस्था को नष्ट करने के लिये नहीं बल्कि उसे थोडा सहनीय बनाने के लिये किया गया.
यह दृष्टिकोण दलितों में भी सबसे निचले खाने पर खडे भंगियों के लिए और भी दया से भरा है.गांधी से पहले भंगी अंग्रेजों के हाथों भी मुक्त होने से वंचित रह गये थे. अगर हम लन्दन की नगर व्यवस्था का इतिहास देखें तो यह बडा मजेदार तथ्य सामने आता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य के जड ज़माने तक वहां सीवर पड चुका था और घरों में फ्लश पाखाने बनने लगे थे. 19वीं शताब्दी खत्म होते होते ब्रिटेन के ज्यादातर कस्बों और नगरों में यह सुविधा उपलब्ध हो गयी थी .भारत में अंग्रेजों ने बडे बडे मकान रहने के लिए बनाये, सिविल लाइन्स और कैन्टूनमेन्ट बसाये पर सीवर की तरफ बहुत बाद में ध्यान क्यों दिया ? उत्तर ढूंढने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी प्दैग़ी .भारत में अभागे इन्सानों की बडी फ़ौज थी जो दूसरों का पाखाना अपने सरों पर ढोने के लिए अभिशप्त थे.ये बहुत सस्ते मजदूर थे और व्यापारी अंग्रेजों के लिए सीवर पर धन खर्च करने की जरूरत ही नहीं थी. उनका काम मजे से इन भंगियों के सहारे चल सकता था. अगर सीवर भी रेलवे लाइनों या सामुद्रिक पोतों की तरह व्यापार के लिए जरूरी होता तो वे उसके बारे में भी सोचते . इस अभागी श्रम शक्ति के लिए गांधी के मन में यह भावना नहीं थी कि वे उनके अमानवीय पेशे को नष्ट करने का प्रयास करें , वे केवल उनकी कठिनाइयों को थोडा कम करने और अभागों के मन में अपने पेश के लिए गर्व महसूस कराने की कोशिश करते रहे.एक बार जब पाखाना उठाने वालों ने भंगी शब्द को खत्म करने की बात की क्योंकि उससे उन्हें अपमान का बोध होता था जो गांधी ने हरिजन (12 मई 1946) में लिखा कि भंगी शब्द का प्रयोग होना या न होना अप्रासंगिक है . यह वास्तव में सबसे ऊंचा पेशा है क्योंकि लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है. इसलिए दलितों को इसे छोडने की बात नहीं सोचनी चाहिए. एक दूसरी जगह पर गांधी ने भंगी की तुलना मां से की है और बताया कि जिस तरह मां अपने बच्चों की सफाई करती है उसी प्रकार भंगी दूसरों को साफ रखने में में मदद करता है. यह बात अलग है कि एक अवसर पर उनके भंगी श्रोताओं में से किसी ने चिढक़र उनसे पूछा कि अगर दूसरों का मैला ढोना इतना ही पवित्र और ऊंचा काम है तो गांधी जी इस पेशे को अपनाने की सलाह सवर्णों को क्यों नहीं देते? गांधी के भंगियों से रिश्ते में एक दिलचस्प मोड तब आया जब गांधी ने 1946 में भंगी कालोनी में रहने का निर्णय किया . यह अलग बात है कि दिल्ली के आज के मन्दिर मार्ग पर स्थित जिस भंगी कालोनी में गांधी ने रहने का फैसला किया उसे घनश्याम दास बिडला, दिल्ली काटन मिल्स, कांग्रेस स्वयंसेवक दल तथा दिल्ली म्ुयूनिसिपल कार्पोरेशन के पैसों और श्रम से चमकाया गया तथा गांधी के लिए अलग एक साफ सुथरा कैम्प बनाया गया. विजय प्रसाद ने अपनी पुस्तक अनटचेबुल फ्रीडम में इस कैम्प में गांधी के प्रवास के दौरान घटी एक घटना का जिक्र किया है जिससे गांधी के मन और वर्णव्यवस्था के प्रति उनके नजरिये को समझने में मदद मिलेगी.
3 अप्रैल 1946 को कुछ बाल्मीकि युवकों ने गांधी को अपने साथ खाने के लिए आमन्त्रित किया. गांधी पशोपेश में पड ग़ये .साफ मना कर देने पर वैचारिकता का संकट उत्पन्न हो सकता था. उन्होंने कहा कि उनके खाने पर खर्च होने वाला पैसा किसी हरिजन बच्चे की शिक्षा पर खर्च कर दिया जाए.युवकों के हठ करने पर उन्होंने कहा कि वे उन्हें बकरी का दूध दे सकतें हैं लेकिन उसका मूल्य लेना पडेग़ा.और दबाव पडने पर उनकी तरफ से यह पेशकश हुई कि दलित युवक उनके घर पर खाना बनाकर उन्हें खिला दें. यह खास तरह का द्वैध था जो गांधी के मरने के सालों बाद भी उनके चेलों के व्यवहार में दिखाई देता रहा है .वे हरिजन उद्धार के नाम पर सामूहिक भोज का आयोजन करतें हैं पर हमेशा सवर्ण भोजन बनाकर हरिजनो को खिलातें हैं.शायद ही कभी इससे उल्टा दिखा हो .
यहां यह याद रखना चाहिए कि गांधी जन्माधारित वर्णव्यवस्था में विश्वास रखते थे और अपनी मृत्यु के कुछ महीनों पहले तक उन्होंने इस व्यवस्था के पक्ष में लिखा है और उसे महिमामण्डित करने का प्रयास किया है . उनका एक बहुपठित वाक्य बार बार उध्दृत किया जाता है जिसमें उन्होंने यह घोषित किया है कि वे एक सनातनी हिन्दू हैं और वर्णव्यवस्था के बिना इसकी कल्पना नहीं की जा सकती . उन्होंने यहां तक लिखा ,''हर व्यक्ति को अपना पेशा (वर्णव्यवस्था द्वारा निर्धारित) अपनाना चाहिये यह उसका अपना धर्म है . जो व्यक्ति अपना पेशा छोड देता है, अपनी जाति से च्युत होता है , वह स्वयं को तथा अपनी आत्मा को नष्ट कर लेता है.'' यह स्वाभाविक था कि इस तरह के विचार रखने वाला भंगियों को अपना काम पूरी श्रध्दा से करने का ही सलाह देता है . यह अलग बात है कि दलितों के बीच तब तक एक शिक्षित समाज पैदा हो गया था जो गांधी की इस इच्छा पर कि वे अगले जन्म में भंगी के घर में पैदा होना चाहतें हैं चुपचाप सिर नहीं झुका लेता था बल्कि उनमें से सनजना जैसे लोग तमक कर कह उठते थे कि गांधी चाहें तो इसी जन्म में भंगी बन सकतें हैं, उन्हें सिर्फ वह पेशा अपनाना पडेग़ा जिसे वे बडा महान घोषित करतें हैं. भंगियों को उन्हें अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी . अगला जन्म किसने देखा है ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह करने की शक्ति भंगियों को आधुनिक शिक्षा ने ही दी थी जिसके द्वार अंग्रेजों ने उनके लिए खोले थे.
पूना पैक्ट के बाद अम्बेदकर ने हमेशा इस बात की शिकायत की कि गांधी को दलित तभी याद आतें हैं जब उनके हिन्दू धर्म से अलग होने की सम्भावना दिखायी देने लगती है .दरअसल गांधी की चिन्ता चुनावी राजनीति के सन्दर्भ में बडे हिन्दू समाज की चिन्ता थी. 19 वीं शताब्दी का अन्त होते होते स्थानीय निकायों के चुनाव होने लगे थे और धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा था कि हर व्यक्ति को बराबर का मताधिकार मिलने का मतलब है कि अब तलवार के बल पर नहीं संख्या के बल शासक का चुनाव होगा. देश की साम्प्रदायिक राजनीति के चलते यह जरूरी था कि दलित हिन्दुओं के साथ रहें, मुसलमानों के साथ न जाएं या स्वतंत्र समूह न बन सकें . 1901 के बाद की जनगणना में हिन्दुओं की यह जिद धीरे धीरे आक्रामक होती गयी कि दलितों को उनके साथ रखा जाए. अपने सामाजिक जीवन में वे दलितों को हिन्दू पहचान देने के लिए तैयार नहीं थे पर राजनैतिक परिदृश्य पर दलितों का साथ उनके लिए जरूरी था. भारत में इस्लाम भी जाति प्रथा से मुक्त नहीं था अतः उनके लिए भी दलित अपनी संख्या बढाने के औजार से अधिक कुछ नहीं थे .कांग्रेसी नेता मोहम्मद अली ने एक बार यह सुझाव दिया ही था कि अछूतों की समस्या का सबसे आसान हल यह है कि उन्हें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बराबर बराबर बाँट दिया जाय.
गांधी की सोच मुख्य रूप से कांग्रेस की सोच बन गयी थी. हमें सैकडो ऐसे लिखित उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें कांग्रेसी नेतृत्व और दलितों के बीच इस बात को लेकर बहसें हुईं हैं कि स्वतंत्रता और दलित मुक्ति में से किसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए. गांधी और कांग्रेस का मानना था कि आजादी की लडाई खत्म होने तक यह प्रश्न नहीं उठाना चाहिए. यही दृष्टिकोण उनका किसानों और मजदूरों के संघर्ष के लिए भी था. दलित चाहते थे कि उनकी मुक्ति का सवाल पहले हल हो जाए. एक बार आजाद होने के बाद सवर्ण नेतृत्व उनके साथ न्याय करेगा इस पर उन्हें विश्वास नहीं था . इस अविश्वास के लिए उनके पास ऐतिहासिक रूप से मजबूत तर्क भी थे .
1857 के दलित पक्ष को समझने के लिए मैं मानता हूं कि दलितों के इस अविश्वास को ध्यान में रखना चाहिए .