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वैचारिकी

रणभूमि में भाषा

विभूति नारायण राय

अनुक्रम गुजरात के सबक पीछे     आगे

एक पुरानी मसल है कि जनता को राजा वही मिलता है जिसकी वह पात्र होती है.. इस कहावत को इस तरह कहा जा सकता है कि जनता को पुलिस भी वही मिलती है जो उसकी सामाजिक चेतना और नैतिकता के अनुकूल होती है.. क्या कारण है कि गौरांग महाप्रभुओं ने अपने अलग अलग उपनिवेशों को अलग अलग पुलिस दी. जो पुलिस हमें दी वैसी ही श्री लंका को नहीं दी, केन्या को नहीं दी या आस्ट्रेलिया को नहीं दी. बर्तानवी साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था तो सिर्फ इसलिये कि अलग अलग महाद्वीपों में लगभग पचास मुल्कों में यह फैला हुआ था. ये उपनिवेश अपने नागरिकों की त्वचा के रंगों के मामले में तो भिन्न थे ही अपनी सामाजिक संरचना और मूल्यबोध में भी एक दूसरे से काफी अलग थलग थे. लगभग सभी जगह एक आधुनिक संस्था के रूप में पुलिस अँग्रेजों ने खडी क़ी. वर्दी, ड्रिल या पदनामों जैसे वाह्य आवरणों में थोडी बहुत समानता होने के बावजूद अपनी आंतरिक संरचना में ये अपने अपने समाजों की प्रकृति और जरूरत के अनुकूल थे. भारत को अगर 1861 के पुलिस ऐक्ट के माध्यम से एक असभ्य ,बर्बर और कानून को ठेंगे पर रखने वाली संस्था हमें मिली तो हमने 1947 में आजादी मिलने के बाद उसे बदलने की कोशिश क्यों नहीं की? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इसी के पात्र थे और ऐसी ही पुलिस हमें भाती है?


महाराष्ट्र के तथाकथित एनकाउन्टर स्पेशलिष्ट के बरखास्त किये जाने अथवा गुजरात में पुलिस एनकांउंटर या मुठभेड में मारे गये सोहराबुद्दीन शेख के मामलो में अगर हमें किसी गंभीर विमर्श में भाग लेना है तो सिर्फ सतही या वक्ती मुद्दे उठाने से बचते हुये इसी तरह के कुछ गंभीर प्रश्नों से उलझना पडेग़ा.


जो प्रश्न मुझे गौरतलब लगतें हैं उन पर आने के पहले मैं पाठकों का ध्यान इन से मिलती जुलती और उतनी ही भयानक एक दूसरी घटना की तरफ ले जाना चाहूंगा जो बिहार के भागलपुर में घटी थी. संक्षेप में अगर उसे दुहरायें तो यह कह सकतें हैं कि दो ढाई दशकों पहले भागलपुर में पुलिस ने कुछ अपराधियों की आँखें फोड दीं थीं. ये दुर्दान्त किस्म के लोग थे जिनके ऊपर हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे जुर्म दर्ज थे. इन्हें सजा मिलनी ही चाहिये थी लेकिन किसी भी सभ्य समाज में न तो किसी अपराध की सजा आँख फोडना हो सकती है और न ही पुलिस को किसी भी तरह सजा देने का अधिकार मिल सकता है. फिर क्यों पुलिस ने सजा देने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया? इससे भी बडी एक दूसरी घटना वहीं घटी. अखबारों में छपी खबरों का संज्ञान लेकर जब न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप किया और एक उच्च न्यायिक अधिकारी को भागलपुर मौके पर जाँच के लिये भेजा गया तो उसके आगमन पर पूरा भागलपुर बंद रहा. यह बंद उस पुलिस के पक्ष में था जिसने बर्बरता की सारी सीमायें तोड दीं थीं, बंद बिहार में आयोजित हुआ जहाँ जनता आमतौर से पुलिस विरोधी है और बंद में जिन लोगों ने भाग लिया उनमें विश्वविद्यालय के शिक्षकों, वकीलों ,डाक्टरों जैसे पेशेवर तथा रिक्शा चालकों जैसे रोज कमाने खाने वाले शरीक थे. क्यों पूरा शहर बबर अपराधियों को बर्बर तरीके से दण्डित करने के पक्ष में खडा हो गया?


सोहराबुद्दीन शेख के एनकाउण्टर में गिरफ्तार पुलिस उपमहानिरीक्षक डी. जी. बनजारा ने अपने एक बयान में कहा कि वे साबित कर देंगे कि सोहराबुद्दीन शेख एक आतंकवादी था. मीडिया के एक हिस्से ने सोहराबुद्दीन क़ी पुरानी करतूतों को लिखना -दिखाना भी शुरू कर दिया है.इसी तरह महाराष्ट्र के एनकाउन्टर स्पेशलिस्ट भी अपनी जघन्य हरकतों को सही साबित करने के लिए अपने शिकार को अकसर देशदोही या समाज के ऐसे नासूर के रूप में पेश करतें है जिन्हें कानून का उल्लंघन करते हुये मार देना ही उचित है. क्या यह सही नहीं है कि हममें से ज्यादा लोग किसी आतंकवादी या बडै अपराधी को अगर पुलिस या फौज कानून की प्रक्रियायों की धज्जियाँ उडाते हुये मार दे तो बहुत बेचैन नहीं होते. यह भी कह सकतें हैं कि खुश होतें हैं.


मैं इन दोनो के बहाने सिलसिलेवार इन्हीं मुद्दों पर बात करना चाहता हूं. सबसे पहले हमें इस मूल प्रश्न से निबटना होगा कि क्या एक राष्ट्र के रूप में हम सभ्य, जनता की दोस्त और कायदे कानूनों का सम्मान करने वाली पुलिस अपने लिये चाहतें हैं? एक पुलिस अधिकारी के रूप में मेरा अनुभव कहता है कि नहीं. हमारे समाज की आंतरिक संरचना ही कुछ ऐसी है कि हमें इन सारे गुणों से रहित पुलिस रास आती है. मैंने ऊपर निवेदन किया है कि 1861 में पुलिस ऐक्ट बनाते समय और उसके बाद 1900 तक कई तरह के प्रयोगों से गुजारने के बाद उस संस्था का निर्माण करने तक जिसे हम आज तक भारतीय पुलिस के रूप में जानतें हैं अँग्रेजों के सामने जो भारतीय समाज था वह वर्णाश्रमी जकडबन्दियों से ग्रस्त और गैरबराबरी को धार्मिक वैधता प्रदान करने वाला समूह था. यह समाज अपने अस्सी प्रतिशत से अधिक सदस्यों को जानवरों से भी बदतर हालात में रखता था. उसकी सारी सामूहिक गतिविधियाँ जिनमें न्याय की अवधारणा, दण्ड विधान और भाषा भी सम्मिलित है, इस गैरबराबरी को ही पुख्ता करती थी. यदि अँग्रेजों ने यह समझा कि इस समाज की पुलिसिंग के लिये बहुत सभ्य और कानून का सम्मान करने वाली संस्था की जरूरत नहीं है तो वे गलत नहीं थे. यह समाज इस बात का अभ्यस्त था कि ताकतवर और कमजोर के लिये अलग अलग कानून बनाये जायं. अगर ऐसा न हो और एक जैसा कानून बने भी तो उसे लागू करते समय इन दोनों के प्रति भिन्न मापदन्ड अपनायें जायं.इस समाज में कानून का पालन करने वाले से उसे तोडने वाला ज्यादा आदर का पात्र होता है. इस सच्चाई को सामने रखकर जो पुलिस बनी और वह गौरांग महाप्रभुओं के लिये ज्यादा मुफीद थी और उसने उनके राज्य को बनाये रखने में अपनी भूमिका बखूबी निभाई.यही वह पुलिस थी जिसके बारे में कहा जाता था कि एक लाल पगडी क़ो देखकर पूरा गाँव खेतों या जंगलों में भाग कर छिप जाता था.


1947 में जब हमें आजादी मिली तब हमने इस पुलिस का चरित्र बदलने की कोशिश क्यों नहीं की? संभवतः एक स्वतंत्र देश में सबसे स्वाभाविक इच्छा ही यही हो सकती थी. भारत के संदर्भ में यह इसलिये भी बहुत सहज अपेक्षा होनी चाहिये थी क्योंकि कांग्रेस का लगभग पूरा नेतृत्व इस क्रूर और कानून को ताक पर रखने वाली पुलिस के हाथों काफी कुछ भुगत चुका था. पर ऐसा नहीं हुआ.हमारे नये प्रभुवर्गों को भी वही पुलिस रास आयी जिसके नींव 1861 में पडी थी.कई आयोग बैठे, उनकी मोटी मोटी रिपोर्टें आयीं ; अदालतों में याचिकायें दाखिल हुयीं , उनके फैसले आये लेकिन नतीजा सिफर रहा. पुलिस ज्यों की त्यों रही. कहीं कोई बुनियादी फर्क नहीं पडा. कानून का पालन नहीं करने और कानून तोडने वाली पुलिस सत्ता के शीर्ष पर बैठों की मदद कर सकती है इसलिये वे नहीं चाहते कि पुलिस का चरित्र बदले.


फर्जी मुठभेडों की चर्चा करते समय हमें इस बात को ध्यान में रखना पडेग़ा कि एक पेशेवर, राजनैतिक दबावों से मुक्त और कानून के दायरे में काम करने वाली पुलिस उन लोगों के हित में नहीं है जो परिवर्तन कर सकतें हैं. पर उन लोगों को समाज में बढते अपराधों के लिये जनता के प्रति जवाबदेह तो होना ही पडता है. अर्ध्द प्रशिक्षित और गैरपेशेवर नजरिये वाली पुलिस अपराधों से निपटने में सक्षम नहीं हो सकती इसलिये स्वाभाविक है कि उससे अपेक्षा की जाती है कि वह गैर कानूनी तरीकों से अपराध रोके. इसके लिये सबसे आसान रास्ता है थर्ड डिगरी और मार पिटाई तथा शारीरिक अंग भंग से गुजरता हुआ यह रास्ता एनकाउण्टरों तक जाता है जिसमें अपराधी को मार ही डाला जाता है. न रहे बांस न बजे बांसुरी.


दुर्भाग्य से भारतीय समाज का एक बडा हिस्सा इस बात में यकीन करता है कि अपराधियों से निपटने का सबसे उपयुक्त और जरूरी उपाय उन्हें मार देना है. मैंने अपने पिछले तीन दशकों के पुलिस कैरियर में बहुत बार यह अनुभव किया है कि समाज के प्रबुद्ध तबकों , जिनमें न्यायाधीश, नौकरशाह, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, अध्यापक, वकील और डाक्टर जैसे लोग भी सम्मिलित हैं, में एक बडी संख्या उन लोगों की है जो थर्ड डिगरी का समर्थन करतें हैं. आपको अगर कभी कोई ऐसा न्यायाधीश मिले जिसके घर में चोरी हो गयी हो और जो सिर्फ इसलिये एफ.आई.आर. नहीं लिखाना चाहता कि उसके परिवार की महिलाओं को थाना कचहरी का चक्कर लगाना पडेग़ा पर जो यह अपेक्षा करता हो कि उसके नौकर को पुलिस ले जाकर उल्टा लटका दे और उसका माल वापस करा दे तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिये. ऐसी अपेक्षा करने वाला ऊपर उल्लिखित प्रबुद्ध तबकों में से किसी से भी हो सकता है. जरा हम अपने दिल पर हाथ रखकर सोचें कि हममें से कितनों को पंजाब और कश्मीर के आतंकवादियों के फर्जी मुठभेडों में मारे जाने पर धक्का लगा होगा? उत्तर प्रदेश में तो एक मुख्यमंत्री खुले आम कहा करते थे कि प्रशासन तो धनक, हुमक और चमक से चलता है. ये तीनों शब्द कानून के दायरे से सर्व्रथा मुक्त पुलिस के डंडे की तरफ इशारा करतें हैं. मैंने ऊपर आँख फेडवा काण्ड में भागलपुर की जनता द्वारा दिये गये पुलिस के समर्थन का जिक्र किया है. यह समर्थन भारतीय समाज द्वारा पुलिस हिंसा को दिये जाने वाली स्वीकृति का ही एक छोटा सा हिस्सा है.पुलिस अधिकारियों में भी एक बहुत बडा तबका है जो इसमें यकीन रखता है कि अपराधियों को दण्ड देने का न सिर्फ उसे अधिकार है बल्कि यह उसका सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व भी है. वह स्वयं को एक ऐसे खुदाई फौजदार के रूप में देखता है जिसमें पुलिस, जज और जल्लाद तीनों के अधिकार निहित हैं. खास तौर से काश्मीर और पंजाब जैसी स्थितियों तथा सोहराबुद्दीन जैसे मामलों में तो अपराधियों को मारना राष्ट्रप्रेम का भी मसला है.


सोहराबुद्दीन शेख के मामले में गिरफ्तार पुलिस अधिकारी बंजारा का यहा बयान भी महत्वपूर्ण है कि वह शेख का आतंकवादी होना साबित कर देगा. सारा पेंच इसी में है. यदि शेख आतंकवादी था तो उसे पकडक़र मार देने को भारतीय समाज माफ कर देगा. भागलपुर के दुर्दान्त अपराधियों की आँखें फोडने वाले मामले में यही तो हुआ. इसके दो निहितार्थ हैं -पहला कि अगर कोई अपराधी है तो पुलिस उसके हाथ पैर तोड सकती है या मार सकती है और दूसरा कि हमारी सामान्य न्याय व्यवस्था अपराधियों को कानूनी प्रक्रियायों से गुजरते हुये दण्ड देने में अक्षम है . दूसरी स्थिति काफी हद तक सही भी है. सिर्फ संसद और विधानसभाओं में ही सैकडों की तादाद में ऐसे लोग मौजूद हैं जिनके ऊपर हत्या, बलात्कार , डकैती या अपहरण जैसी संगीन धाराओं के दर्जनों मुकदमें हैं और सालों से घिसट घिसट कर अदालतों में चल रहें हैं. आम नागरिक ने यह आशा छोड दी है कि ऐसे अपराधियों को सामान्य न्यायिक प्रक्रियायों से दण्डित किया जा सकता है जो क्रूरता , धन, जाति या राजनैतिक पहुँच के मामले में कमजार नहीं है. यह नागरिक चाहता है कि उसके जीवन को नर्क बनाने वाले इन अपराधियों से पुलिस किसी तरह से भी निपटे. अगर सत्ताधारी इसे पेशेवर संस्था के रूप में नहीं विकसित होने दे रहें हैं तो कोई बात नहीं - यह अपराधियों से गैर पेशेवर तरीकों से ही निपटे. भागलपुर के आँख फोडवा काण्ड के सभी अपराधी इतने दुर्दान्त थे कि वे कानून की द्वंदों के बाहर निकल चुके थे. इसलिये अगर पुलिस ने उनकी आँखें फोड दीं तो सामान्यजन को पुलिस से वितृष्णा नहीं हुयी , वे उल्टे पुलिस के पक्ष में खडे हो गये.


यह एक चिंताजनक स्थिति है. किसी सभ्य समाज को अपनी पुलिस को यह अधिकार नहीं देना चाहिये कि वह किसी नागरिक की जान ले ले या उसके साथ मार पीट करे . यह स्थिति सिर्फ भ्रष्ट पुलिस कर्मियों और सत्ता का दुरूपयोग करने वाले राजनितिज्ञों के ही हित में है. मैं अपने अनुभवों से यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि जो पुलिस अधिकारी जितने अधिक मुठभेडों में शरीक हुआ है वह उतना ही अधिक भ्रष्ट होगा. दरअस्ल यह गणित का नहीं अर्थशास्त्र का मसला है. मुठभेड क़ा माहिर पुलिस वाला एक दो हत्यायें तो इस जुनून में करता है कि वह ऐसा किसी बडे राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह करने के लिये कर रहा है , फिर वह अपने किसी राजनैतिक आका को खुश करने के लिये उसके विरोधी को मार देता है, इसके बाद कोई अपराधी गिरोह अपने प्रतिद्वन्दी गिरोह का अपराधी उसे सौंपता है जिसे मारने पर तमगा या तरक्की मिलती है. हो सकता है कि हर मामले में बिल्कुल ऐसा ही नहीं होता हो पर इससे मिलता जुलता जरूर होता है. अखबारों में अक्सर एनकाउण्टर स्पेशलिस्ट पुलिस वालों के सम्पत्तियों के विवरण छपते हैं . ये झूठे नहीं होते. जिन मुठभेड विशषज्ञों की सम्पत्ति के विवरण नहीं छपें हों उनमें झाँकना भी निश्चित रूप से दिलचस्प होगा.


ये मामले फिर किसी सतही बहस का हिस्सा न बने, इसके लिये जरूरी है कि हम ऊपर उठाये गये मुद्दों पर भी गंभीर विमर्श करें. जरूरी है कि हम अपने कानूनों और दण्ड पक्रियायों में ऐसे परिवर्तन करें जिनसे अपराधियों को एक डेढ वर्षों में ही दण्डित करना संभव हो सके. एक राष्ट्र के रूप में हमें उस पाखण्ड को भी छोडना होगा जिसमें हम लोकतंत्र होने का दावा भी करें और अपराधियों को पुलिस के हाथों दण्डित होते देखकर खुश भी हो. सबसे आवश्यक यह है कि हम् एक ऐसे पुलिस बल का निर्माण करें जो शुद्ध रूप से पेशेवर हो और कानून के दायरे में काम करने में हिचक न महसूस करें.


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